शुक्राचार्य के चरित्र में एक गुरूत्व की गरिमा

शुक्राचार्य के चरित्र में एक गुरूत्व की गरिमा

                        शुक्राचार्य के चरित्र में एक गुरूत्व की गरिमा

भारतीय पुरा-कथाओं में शुक्राचार्य एक ऐसे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व
के रूप में दिखाई पड़ते हैं जिनसे बढ़कर तो क्या, समान स्तर का भी कोई अन्य नक्षत्र
दृष्टिगोचर नहीं होता। वे एक साथ ही कवि और काव्य दोनों हैं”-शुक्राचार्य के विषय में
स्वयं कवि की यह उक्ति दैत्य गुरू के व्यक्तित्व को महान बना देती है।
             कवि ने शुक्राचार्य को महातेजस्वी, पराक्रमी, विद्या के अभिमानी, देवपूजक,
भक्त-वत्सल, शिष्य-पारखी, देव दर्प-नाशक, सूक्ष्म-द्रष्टा, उदार और सबसे ऊपर
पुत्री-स्नेही (वात्सल्यमय) के रूप में उपस्थित किया है।
        शुक्राचार्य का जीवन त्याग और तपस्या का एक प्रकाश-स्तम्भ है। दानव नगरी के
ऐश्वर्य से दूर तमसा नदी के तट पर प्रकृति की गोद में उनका आश्रम है, जहाँ समत्व का
अधिवास है, अहिंसा का साम्राज्य। उनका जीवन सादा है, उनका विचार ऊँचा। प्रकृति के
इस एकान्त में शुक्राचार्य देवपूजन में लीन रहते हैं। ‘देवपूजन शेष कर आचार्य श्री तुमको
मिलेंगे’—इसी तथ्य का उद्घाटन करता है।
        कच दण्डवत प्रणाम कर अपना परिचय देता है। उसकी भक्ति को देखकर शुक्राचार्य
मुग्ध हो उठते हैं, द्रवित हो जाते हैं और उसे अपने अंग से लगा लेते हैं। वृहस्पति पुत्र को
देखकर उनके हृदय के किसी कोने से पुत्र-प्रेम उमड़ पड़ता है। कच और शुक्राचार्य का यह
मिलन विवेक से ज्ञान का, मणि से कांचन का मिलन है। इस स्थल पर भक्त वत्सल गुरु का
दर्शन होता है। शुक्राचार्य कच को अपने हृदय में जब स्वीकार कर लेते हैं, फिर उसके लिए
उनका आश्रम क्यों न अधिवास बनेगा?
         शुक्राचार्य शिष्य-पारखी है। कच को देखकर उन्हें लगता है, जैसे युग-युग से जिस
शिष्य की आशा में वे थे, अब आ पहुँचा है। योग्य शिष्य की प्राप्ति पर उनका उदगार
है- “तुम्हें देखकर मेरे मन में युग युग की आशा जागी”। शत्रु पक्ष का होने पर भी कच
की सरल प्रकृति के कारण उसे विद्यादान करने को तैयार हो जाते हैं।
             चौथे, पाँचवे और छठे सर्ग में शुक्राचार्य अपनी सिद्ध तपस्या का चमत्कार प्रस्तुत
करते हुये दिखाये गये हैं। कच को तीनों सर्गों में उन्होंने पुनः जीवन प्रदान करने की साधना
की है। उन्हें संजीविनी का ज्ञान था। उसी का आध्यात्मिक चमत्कार और सफल प्रयोग उन्होंने
दिखलाया है। मंत्र पढ़कर कुश को पवित्र जल से अभिषिक्त करके अलक्ष्य की ओर फेंक
देना और फिर नाम लेकर आह्वान करना उनकी साधना की प्रक्रिया है जिसमें शक्ति है, तेज
है, नाटकीय क्षमता और आध्यात्मिक चमत्कार है। सिद्धि के सफल प्रयोग के बीच ही उनके
चरित्र के अन्य अवयव भी सामने आ जाते हैं। वे सिद्धि के देव-पुरुष ही नहीं, संजीविनी के
पारंगत विज्ञान-वेत्ता ही नहीं, एक करूण हृदय वाले, कोमल कवि भी हैं। अपनी मातृ-हीना
पुत्री के एकमात्र आधार वे ही थे। अपने स्नेह और अपनी देख-रेख में उन्होंने उसे
पाल-पोसकर बड़ा किया था। उनमें अतः ममता की मिठास है, वात्सल्य का स्नेह है, करुणा
और कोमलता है। देवयानी कच से कहती है―
                 “हैं पिता ही बन्धु मेरे और गुरु, जननी वही है।
                   विश्व-पारावार में अवलम्ब सन्तरणी वही है।”
        पुत्री के प्रति अगाध स्नेह उनके हृदय में है। कवि ने इस संबंध में गुरुवर शुक्राचार्य
के चरित्र का उल्लेख करते हुए कहा है-
                      “थी पिता के प्राण की प्यारी, दुलारी देवयानी ।
                       और सर्वोपरि उसी की बात जाती थी प्रमानी।
                      टाल सकते थे न कविवर देवयानी के कथन को।
                    देख सकते थे न उसके अत्रु से विगलित बदन को।
 
         कवि शुक्राचार्य, नीतिज्ञ, दार्शनिक और ज्ञानी पुरुष भी हैं। कच को उन्होंने विद्यार्थी
के सात लक्ष्ण बतलाए । विद्या अथवा नूतन ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने श्रद्धा को बीज
रूप में महत्वपूर्ण माना है। श्रद्धा से विद्या की प्राप्ति होती है। विद्या सच्चरित्रता की जननी
है। राष्ट्र की आत्मा और शक्ति सच्चरित्र निवासियों में ही वास करती है। चरित्र का पवित्र
साधक ही जीवन यात्रा में अन्तिम विजय प्राप्त करता है। तत्परता, इन्द्रिय संयम और
ब्रह्मचर्य व्रत का दृढ़ संकल्प- इन्हीं के द्वारा श्रद्धा की महिमा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार
देवयानी को कच के वियोग में आँसू बहाने से रोकते हुए वे कहते हैं―
                “कौन सा दुर्भाग्य बदला है किसी का कब रुदन से
              मिल गई है शान्ति किसको आत्मघाती हिम-किरण से।”
 
             पर सबसे सुन्दर है उनका संजीविनी विद्या का व्यावहारिक विश्लेषण। इन्होंने वहाँ
दैत्यों और देवताओं की साधना का अन्तर स्पष्ट किया है और संजीविनी को अमृत से अधिक
महत्वपूर्ण सिद्ध किया है। प्रथम है जीवन के लिए संघर्ष और पौरुष की साधना, दूसरा है
निष्क्रिय, निश्चिन्त जीवन का आलस्य । देवों के लिए जीवन का मूल्य समझ पाना एकदम
असंभव है, क्योंकि उन्हें मृत्यु का स्वाद नहीं चखना पड़ता। उपलब्धि की चोटी पर मात्र
जीवन शेष रहता है-आशा आकांक्षा से रहित, पौरुष उत्साह से हीन। पर संजीविनी जीवन
के स्पन्दन के लिए पुरुष बवण्डर की साधना है। इस प्रकार उन्होंने संजीविनी विद्या को
अध्यात्म के कुहासे से निकाल कर व्यवहार की धरती पर प्रतिष्ठित कर दिया है। यह उनके
चरित्र को सनातन बना देता है। साथ ही उनके विचारों को युग-निरपेक्ष सिद्ध कर देता है। वे
सभी युगों के आदर्श और सन्देश बन जाते हैं।

Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *