शब्द-विकास की प्रणाली

शब्द-विकास की प्रणाली

                        शब्द-विकास की प्रणाली

नये विचार नयी संकल्पनाएँ या नये पदार्थ स्वाभाविक रूप में अपने लिये नामकरण की अपेक्षा रखते है।
व्यावहारिक रूप से इसके लिये हम प्राय: तीन प्रणालियों का सहारा लेते हैं : किसी दूसरी भाषा से संबंद्ध शब्द ले
अपनी भाषा में उसका प्रयोग कर लेते हैं; अपनी ही भाषा के किसी शब्द को नए अर्थ में प्रयोग कर लेते हैं ।
बिल्कुल नया शब्द गढ़ लेते हैं। इस प्रकार किसी भाषा में शब्दावली के विकास की तीन प्रमुख प्रणालियाँ होती है।
शब्द-आदान, शब्द-चयन और शब्द-निर्माण 
 
    शब्द-आदान :
 
जब दो भाषाओं या संस्कृतियों के लोग एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं तो विचारों तथा पदार्थो क
आदान-प्रदान होता ही है और अक्सर उनके बोधक शब्द भी एक दूसरे की भाषा में चले जाते हैं। यह भाषा के
स्वाभाविक विकास का नियम है। अंग्रेजी जैसी भाषा में इसीलिये विदेशी शब्दों का प्रवेश बराबर जारी रहा है।
फाउलर जैसे भाषाविद् इसे अनिवार्य और अपेक्षित मानते हैं। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा लिखते हैं- “संपर्क में आने पर भी
आवश्यक विदेशी शब्दों को अछूता-सा मानकर न अपनाना अस्वाभाविक है। यल करने पर भी यह कभी संभव नहीं
हो सका है। अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करना दूसरी अति है। मध्यम मार्ग यही है कि अपनी भाषा के ध्वनि-समुद्र
के आधार पर विदेशी शब्दों के रूप में परिवर्तन करके उन्हें आवश्यकतानुसार सदा मिलाते रहना चाहिये । इस प्रका
शुद्धि करने के उपरांत लिये गए विदेशी शब्द जीवित भाषाओं के शब्द-भंडार को बढ़ाने में सहायक होते ही हैं।
 
आगत शब्दों को मुख्यतः तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है :
 
(1) ऐसे शब्द जिनके लिये अपनी भाषा में कोई पर्याय हैं ही नहीं; जैसे हिंदी में बुलेटिन, कंपनी, ऐल्बम, चार्ट
गारंटी, क्लब और टैग आदि शब्द हैं।
 
(2) ऐसे शब्द जिनके लिये अपनी भाषा में समानार्थी शब्द भी उपलब्ध हैं या रख लिये गए हैं। उदाहरण
के लिये हिंदी में ‘बायकाट’ / बहिष्कार; व्यूरो । कार्यालय; एकेडेमी/ विद्वतपरिषद्; कोटा/नियतांश; कोरम/गणपूर्ति;
पारपत्र / पासपोर्ट; सेंसर / अभिवेचक; फोटो / छाया; सिनेमा । चलचित्र आदि ।
 
(3) ऐस शब्द जो किसी व्यक्ति या स्थान के नाम पर आधारित हैं जैसे आगस्टाइनवाद, मार्क्सवाद, आदि।
 
किसी भाषा में विदेशी शब्द दो तरह से प्रविष्ट होते हैं-बोलचाल द्वारा और लिखित साहित्य द्वारा । जब किसी
देश में लम्बे समय तक द्विभाषिक स्थिति रहती है तो लोग विदेशी भाषा के शब्दों का अपनी भाषा में प्रयोग करने
लगते हैं। यह क्रिया तब और तीव्र हो जाती है जब सरकारी कामकाज और शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा ही हो।
दूसरे, विदेशी भाषा की पुस्तकों का अनुवाद करते समय या विदेशी संस्कृति या इतिहास पर मौलिक पस्तकें
लिखते समय कुछ अनुवादक या लेखक मूल विभाषी शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। संसार की लगभग सभी उन्नत
भाषाओं में भी विकास के दौरान यही स्थिति पाई गई है।
 
इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसे विदेशी शब्दों को अपनाया जा सकता है जो विशिष्ट विदेशी पदार्थों
तथा संकल्पनाओं के बोधक हैं और जिनके लिये अपनी भाषा में उपयुक्त पर्याय मिलते ही नहीं हैं या सुगमतापूर्वक
गढ़े नहीं जा सकते हैं।
 
प्राय: सभी भाषाओं में कुछ ऐसे शब्द मिलते हैं जो व्यक्तिवाचक संज्ञाओं पर आधारित होते हैं। ऐसे शब्दों
को, मूल व्यक्तिवाचक अंश को दूसरी भाषा में ज्यों का त्यों ले लिया जाता है और उसको आधार बनाकर अपनी
भाषा के उपसर्ग-प्रत्यय के योग से व्युत्पन्न शब्द बना लिया जाता है यथा- गाँधीवाद के लिये अंग्रेजी में गाँधीइज्म
या माक्सिम के लिये हिंदी में मार्क्सवाद । जाहिर है ऐसे मामलों में हमें सैद्धांतिक की बजाय उपयोगितावादी बनना
चाहिये।
 
हिंदी में काफी समय पूर्व के आगत शब्दों का अवलोकन करने से इस बात की पुष्टि हो जाती है कि अधिकांश
विदेशी शब्दों का रूपात्मक विकास होकर ही इसमें आगम हुआ है। सामान्य व्यवहार में आनेवाले कई शब्द ऐसे हैं
जिनमें अंग्रेजी तथा हिंदी- रूपों में काफी अंतर आ गया है यथा-अप्रैल, सितंबर, लालटेन आदि । कुछ ऐसे उदाहरण
भी हैं जहाँ बल तथा स्वराघात संबंधी परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे- मशीन, इंजन, रेयन, थर्मस आदि । कहीं
कहीं अंग्रेजी शब्दों के दो उच्चारण मिलते हैं, जैसे- सीमेंट, सेमेंट तथा विटामिन, वाइटामिन ।
 
       ‘शब्द चयन’ :
 
इस संबंध में प्रायः एकमतत्व दिखाई पड़ता है कि नए शब्दों को गढ़ने से पहले भाषा में उपलब्ध शब्दों का
पूरा-पूरा उपयोग होना चाहिये । कई बार उपयुक्त शब्द उपलब्ध रहते हुए भी लोग नये शब्द गढ़ लेते हैं। या तो
कोई पुराने शब्दों को ढूंढने का कष्ट नहीं करता या जानबूझकर उसकी अवहेलना कर देता है। फलत: एक शब्द के
लिये कई-कई शब्द बन जाते है। हिंदी में एक उदाहरण ‘माइग्रेशन’ शब्द का है। इसके लिये हिंदी में छह पर्याय
सुझाए गए हैं-प्रवास, प्रवसन, प्रव्रजन, स्थानांतरण, स्थानांतरगमन और देशांतरगण। अक्सर यह दलील देकर कि
अमुक शब्द से तो अभिप्रेत अर्थ निकलता ही नहीं है इसीलिये दूसरा पर्याय सुझा दिया जाता है। लोगों की आम
धारणा है कि यदि शब्द से पूरा अर्थ नहीं निकलेगा तो उसके प्रयोग से भ्रम उत्पन्न होने की संभावना होगी। इसीलिये
ऐसे शब्दों को स्वीकार किया जाय जिन्हें देखते ही अर्थ तुरंत समझ में आ जाए। बात कुछ हद तक ठीक भी है
परंतु अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति या शब्दों की सुगमता या सरलता ही सब कुछ नहीं है । शब्द-चयन करते समय कई
और बातों पर भी ध्यान देना अनिवार्य है। इन्हें जानने के लिये यह भी आवश्यक है कि हम परिभाषित शब्दों के
विशिष्ट लक्षण को ठीक-ठीक समझ लें ।
 
सुविख्यात भाषाविद् ब्रेऊल ने व्याख्या दी है-“किसी पदार्थ या वस्तु का नामकरण करते समय उन सभी
विचारों का समावेश नहीं हो सकता जो उस पदार्थ को देखकर मन में जाग्रत होते हैं। इस तरह वह शब्द केवल संकेत
मात्र बन जाता है।”
 
प्राचीन भारतीय वैयाकरणाचार्य महर्षि पतंजलि अपने महाभाष्य में एक जगह कहते हैं-“लब्ध्वर्थ  हि
संज्ञाकरणम्।” अर्थात् संक्षिप्त पद को ही संज्ञा कहते हैं। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि पारिभाषिक शब्द
सक्षिप्त होते हैं और उनमें प्रमुख भावों या विचारों का ही समावेश हो सकता है, पूरी व्याख्या नहीं।
 
सामान्यतः देखा जाता है कि किसी भी परिभाषिक शब्द का जब पहले-पहल प्रयोग होता है तो उसके अर्थ
को व्याख्या द्वारा स्पष्ट कर दिया जाता है। शब्द जब प्रचलित हो जाते हैं तब परिभाषिक शब्द उक्त अर्थ में रूढ़
हो जाते हैं। शब्द के विभिन्न पर्याय देने के पूर्व निम्नांकित बातों पर ध्यान देना चाहिए।
 
(1) कौन-सा शब्द सरल और यथार्थ है।
(2) कौन-सा शब्द सुगम और संक्षिप्त है।
(3) किस शब्द से व्युत्पन्न शब्द सरलता से गढ़े जा सकते हैं ?
 
यथार्थता की दृष्टि से तो प्रायः सभी शब्द ठीक हो सकते हैं परंतु देखना यह है कि कौन-सा पर्याय सबसे
संक्षिप्त और सरल है । अंग्रेजी शब्द ‘माइग्रेशन’ के लिये प्रवास तथा प्रवजन दोनों ही इस दृष्टि से उपयुक्त हैं किंतु
प्रवजन शब्द का उच्चारण करने पर जिह्वा को कुछ अधिक कष्ट उठाना पड़ता है और इससे व्युत्पन्न शब्दों में भी
यही कठिनाई होती है। ‘प्रवास’ शब्द अपेक्षया अधिक सरल और इससे अन्य शब्द भी सरलता से गढ़े जा सकते
हैं। जैसे ‘माइग्रेट’ के लिये प्रवासी; इमीग्रेशन के लिये आप्रवास, इमीग्रेट के लिये आप्रवासी ‘इमीग्रेशन के लिए
उत्प्रवास, एमीग्रेट के लिये उत्प्रवासी । यदि हम देशांतरगमन या स्थाना।तरण शब्द स्वीकार करें तो स्पष्ट है कि व्युत्पन्न
शब्दों के निर्माण में कठिनाई होगी।
 
कुछ पारिभाषिक शब्द ऐसे होते हैं जिनका मूल अर्थ एक होते हुए भी विभिन्न विषयों में विभिन्न प्रकार से
उनकी व्याख्या की जाती है और व्याख्या को आधार माना जाय तो कई पर्याय बन जाते हैं। जबकि व्यापक अर्थवाले
एक ही पर्याय से सभी संदर्भो में काम चल सकता है। अंग्रेजी का ‘कैनीबालिज्म’ शब्द इतिहास, समाज विज्ञान तथा
जीव विज्ञान विषयों में प्रयुक्त होता है। इसके लिये हिंदी में कई शब्द सुझाए गये हैं। नरभक्षण, नरभक्षिता
नरमांस-भक्षण और स्वजाति भक्षण । इनमें अंतिम शब्द अधिक व्यापक अर्थ रखता है और इसलिये इस एक शब्द
से ही सभी विषयों में काम चल सकता है।
 
स्पष्ट है शब्द-चयन करते समय संक्षिप्त तथा ऐसे शब्दों को प्रधानता देनी चाहिये, जिनसे व्युत्पन्न शब्द बनाने
में आसानी हो।
 
इस प्रकार संक्षेप में कहें तो शब्द-चयन करते समय अपेक्षाकृत सरल, संक्षिप्त, और व्यापक अर्थों वाले शब्दों
को ही प्रधानता देनी चाहिये, क्योंकि उनके प्रयोग में सुविधा होती है और उनके आधार पर संबंद्ध शब्द सरलता
से गढ़े जा सकते हैं।
 
शब्द-निर्माण :
 
जब प्रथम दोनों प्रणालियों से काम नहीं चलता तब हम शब्द-निर्माण का सहारा लेते हैं। पिछले तीन-चार
दशकों में ही हिंदी-शब्दों की संख्या हजारों में बढ़ी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। स्पष्ट है, इससे यह भी प्रमाणित होता
है कि हिंदी में शब्द निर्माण की आपार क्षमता है और आवश्यकता पड़ने पर किसी भी पदार्थ या संकल्पना के लिये
शब्द गढ़ा जा सकता है।
 
नये शब्द गढ़ते समय सबसे पहले यह समस्या सामने आती है कि किसी खास भाषा जैसे अंग्रेजी शब्द की
व्युत्पत्ति को शब्द-निर्माण का आधार माना जाए या उसके गुणार्थ को । वैज्ञानिक शब्दों के बारे में तो विद्वानों का यह
निश्चित मत है कि व्युत्पत्ति को अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिये क्योंकि अधिकतर वह प्रचलित अर्थ समझने
में सहायक न होकर भ्रामक ही होती है। बहुत से मानविकी विषयक शब्दों पर भी यही बात लागू होती है।
 
इसके विपरीत जहाँ व्युत्पत्ति तथा तथ्यार्थ दोनों में पूर्ण सामंजस्य हो वहाँ व्युत्पत्ति के आधार पर शब्द बनाया
जा सकता है। राजनीति का ‘डिमोक्रेसी’, शब्द ले लीजिये । यह ग्रीक ‘डेमो’ (Demo) से उद्भूत हुआ है जिसका
अर्थ है जनता या प्रजा। यह एक प्रकार के शासन का बोधक है जिसमें सामान्य जनता का प्रभुत्व होता है। लोगों
को ही पूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं और जनसाधारण द्वारा चुने गये प्रतिनिधि सरकार बनाकर शासन चलाते हैं। इसके
लिये हिंदी में कई शब्द सुझाए गए हैं, जिनमें ‘प्रजातंत्र’ तथा ‘लोकतंत्र’ सबसे अधिक लोकप्रिय हो गये हैं। ये पर्याय
व्युत्पत्ति तथा तात्पर्य-दोनों ही दृष्टियों से सार्थक हैं। इसी तरह हिंदी में आर्केलॉजी शब्द भी पूर्णरूप से सार्थक हैं।
यह दो ग्रीक शब्दों arche और logia के योग से बना है। अर्थ है क्रमशः पुराना और विद्या । हिन्दी में इसके लिये
पुरातत्व शब्द प्रचलित है, जो नितांत सार्थक है परंतु कुछ लोग पुरातत्व-विज्ञान कहकर पुनरुक्ति दोष के शिकार बनते
हैं। भाषातात्त्विक दृष्टि से यह सही नहीं है क्योंकि यहाँ एक ही भाव दो बार प्रकट किया जा रहा है। संस्कृत में
‘तत्त्व’ और ‘विज्ञान’ लगभग समान भावों का बोध कराते हैं। ऐसे ही विंध्याचल पर्वत, ‘प्रतापगढ़ का किला आदि
कहना पुनरुक्ति के उदाहरण हैं । स्पष्ट है ‘आर्केलॉजी’ का पर्याय ‘पुरातत्व विज्ञान’ हो सकता है परंतु जब ‘पुरातत्व’
जैसा सार्थक शब्द पहले ही से मौजूद है और काफी प्रचलित भी है तो यह नया शब्द क्यों चलाया जाय ?
 
उपर्युक्त विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि नए शब्द गढ़ते समय कहीं तो मूल शब्द की व्युत्पत्ति
को आधार मानना होगा और कहीं उसके तथ्यार्थ को। कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता । यही बात उपसर्ग
तथा प्रत्यय पर भी लागू होती है। संक्षिप्त तथा सरल पर्याय शीघ्र ही स्वीकृत हो जाते हैं क्योंकि उनको उच्चारण
करने और लिखने में काफी सुविधा होती है।
 
शब्दों को संक्षिप्त करने की पद्धति कोई नयी नहीं है। पाणिनि काल में भी पूर्वपद या उत्तरपद को हटाकर शब्दों
को छोटा करने की प्रथा प्रचलित थी, जैसे देवदत्त से ‘देवक’ या ‘दत्तक’ शब्द बनाए जाते थे। आजकल भी ऐसे
उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। फिल्म के लिये हिंदी में चलचित्र शब्द प्रचलित है परंतु डाक्यूमेंट्री या चिल्ड्रेन
फिल्म के लिये क्रमशः वृत्त-चित्र और ‘बाल-फिल्में’ चलने लगे हैं। सरलीकरण के क्रम में अंग्रेजी शब्द ‘रिसर्चर’
शब्द के लिये ‘अनुसंधान कर्ता के, स्थान पर ‘अनुसंधाता’ अधिक सरल तथा संक्षिप्त है। निर्माण-कर्ता की जगह
निर्माता कहना अधिक सुन्दर है।
 
निसर्गतः यह कहना सार्थक है कि भाषा में परिवर्तन होना एक सामान्य नियम है परंतु इसकी दिशा पर कुछ
नियंत्रण आवश्यक होता है। शिक्षकों- लेखकों तथा कोशकारों का काम है कि यह नियंत्रण बनाए रखें। यह उनका
दायित्व है कि नवीन शब्दों तथा अभिव्यक्तियों को समुचित मूल्यांकन करने के बाद ही प्रयोग में लाएँ जिसमें अंतत:
उपयुक्ततम शब्द ही जीवित रह सकें।

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