शिक्षा की बदहाली:पीढ़ी का विनाश

शिक्षा की बदहाली:पीढ़ी का विनाश

                   शिक्षा की बदहाली:पीढ़ी का विनाश

“इंसानियत और पशुता के बीच का अन्तर है शिक्षा…शांति, सकून और
खुशियों का खज़ाना है शिक्षा.”
         सभ्यता व सांस्कृतिक समाजीकरण व अभ्युदय के परिप्रेक्ष्य में समाज की शिक्षा
पद्धति एक महत्वपूर्ण प्रबल आयाम’ व ‘मील का पत्थर’ होती है, जो समाज के
संरचनात्मक व प्रक्रियात्मक ढाँचे का प्रतिरूप होती है. शिक्षा शब्द संस्कृत की शिक्ष’ धातु
से बना है, जिसका अर्थ है सीखना तथा प्रेरक के रूप में अर्थ सिखाना है. इस अर्थ
में एक व्यक्ति सीखने वाला तथा दूसरा व्यक्ति सिखाने वाला होता है. आंग्ल भाषा
में शिक्षा के लिए Education शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसकी उत्पत्ति
लैटिन भाषा के तीन शब्दों-‘एजूकेटम’, ‘एजूकेयर’ तथा ‘एजूसीयर से मानी जाती
है. ‘एजूकेटम’ शब्द दो शब्दों ई + ड्यूको से मिलकर बना है. जिसमें ‘ई’ का अर्थ है
अन्दर से तथा ‘ड्यूको’ का अर्थ है बाहर से निकालना अर्थात् व्यक्ति की आन्तरिक
शक्तियों को उजागर करना है. ‘एजूकेयर’ शब्द का अर्थ है पालन-पोषण करना,
संवर्धन व परिष्करण करना. ‘एजूसीयर’ का अर्थ है प्रेरणा पथ-प्रदर्शन अर्थात् शिक्षा
व्यक्ति के जन्मजात गुणों को विकसित करती है.
       अतः शिक्षा का शाब्दिक अर्थ है  “बालक की अन्तर्निहित शक्तियों का पूर्ण
विकास” अनुदेशन, मार्गदर्शन या विद्यालयी-करण के रूप में शिक्षा का यह संकुचित
अर्थ है, जबकि यथार्थ या वास्तविक शिक्षा वह है, जो व्यक्ति को अपनी अन्तः शक्ति
को पहचानने का सामर्थ्य प्रदान करती है. शिक्षा कठोर प्रशिक्षण एवं अनुशासन द्वारा
हमारी प्रवीणता एवं प्रतिभा को न केवल प्रोत्साहित करती है, अपितु विकसित भी
करती है. वास्तविक शिक्षा केवल आडम्बरयुक्त विद्या मात्र नहीं, वरन् निष्पक्ष और
तर्कसंगत तरीके से चिन्तन करने के प्रशिक्षण की वह प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति के अन्दर
आत्मविश्वास तथा परिवेश को यथार्थ रूप से समझने की क्षमता का विकास होता है.
शिक्षार्थी अपने ज्ञान के संचित भण्डार में वृद्धि करता है व अर्जित ज्ञान का समाज के
लिए उपयोग भी करता है. वास्तविक शिक्षा चरित्र निर्माण करती है और समाज में
सृजनशील व्यक्ति के रूप में अपनी भूमिका का निर्वाह करने में हमारी सहायता करती
है. जोकि न केवल आत्मनिर्भर एवं आत्मविश्वासी नागरिक बनाती है वरन् कर्तव्य-
निष्ठता, श्रेष्ठ नागरिकीकरण के अभिकल्प व देशप्रेम व राष्ट्रहित के लिए प्रशिक्षित करते
हुए सभ्य नागरिक के रूप में अभिव्यक्ति प्रदान करती है.
          प्राचीनकाल से भारत में गुरु को ब्रह्मतुल्य माना जाता था.
 
                       गुरुः ब्रह्मा, गुरुः विष्णु, गुरुः देवो महेश्वरः ।
                       गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
      वैदिक समय में आश्रम व्यवस्था’ थी जिसमें बालक गुरु के सानिध्य में शिक्षा
ग्रहण करता था तथा यह मान्यता थी कि-“गुरु बिना ज्ञान नहीं.” जोकि बालक
का चहुँमुखी विकास कर उसे वास्तविक ज्ञान तक ले जाने का मार्ग प्रशस्त करती
थी. प्राचीनकाल से भारत में गुरु-शिष्य परम्परा के सन्दर्भ में गुरु वशिष्ठ, ऋषि
संदीपन, याज्ञवल्क्य, वेदव्यास, जैसे गुरु आदर्श माने जाते हैं.
       ऋग्वेद में कहा गया है कि शिक्षा वह है, जो व्यक्ति को निःस्वार्थी तथा आत्म-
निर्भर बनाए व गुरु नानक इसे विद्या विचारी ते परोपकारी के रूप में परिभाषित
करते हैं. शिक्षा मात्र पुस्तकीय ज्ञान ही प्रदान करने वाली न हो, अपितु जैसाकि
महात्मा गांधी ने कहा है-“शिक्षा बालक और मनुष्य के शरीर मन तथा आत्मा का
सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास करे.” प्लेटो के अनुसार शिक्षा वह है जो व्यक्ति के
शरीर और आत्मा को जाग्रत करते हुए उसे पूर्णता की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करे
तथा ज्ञान के आन्तरिक चक्षुओं को खोले.
               कबीरदास जी ने कहा है कि गुरु कुम्हार है, जो कच्ची मिट्टी रूपी शिष्यों को
कुम्भ के रूप में संस्काररूपी आकार प्रदान करता है अर्थात्
             गुरु कुम्हार शिषु कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट ।
                    अंदर हाथ सहार है, बाहर वाहे घोट ।।
    शिक्षा साक्षरता मात्र कदापि नहीं है, अपितु “सा विद्या या विमुक्तए” की विचार-
धारा पर आधारित हो, तो अकर्मण्यकता के बन्धनों से मुक्त करे व आत्मिक ज्ञान प्रदान
करे. गांधीजी ने शिक्षा के पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में विस्तार से विचार व्यक्त किए है
कि हमारी सम्पूर्ण शिक्षा वेद पाठ, संस्कृत, ग्रीक एवं लैटिन भाषाओं का शुद्ध ज्ञान
आदि सब वृथा है, यदि इनके द्वारा हृदय की पवित्रता में वृद्धि नहीं हुई है. इस रूप में
आधारभूत पाँच प्रकार के क्रियाकलापों को पाठ्यक्रम में समाविष्ट किया जा सकता है―
स्वस्थ तथा स्वच्छ जीवन के क्रियाकलाप, स्वावलम्बन सम्बन्धी क्रियाकलाप, बुनियादी
दस्तकारी सम्बन्धी क्रियाकलाप, नागरिक जीवन की क्रियाएं व मनोरंजनात्मक एवं
सांस्कृतिक क्रियाएं श्री अरविन्द का शिक्षा दर्शन योग ब्रह्मचर्य एवं साधना पर आधारित
है, जोकि आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विद्यार्थियों में तनाव, अवसाद में आदि का प्रबन्धन कर
उन्हें ‘जीवन जीने का मन्त्र सिखाया, जैसाकि दृष्टान्त है कि कोटा में कोचिंग कर
रहे और छात्र-छात्राएं प्रतिवर्ष अत्यधिक तनावग्रस्त हो आत्महत्या जैसा कदम उठा
लेते हैं, जोकि सम्पूर्ण समाज की शिक्षा व्यवस्था में प्रश्नचिह्न लगाते हैं तथा निरन्तर
आत्महत्या के कुत्सित कदम आज की शिक्षा व्यवस्था के लिए विकराल चुनौती बन
चुका है.
        इसी सन्दर्भ में महर्षि अरविन्द का शिक्षा दर्शन कुछ मूलभूत सिद्धान्तों, मानसिक
शक्तियों को प्रशिक्षण, ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण, शारीरिक एवं स्नायु शुद्धि मातृभाषा
का विकास, योग व ध्यान पर बल अन्तर्निहित ज्ञान का विकास, अनुशासन पर बल
क्रमिक ज्ञान पर बल के रूप में देख सकते हैं. शिक्षा सूचनाओं का एकत्रीकरण मात्र
नहीं है.
       शिक्षा के सान्दर्भिक विकास के विभिन्न आयामों को दृष्टिगत रखते हुए ब्रिटिशकाल
व उत्तर ब्रिटिशकाल में बनी समितियों के आलोक में 1813 में चार्टर एक्ट में शैक्षिक
नियमों के अन्तर्गत अंग्रेजों ने भारत में प्राच्य शिक्षावादी नीति लाने का प्रयास किया.
सरकार के विधि सदस्य ‘लॉर्ड मैकाले’ ने प्राच्यवादी देशी शिक्षा के बजाय पाश्चात्य
वादी अंग्रेजी शिक्षा का अपने प्रसिद्ध दस्तावेज में पुरजोर समर्थन किया. मैकाले
के अनुसार शिक्षा का आवश्यक उद्देश्य एक ऐसे वर्ग को तैयार करना था, जिसे
औपनिवेशक सरकार में निचले दर्जे की नौकरियों पर रखा जा सके, जिससे यहाँ के
लोगों पर शासन करने में आसानी हो. लॉर्ड मैकाले की सलाह पर तत्कालीन गवर्नर
जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंग ने 1837 में अंग्रेजी को सरकारी भाषा का दर्जा दिया
व सरकारी नौकरियों के लिए अंग्रेजी भाषा अनिवार्य हो गई.
लॉर्ड मैकाले ने भारतीय वेदों, उपनिषदों आदि की गरिमा का उपहास उड़ाते हुए
कहा कि-” सम्पूर्ण भारतीय साहित्य यूरोप की एक लाइब्रेरी के एक शैल्फ में रखी पुस्तकों
के बराबर भी नहीं है लेकिन इसके विरोध में हमारे जुन नेताओं ने स्थानीय
शिक्षा को ही बढ़ावा देने का प्रयास किया.
        अंग्रेजों ने भारत में व्यवसाय की बजाय शासन की नीति अपनाई तो शासन पर
मजबूत पकड़ बनाने हेतु यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में सुधार के प्रयास शुरू किए कई
शिक्षा समितियाँ गठित की गई 1854 में ‘वुड्स डिस्पैच’ द्वारा माध्यमिक स्तर पर
व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में सुधार करने पर बल दिया
गया, जिससे आगामी पीढ़ियों के बच्चे व्यावसायिक जीवन के लिए तैयार हो सकें.
         1882 में हण्टर शिक्षा कमीशन की स्थापना लॉर्ड रिपन द्वारा की गई, जिसकी
संस्तुति के अनुसार व्यावसायिक व व्यापारिक शिक्षा एवं महिला शिक्षा पर जोर दिया.
        1929 में हाटौंग कमेटी ने ड्रॉप आउट रोकने लिए सुझाव दिए व औद्योगिक और
वाणिज्यिक विषयों पर जोर दिया, जिससे तकनीकी वाणिज्य और कृषि हाईस्कूल
स्थापित किए गए.
        1944 की सार्जेण्ट योजना में अनुशंसा की गई कि प्रारम्भिक स्तर पर कला व मूल
विज्ञान विषयों की शिक्षा दी जाए, जबकि तत्पश्चात् तकनीकी शिक्षा के अन्तर्गत विज्ञान
के साथ-साथ औद्योगिक और वाणिज्यिक विषय पढाए जाएं बालिका शिक्षा के क्षेत्र में
एक वैकल्पिक विषय ‘गृह विज्ञान’ जोड़ा जाए व ग्रामीण पाठ्यचर्या में कृषि पर बल
दिया जाए.
          स्वतन्त्रता के पश्चात् उच्च शिक्षा सुधार के सन्दर्भ में गठित विश्वविद्यालय शिक्षा
आयोग (राधाकृष्णन आयोग 1948-49) में शारीरिक प्रशिक्षण व अन्य सामूहिक क्रियाओं
पर बल दिया. आयोग ने इस बात पर विशेष जोर दिया कि माध्यमिक स्तर पर ही
सामान्य शिक्षा के अलावा, भौतिक वातावरण से पूर्ण परिचय के अतिरिक्त, भौतिक तथा
शारीरिक विज्ञान के मूल सिद्धान्त की जानकारी दी जाए और संचार साधन के
रूप में भाषा को स्पष्ट और प्रभावी रूप से प्रयोग किया जाए
            डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में सन् 1952 में माध्यमिक शिक्षा
योग की स्थापना की गई जिसमें पाठ्य चर्चा में विविधता लाने, एक मध्यवर्ती स्तर
जोड़ने, त्रिस्तरीय स्नातक पाठ्यक्रम शुरू करने की सिफारिश की व वस्तुनिष्ठ परीक्षण 
पद्धति व गणित, सामान्य ज्ञान, कला संगीत आदि में एक विशिष्ट विषय अनिवार्य रहे. 
        प्रो. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने नारी शिक्षा
व शिक्षा में होने वाली वित्तीय समस्याओं पर विचार व शिक्षा के प्रति जागरूकता पर बल
दिया.
        1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में देश के सभी भागों में शिक्षा का समान ढाँचा
अपनाने व शिक्षा में निवेश को बढ़ाने पर बल दिया, जिससे कि कमजोर वर्ग के
छात्रों को पढ़ाई के लिए प्रेरित करने के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं बढ़ाई जाएं.
       1980 का दशक भारत में राजनीतिक रूप से उथल-पुथल का दौर तो रहा ही,
सामाजिक आर्थिक वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में भी देश की नई चुनौतियों का सामना
करना पड़ा, जिससे शिक्षा के पुनरीक्षण तथा पुनर्निर्धारण की आवश्यकता महसूस की
जाने लगी व इस सन्दर्भ में शिक्षा की चुनौती- नीतिगत परिप्रेक्ष्य नाम से एक
वस्तुस्थिति प्रपत्र भारत सरकार द्वारा बनाया गया, जो 1986 में ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के
रूप में परिणत हुआ, जिसकी प्रमुख अनुशंसा थी कि समसामयिक आवश्यकताओं के
अनुरूप बच्चों में आवश्यक कौशलों तथा योग्यताओं का विकास हो, एक गतिहीन
समाज को ऐसा स्पन्दनशील समाज बनाना, जो प्रतिबद्ध हो, विकासशील हो तथा
परिवर्तनशील हो और सारे देश में शिक्षा का समान ढाँचा लागू हो व राष्ट्रीय शिक्षा
व्यवस्था में एक जैसे समान पाठ्यक्रम पर बल दिया जाए.
          प्रो. कुलदैस्वामी की अध्यक्षता में 1985 में शिक्षा कार्यदल का गठन हुआ, जिसका
उद्देश्य व्यावसायिक तकनीकी, इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिक पाठ्यक्रम के लिए सिफारिश
प्रस्तुत की. 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति तथा 1992 की मार्च योजना में 21वीं शताब्दी
के प्रारम्भ होने से पहले ही देश में चौदह वर्ष तक के सभी बच्चों को संतोषजनक
गुणवत्ता के साथ निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करने की वचनबद्धता व सकल
घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत शिक्षा के क्षेत्र के लिए खर्च किया जाएगा. इस धनराशि
का 50% प्राथमिक शिक्षा पर व्यय किया जाएगा. आठवीं पंचवर्षीय योजना में सबके
लिए प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य के बारे में प्रमुख रूप से तीन प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य
के बारे में प्रमुख रूप से तीन मानदण्ड निर्धारित किए गए हैं-सार्वभौम पहुँच, सार्व-
भौम धारणा व सार्वभौम उपलब्धि सर्व शिक्षा अभियान ने स्कूली शिक्षा को गति प्रदान
की है.
        1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में समिति का गठन हुआ, जिसमें सामाजिक,
आर्थिक क्षेत्रीय और लिंगभेद के कारण पैदा विषमताओं को व्यापक संदर्भ में देखने
पर बल दिया जिससे समानता तथा सामाजिक न्याय की सम्प्राप्ति हो सके, शिक्षा
में मॉड्यूल व सेमेस्टर पद्धति को अपनाने व कौशल विकास पर अधिकाधिक बल दिया
गया.
     1992 में यशपाल समिति ने शिक्षा प्रणाली में सुधार के अन्तर्गत प्राथमिक
शिक्षा को सुरुचिपूर्ण, गुणवत्तापूर्ण व छात्रों की समझ में वृद्धि पाठ्यक्रम को व्यवस्थित
करने पर बल दिया व शिक्षा को तकनीकी से जोड़ने पर बल दिया.
      1992 में श्री जनार्दन रेड्डी की अध्यक्षता में संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में
‘ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड’ व ‘स्कूल कॉम्पलेक्स’ जैसी योजनाओं को जारी रखा व शिक्षा केवल
शिक्षा या अक्षर ज्ञान मात्र के लिए नहीं वरन् चारित्रिक उन्नयन पर आधारित हो.
       भारत में अन्य देशों की तुलना में शिक्षित लोगों का प्रतिशत काफी कम है.
इंगलैण्ड, रूस तथा जापान में लगभग शत-प्रतिशत जनसंख्या साक्षर है यूरोप एवं
अमरीका में साक्षरता का प्रतिशत 90 से 100 के बीच है, जबकि भारत में 2011 की
जनगणना के अनुसार साक्षरता का प्रतिशत 74.04 है. जनगणना में उस व्यक्ति को
साक्षर माना गया है, जो किसी भाषा को पढ़-लिख अथवा समझ सकता है साक्षर
होने के लिए यह जरूरी नहीं है कि व्यक्ति ने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त की हो या
कोई परीक्षा पास की हो. सन् 1976 में भारतीय संविधान में किए गए संशोधन के
बाद शिक्षा केन्द्र और राज्यों की जिम्मेदारी बन गई है. शिक्षा प्रणाली और उसके ढाँचे
के बारे में फैसले आमतौर पर राज्य ही करते हैं, लेकिन शिक्षा के स्वरूप और
गुणवत्ता का दायित्व स्पष्ट रूप से केन्द्र सरकार का ही है.
         उच्च शिक्षा की दृष्टि से वर्तमान में देश के 185 विश्वविद्यालय और 5 संस्थान
हैं, जो उच्च शिक्षा उपलब्ध करा रहे हैं. देश में कॉलेजों की संख्या 11,100 है. देश
से सभी विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या 74.18 लाख है, जबकि अध्यापकों
की संख्या 3.42 लाख है,
      सूचनाएं ज्ञान की नींव नहीं हो सकतीं. आज सूचना प्रौद्योगिकी का एक विलक्षी
संजाल तन्त्र स्थापित हो चुका है व्हाट्सअप ट्विटर, फेसबुक, गूगल, विकीपीडिया आदि.
सोशियल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से सूचनाओं का अपवाह तन्त्र तो व्यापक हो
गया है, किन्तु सूचनाओं की सटीकता व सत्यता सत्यापित नहीं है तथा कोरी सूचनाएं
कभी बौद्धिक व आत्मिक विकास में सहायक नहीं हो सकती, जब तक कि उनका
सकारात्मक व समाजोपयोगी विश्लेषण नहीं हो.
उच्च वैज्ञानिक सुविधाओं की सुलभता तथा उसकी गुणवत्ता में सुधार के प्रयास 
किए जाने चाहिए, यह सुनिश्चित किया जाए कि उच्च शिक्षा संस्थान उत्कृष्टता के केन्द्र
बन सकें. इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अन्य संगठनों सहित राष्ट्रीय मूल्यांकन और
प्रत्यायन प्रेक्षण को समुचित रूप से प्रभावी बनाया जाए और अधिक संख्या में स्वायत्त
कॉलेज स्थापित किए जाने के लिए और अधिक बढ़ावा दिया जाए, जिससे कि उच्च
शिक्षा की पाठ्यचर्चा में अधिक नवाचार तथा नमनशीलता लाई जा सके.
          सरकार द्वारा शिक्षा क्षेत्र में मिश्रित योजनागत तथा योजनोत्तर आवंटनों दोनों
रूपों में वित्तीय सहायता में उल्लेखनीय वृद्धि की जानी चाहिए व आर्थिक दृष्टि से और
अधिक व्यावहारिक बनाने के उद्देश्य से विश्वविद्यालयों की शुल्क संरचनाओं को
संशोधित करने के प्रयास किए जा रहे हैं.
           भारतीय शिक्षा पद्धति में गुरु को पीढ़ी निर्माता माना जाता रहा है. गुरु-शिष्य
परम्परा को आधार एवं सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों
में फेसबुक, वाट्सअप संस्कृति में क्या आज भी गुरु-शिष्य परम्परा की गरिमा कायम है,
यह सोचने का विषय है. मीडिया में आने वाली खबरों ने इस विषय पर जरूर सोचने
को विवश किया है कि प्रेक्टिकल में नम्बर देने के नाम पर पी-एच.डी. पूरी करवाने के
नाम पर, परीक्षा में पास करने के नाम पर, बिल पास करने के नाम पर शिक्षकों द्वारा
छात्राओं की अस्मत् माँगी जाती है. ऐसे शिक्षकों ने गुरु की गरिमा को कलंकित कर
दिया है. आज स्कूलों में छात्राओं के साथ शिक्षकों द्वारा की जाने वाली अनैतिक
घटनाओं ने माता-पिता को आशंकित कर दिया है. स्कूलों का वातावरण भी बालिकाओं
के लिए सुरक्षित नहीं है. पेपर लीक प्रकरण ने पूरी शिक्षा प्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगा
दिया है.
        वहीं महाविद्यालयों में चुनाव व्यवस्था ने छात्र-छात्राओं में अनुशासनहीनता पैदा कर
दी है. चुनाव जीतन के लिए शक्ति प्रदर्शन, अनैतिक साधनों का प्रयोग, आपसी रंजिश,
तोड़फोड आदि चीजों ने छात्रों को शिक्षा के मार्ग से भटका दिया है. यहाँ तक कि छात्र
अनुशासन भूलकर शिक्षकों को भी धमकाते नजर आते हैं. शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् भी
बेरोजगारी देश की युवा पीढ़ी को अपराध व असामाजिक प्रवृत्तियों में जकड़ लेती है.
        आज की शिक्षा के पतन व गिरते स्तर का मुख्य कारण शिक्षकों की गुणात्मकता में
निरन्तर आ रही कमी भी है. जब शिक्षक ही गुणात्मक दृष्टि से अयोग्य होंगे, तो उसका
परिणाम निश्चित रूप से शैक्षणिक स्तर पर देखा जा सकता है अतः शिक्षा के स्तर में
सुधार लाने की नितान्त आवश्यकता है. इसके लिए शिक्षक चयन प्रक्रिया में संशोधन
की आवश्यकता है व शिक्षकों के निरन्तर प्रशिक्षण व कार्यशालाओं का आयोजन हो.
जिससे आधुनिक सन्दर्भों में शिक्षा को अधिक गतिमान बनाया जा सके, क्योंकि
उपनिषदों में कहा भी गया है कि शिक्षकों के विकास में ही शिक्षार्थियों का विकास
सम्भव है―
            “ऊँ सहनावतु सहनाभुनुस्तु सहविर्यम करवावहे ।
                      तेजस्वी नावधिमस्तु मां विदिशा महे ॥
        प्रासंगिक अर्थ में व्याख्या कर सकते हैं कि जैसे एक दीपक जब दूसरे दीपक को
प्रज्ज्वलित करता है वैसे ही शिक्षक शिक्षार्थी को ज्ञान के आलोक से प्रकाशित करता है.
उसी प्रकार तिमिर को समाप्त कर शिक्षक व्यवहार में सम्प्रेषित करे.
       अतः शिक्षा केवल डिग्री प्राप्ति तक ही सीमित न रहे व व्यावसायिक प्रशिक्षण व
कौशल आधारित हो, शिक्षा बन्द कमरों में कोरे ज्ञान पर आधारित ही न हो वरन् बाह्य
सामाजिक परिप्रेक्ष्य व व्यावहारिक ज्ञान आदि पर आधारित हो कुकुरमुत्तों की तरह
पनप रही निजी शिक्षण संस्थाएं मात्र शिक्षा के नाम पर व्यावसायिक ही हैं, जबकि शिक्षा
का उद्देश्य सर्वव्यापीकरण व सार्वभौमीकरण व शिक्षा की पहुँच गरीब तक निर्धारित की
जाए. जिससे शिक्षा भविष्योन्मुखी, उद्देश्य-परक व गतिमान हो सके शिक्षा ऐसी हो
जो सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय और सर्वोदय का संदेश दे. शिक्षा का उद्देश्य है-
                              सर्व धर्म समावृति ।
                              सर्व जाति समावृति।
                              सर्व सेवा परिणति॥

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