शब्द : परिभाषा और विशेषताएँ

शब्द : परिभाषा और विशेषताएँ

                        शब्द : परिभाषा और विशेषताएँ

भाषा के विश्लेषण के क्रम में हम यह जान चुके हैं कि अर्थ संकेत करने वाले शब्दों या पदों का समूह है
भाषा है। यहाँ शब्दों की सार्थकता ध्यातव्य है। आचार्य किशोरी वाजपेयी इसीलिये लिखते हैं कि भारत के
अंश-प्रत्यंश का विवेचन-विश्लेषण व्याकरण या शब्दानुशासन है। प्रयोग-विवेचन के कारण इसे शब्दानुशासन कहर
हैं। यहाँ शब्दानुशासन में ‘शब्द’ शब्द पद के अर्थ में आया है। आचार्य वाजपेयी एक अर्थ में ‘वर्ण’, ‘पद’ औ
‘वाक्य’ को शब्द ही कहते हैं।
 
कहा जाता है कि समस्त संसार की भाषाओं को ध्यान में रखें तो हर दृष्टि से शब्द को ठीक-ठीक व्याख्यायित
करना या परिभाषित करना अत्यंत कठिन है। संस्कृत में जब विभक्तियाँ लग जाती हैं तब दोनों मिलकर ‘पद’ बन
जाते हैं। परंतु संस्कृत की तरह ‘प्रादिपादिक’ ‘हिंदी में नहीं है। इसका कारण यह है कि यहाँ संस्कृत की तरह
विभक्ति प्रयोग की अनिवार्यता नहीं है। यहाँ तो अर्थ संकेतित शब्द, ही पद हैं, यदि वह वाक्य का अर्थ हैं। फिर
चाहे उसमें कोई विभक्ति हो अथवा नहीं । विभक्ति की यही अनिवार्यता नहीं है। बिना विभक्ति वाले शब्द भी प्रयुक्त
होकर सारे कार्य करते हैं। स्पष्ट हैं यदि बिना विभक्ति के ही काम चल जाये तो फिर अर्थ का जोड़ क्यों लगाएँ ?
संस्कृत में ‘राम:’ ‘मुखेन पठति रामायाणम्’ में मुखेन शब्द प्रयोग किस काम का ? सभी जानते हैं कि मुँह से ही
पढ़ा जाता है । तब फिर ‘मुखेन’ करण देने की क्या आवश्यकता ? हिंदी इस अर्थ में संस्कृत से आगे बढ़ी हुई है।
यहाँ सिद्धांत है कि विभक्ति के बिना ही यदि कारक हो जाय तो फिर उस विभक्ति का प्रयोग क्यों किया जाय?
 
शब्द की परिभाषा देने हेतु विचार करते हुए पाश्चात्य भाषा-वैज्ञानिक येस्पर्सन, बेंद्रिये, डैनियल जोन्स एवं
उल्डल जैसे विद्वानों ने शब्द की परिभाषा देने में कठिनाई महसूस की है परंतु फिर भी सबका मत है कि ‘शब्द’ की
एक काम चलाऊँ परिभाषा तो चाहिये ही। अस्तु इसी अनिवार्यता को ध्यान में रखते हुए कहा गया है कि ‘शब्द
अर्थ के स्तर पर भाषा की लघुतम स्वतंत्र इकाई है । इस परिभाषा में शब्द के सम्बन्ध में मुख्य रूप से दो बातें कही
गयी है ये मूलतः शब्द की विशिष्टता ही जाहिर करती हैं। वे दोनों बातें हैं (क) यह अर्थ के स्तर पर भाषा की
लघुतम इकाई है यानी इसका एक स्पष्ट अर्थ होता है, जो अर्थ के स्तर पर लघुतम होता है । ध्यान रहे यह ध्वनि
के स्तर पर लघुतम इकाई नहीं है क्योंकि इसमें क ध्वनि भी हो सकती है और एक से अधिक ध्वनि भी।
 
(ख) यह लघुतम इकाई स्वतंत्र है, यानी प्रयोग में हर अर्थ व्यक्त करने में इसे किसी और की सहायता की
जरूरत नहीं पड़ती । संदेह न रहे इसलिये ज्ञातव्य है कि ‘अ’ उपसर्ग है और अर्थ के स्तर पर लघुतम इकाई भी है
जिसका अर्थ नहीं होता है, एवं तो (प्रत्यय) भी जैसे ‘सुंदरता’; किंतु ये ‘शब्द नहीं माने जा सकते; क्योंकि अर्थ
की लघुतम इकाई होतु हुए भी इनका अकेले प्रयोग नहीं हो सकता । इनमें अर्थ की सार्थकता किसी के साथ होने
(अपूर्ण, पूर्णता आदि) पर ही है और इसी रूप में यह प्रयोग में आ भी सकते हैं। स्पष्ट है, ये परतंत्र हैं, स्वतंत्र
नहीं। इनके विरुद्ध “पूर्ण” एक शब्द है, क्योंकि इसमें उपर्युक्त दोनों बाते हैं। यह लघुतम इकाई भी है और स्वतंत्र
(वह पूर्ण भी है) भी।
 
कोई भी भाषा हो उसमें शब्दों का अपना खास वैशिष्ट्य होता है। शब्द न हों तो कोई अपनी बात भला कैसे
व्यक्त कर पाएगा? शब्दों में निहित अर्थ के कारण ही किसी वाक्य का अर्थ प्रकट होता है क्योंकि शब्दों से ही
वाक्य बनता है। निरर्थक शब्दों से वाक्य की संरचना तो हो सकती है (कठिनाई से) परंतु वाक्य खुद कोई अर्थ प्रकट
नहीं कर पाएगा । अस्तु ध्वनियों से निर्मित शब्द ही वाक्य की संरचना में प्रयुक्त होकर भाषा का अर्थ व्युत्पन्न करता
है। ये शब्द ही अर्थ को साथ लेकर चलते हैं। एक भाषा के शब्दों का अस्तित्व उस भाषा को बोलने एवं समझने
वाले समाज के साथ अपरिहार्य रूपेण जुड़ा होता है। उन शब्दों के अर्थ उक्त भाषा का व्यवहार करने वाले ही
समझते हैं दूसरी भाषा के लोग नहीं। इसी से शब्दों की और व्यापक रूप में भाषा की समाज सापेक्षता का प्रमाण
मिलता है।
 
जाहिर है शब्दों की अर्थवत्ता उनके अस्तित्व को भी सार्थक बनाती है। शब्दों की यह अर्थवत्ता उनकी खास
विशेषता होती है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि शब्दों की यह अर्थवत्ता वस्तुतः सामाजिक स्तर पर ही उसे प्रदान की
जाती है। खास अर्थ के लिये सामाजिकों द्वारा खास शब्द निर्धारित कर देता है । यह निर्धारित शब्द उक्त खास अर्थ
का वाहक बन जाता है। शब्द के साथ अर्थ का यह संबंध ऐसे बन जाता है कि उस समाज के सारे लोग उक्त शब्द
बोलते हो उसी अर्थ को ग्रहण कर लेते हैं। खास अर्थ के लिये खास शब्द निर्धारित करने की कोई विशिष्ट प्रक्रिया
नहीं होती। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे माता-पिता अपनी इच्छा से (चाहे जैसी इच्छा हो) अपनी संतानों के
नामकरण करते हैं । शब्द में अर्थ में का आरोपण इस अर्थ इच्छानुकूल होता है किंतु यही आरोपण एक तरह से रूढ़
बन जाता है। इसी कारण हर शब्द अपना अलग-अलग अर्थ रखता है।
 
संसार में जितनी दिखाई पड़ने वाली वस्तुएँ या स्थितियाँ हैं उनके लिये निर्धारित शब्द तो समाज ने बनाए ही
हैं इनके अलावे न दिखाई पड़ने वाली वस्तुएँ यथा भावना विचार और संवेदना- इनके लिये भी शब्दों के बनने का
लगभग यही तौर है। शब्दों को अपनी विशेषाताएँ हैं। ये शब्द विचारों और भावों को वहन करते हुए अपने साथ
परंपरा और संस्कृति को समेटते चलते हैं। यही कारण है कि पूर्व की संस्कृति और परंपरा को हम शब्दों में व्यक्त
और निर्धारित अर्थ समवेत यल से जानते हैं। अर्थवान शब्द न हों तो अपना इतिहास अपनी संस्कृति और अपनी परंपरा
भला हम कैसे जान पायेंगे। जाहिर है शब्दों को ये विशेषताएँ संपूर्ण मानव समाज को एक पहचान भी देतो हैं।

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