शब्द-लोप और नवीन शब्द-निर्माण

शब्द-लोप और नवीन शब्द-निर्माण

                        शब्द-लोप और नवीन शब्द-निर्माण

हर भाषा में प्रयुक्त होने वाले समस्त शब्दों का एक समूह होता है जिसे उस भाषा का शब्द समूह कहते
हैं। जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक व्यक्ति के शब्द-समूह में भी परिवर्तन होता रहता है। ठीक उसी प्रकार भाषा
का शब्द-समूह भी परिवर्तित होता रहता है। शब्द-समूह में परिवर्तन दो तरह से होते हैं: (1) प्राचीन शब्दों के लोप
से (2) नवीन शब्दों के आगमन से।
 
शब्दों के लोप के कारणों के दो पक्ष होते हैं : प्रथम ‘वैयक्तिक पक्ष’ । इसमें कारण बोलने वाले के मस्तिष्क
में रहता है। शब्द कभी-कभी घिस जाने के कारण अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं कर पाते तो बोलने वाले उसे व्यर्थ
समझ कर छोड़ देते हैं। दूसरा है ‘सामाजिक पक्ष’। समाज में कुछ रीतियों के समाप्त हो जाने के कारण उनसे
संबंधित शब्द भी छूट जाते हैं । शब्द-लोप के कुछ कारण निम्नांकित हो सकते हैं-
 
(क) रीति या कर्मों का लोप-परिवर्तनशील समाज में सदा ही एक प्रकार का कार्य नहीं होता और न उसमें
एक प्रकार की रस्में या रीतियाँ ही प्रचलन में रहती हैं। ऐसी स्थिति में उनसे संबंधित शब्द भी भाषा के शब्द-समूह
से प्रायः निकल जाते हैं। पहले के ‘यज्ञ’ शब्द से संर्बोधत सुब्रह्मण्या न्यूङ्ख; यज्वा, यायजूक, स्थाण्डिल,
आवसथिक, अहीन, अभिप्लव, संचाय्य, सुत्या तथा आनाय्य आदि सैकड़ों प्रचलित शब्द यज्ञ-परंपरा के लुप्त हो जाने
से हमारे शब्द-समूह से निकल गये हैं। यज्ञ तो आजतक होते रहते तो तत्सम या तद्भव रूपों में वे अवश्य वर्तमान
रहते।
 
(ख) रहन-सहन तथा खान-पान में परिवर्तन-इस परिवर्तन का शब्द-समूह के परिवर्तन पर प्रभाव पड़ता
है। पुरानी चीजें नहीं रहतीं तो उनसे संबंधित शब्द भी लुप्त हो जाते हैं। प्राचीन मंथ (धान का मथकर बनाया सत्तू)
यावक (जौ से बना एक खाद्य), संयाव (एक प्रकार का हलुवा) का प्रयोग बंद हुआ तो वे शब्द-समूह से भी गायब
हो गये । वैदिक आभूषण ‘कुटीर’ (मस्तक का) या ‘हिरज्जयवर्तिनी’ (कमर का) भक्तिकालीन और रीतिकालीन
आभूषण (अनवट) अब प्रयुक्त नहीं होते । फलतः ये शब्द भी भाषा में नहीं हैं।
 
(ग) अश्लीलता-सामाजिक रूढ़ियों एवं परंपराओं के अनुसार मैथुन या शौचविषयक बहुत से शब्द अश्लील
स्वीकार कर लिये जाते हैं। शिक्षित और सभ्य समाज उनका प्रयोग नहीं करते । फलत: वे लुप्त हो जाते हैं।
 
(घ) ध्वनि की दृष्टि से शब्दों का घिस जाना-ध्वनि परिवर्तन होते होते कभी-कभी शब्द इतने घिस
जाते हैं कि उन्हें शब्द-समूह से निकल जाना पड़ता है और उनकी जगह फिर से भाषा में मूल तत्सम शब्द या त्य
शब्द ले लिये जाते हैं। प्राकृत या अप्रभंश तक आते-आते बहुत से शब्द इस प्रकार के हो गये थे। कुछ में केवल
स्वर ही रह गये थे।
 
(ङ) अंधविश्वास-यह जंगली या अर्द्धसभ्य लोगों की भाषाओं में पाया जाता है। अंधविश्वास के कारण
ये लोग कुछ शब्दों का प्रयोग छोड़ देते हैं। कुछ सभ्य लोगों में भी इस प्रकार के अंधविश्वास मिलते हैं।
 
(च) पर्याय-कभी-कभी जन-मानस व्यर्थ ही एक भावना के लिये कई शब्दों का भार ढोना पसंद नहीं
करता । मुसलमानों के आने के बाद मध्ययुग में जनभाषा में ‘सहस्र’ शब्द हजार के समक्ष ठहर नहीं पाया । इशारा
के लिए ‘संकेत’, आईना या शीशा के लिये ‘दर्पण’, ‘शक्ल’ के लिये आकृति; शराब के लिये मदिरा या ‘मद्य’, शहर
के लिये नगर या पुर, शिकार के लिये ‘मृगया’ या आखेट तथा ‘खाली’ के लिये रिक्त या ‘रीता’ शब्दों को जगह
छोड़ देनी पड़ी। हाँ, इधर कुछ सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इस युग में वे शब्द पुनः वापस लौट रहे हैं। शब्दों के
भारतीय पर्याय इतनी बुरी तरह लुप्त हो गये हैं कि देख कर अचम्भा होता है।
 
      नवीन शब्दों का आगमन-
 
भाषा में जहाँ एक और कुछ प्राचीन शब्दों का लोप होता जाता है वहीं दूसरी ओर कुछ नये शब्दों का आगमन
भी होता है। नवीन शब्दों के आगमन के कई कारण हो सकते हैं :
 
(क) सभ्यता में विकास-सभ्यता के साथ नवीन चीजों का निर्माण नये शब्दों के निर्माण की भूमिका बनता
है। अंग्रेजी भाषा में वैज्ञानिक विकास के कारण ही प्रतिवर्ष हजारों नये शब्द अन्य भाषाओं से लेने या बनाने पड़ते
हैं। हिंदी में भी पिछले साठ-सत्तर वर्षों में अनेक नये शब्द बने हैं। नलकूप ऐसा ही शब्द है।
 
(ख) चेतना-राजनीतिक या सांस्कृतिक चेतना के कारण भी नवीन शब्दों का आगमन होता है। अपने यहाँ
स्वतंत्रता के बाद विभिन्न क्षेत्रों में बहुमुखी विचारों की अभिव्यक्ति के लिये हजारों शब्द संस्कृत के आधार पर बनाए
गये है। इतना ही नहीं, संस्कृत प्राकृत जैसी प्राचीन और कभी-कभी अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं से भी लिये जा
रहे हैं।
 
(ग) भिन्न-भिन्न भाषा, शब्दों या क्षेत्रों का संपर्क-समय-समय पर अरब, ईरानी, पुर्तगाली तथा अंग्रेजों
के यहाँ आने और भाषिक संपर्क होने से भारतीय भाषाओं ने इन सभी भाषाओं से शब्द लिये। संसार की सभी
भाषाओं ने संपर्क के कारण कुछ न कुछ शब्द ग्रहण किये हैं।
 
(घ) दृश्यात्मकता-कभी-कभी दृश्यात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिये कुछ शब्द आ जाते हैं।
बगबग, जगमग, चमचम, लकदक जैसे शब्द हिंदी में ऐसे ही आए हैं।
 
(ङ) ध्वन्यात्मकता-कुछ वस्तुओं की ध्वनि के कारण भी नये शब्द उन ध्वनि के आधार पर आ जाते हैं।
मोटर की ध्वनि के कारण ‘पों-पों;’ कुत्ते के कारण ‘भों-भों’ शब्द हिंदी में ऐसे ही आए हैं। चरमर, भड़भड़,
हड़हड़, कल-कल, छल-छल तथा खल-खल ऐसे ही शब्द हैं।
 
(च) साम्य और नवीनता लाने के लिये-साम्य और नवीनता के लिये भी कई बार बलात नये शब्द ले
आते हैं और वे चल पड़ते हैं। हिंदी में साम्य के लिये ‘पाश्चात्य’ के साथ ‘पौर्वात्य’ एक नया शब्द आ गया।
‘पिंगल’ के आधार पर ‘डिंगल’ और मीठा के आधार पर सीठा शब्द बन गए। नवीनता के लिये उपसगों को जोड़कर
भी इधर जाने कितने नवीन शब्द बनाए जाते हैं। हिंदी में तो न जाने कितने ऐसे शब्दों का आविर्भाव हुआ है।

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