शैली-विज्ञान
शैली-विज्ञान
शैली-विज्ञान
अन्य कई नवीन शाखाओं की तरह ही शैली-विज्ञान भी भाषा-विज्ञान की एक शाखा के रूप में समादृत हो
चुकी है; यों यह शाखा भी अब बहुत नयी नहीं है। काफी पूर्व जेनेवा स्कूल के कुछ भाषा वैज्ञानिकों तथा कुछ
फ्रांसीसी विद्वानों का ध्यान इस ओर गया था। भाषा वैज्ञानिक सस्यूर के ख्यात शिष्य चार्ल्स बेली का नाम इस संदर्भ
में काफी जाना जाता है। भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स बेली ‘रैशनल स्टाइलिस्टिक्स’ (rational stylistics) के
जन्मदाता कहे जाते हैं।
बफॉ का एक कथन शैली के संदर्भ में एक सूत्र वाक्य जैसा चल पड़ा है-“Style is the Man” वस्तुतः
हर व्यक्ति की शैली उसके व्यक्तित्व के अनुरूप होती है। परंतु प्रश्न है यह शैली है क्या ? निश्चय ही भाषा के
प्रसंग में शैली का सीधा संबंद्ध अभिव्यक्ति से है। हर भाषा में ध्वनि, शब्द-समूह, रूप-रचना, तथा वाक्य-संरचना
आदि की दृष्टि से अभिव्यक्ति का एक प्रायः सर्वस्वीकृत, मानक या परिनिष्ठत रूप होता है, जिसे उस भाषा में
अभिव्यक्ति का एक सामान्य ढंग कह सकते हैं। जो लेखन या बोलने में भी इसी सामान्य रूप का प्रयोग करते हैं,
उनकी अपनी कोई शैली नहीं होती। शैली होती है उनकी जो इस सामान्य रूप से ध्वनि, शब्द-समूह, रूप-रचना
तथा वाक्य-संरचना आदि की दृष्टि से हटकर प्रयोग करते हैं । अस्तु शैली विशेष के लिये यह आवश्यक है कि चुन
कर भाषिक इकाइयों का ऐसा प्रयोग हो जो सामान्य की तुलना में विशेष या अलग हो ।
भाषा की सामान्य अभिव्यक्ति पूरे भाषा-समाज की होती है, किंतु शैली व्यक्ति की वैयक्तिक होती है। इसका
मुख्य आधार होता है चयन, भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों शब्दों, रूपों वाक्यों आदि का चयन । व्यक्ति अपनी रुचि और
जरूरत के मुताबिक चयन करके अपनी बात व्यक्त करता है। यह चयन ही है जिसके आधार पर किसी कवि या
लेखक की पहचान बनती है। किसी विशेष छंद या अनुच्छेद को देखकर ही विशेष कवि या लेखक का ध्यान आ जाता है ।
स्पष्ट है इसी शैली का अध्ययन शैली-विज्ञान कहलाता है। किसी भाषा की आत्मा की पड़ताल का आधार
भी उसकी विभिन्न शैलियों का विवेचन-निरूपण होता है । इसलिये प्रत्येक विकसित भाषा की भी सामान्यतः अनेक
प्रचलित शैलियाँ होती हैं जिनका वर्गीकरण अनेक सिद्धांतों के आधार भी किया जाना चाहिये । पहली बात तो यह
है कि लिखित और उच्चारित स्थितियों में स्पष्ट भेद दृष्टिगत होता है । लिखित में बहुत कुछ अप्रचलित एवं विशेष
साहित्यिक शब्दावली का प्रयोग होता है जबकि उच्चरित या मौखिक ढंग में प्रचलित और प्रसामान्य शब्दों का सहज
ही प्रयोग किया जाता है।
दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व एकालाप या संलाप (कथोपथन-संवाद) के मूल भेद पर निर्भर है। संलाप में भाग लेने
बाले व्यक्ति के शील व वैचारिक आधार पर भी संलाप में ओज व तेज के साथ शब्दों का चयन तत्क्षणिक सहज
एवं आकस्मिक होता है। दूसरी ओर एकालाप में एक ही दृष्टिकोण का प्रतिपादन होता है। तभी एकालाप यदा-कदा
नीरस, एकरस, अरुचिकर होकर अल्पगतिशील और अल्पजीवंत हो जाता है । फलत: दोनों संभाषण प्रकार में स्पष्ट
अंतर पाया जाता है।
दैनिक बोलचाल में उक्तियाँ साधारणत: बिना तैयार की हुई और तत्क्षण वाली होती है। पूर्व विमर्षित,
सुविचारित और पहले से ही तैयार टिप्पणी सहित लेखन कर शाब्दिक सूत्रीकरण यथातथ्य, संयमित और संहत होता है।
भाषा-शैली पर वातावरण भी अपना प्रभाव डालता है इसलिये भाषा शैली विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल
बदलती है। शैली का प्रधान तत्व उद्देश्य भी होता है। भाषा का प्रयोग किसी निश्चित अभिप्राय से किया जाता है।
यही भाषा-शैली का प्रकार्य (मुख्य कार्य) है। प्रकार्य का भाषा-शैली से निकट का रिश्ता है। भाषा शैली के स्वरूप
संभाषण के प्रकार्यों के अनुसार बदलते रहते हैं।
अस्तु समाज और प्रकार्य इन दो सबसे प्रभावी तत्त्वों के आधार पर भाषा शैलियों का इस प्रकार
वर्गीकरण कर सकते हैं―
1. प्रसामान्य सूचना की शैली― इस सूचनात्मक शैली में सभी प्रकार के प्रचलित, अनौपचारिक संलापों,
बातचीत, वार्तालापों को सम्मिलित किया जा सकता है। इनमें व्यवहृत शब्द सुबोध और प्रसामान्य होते हैं।
वाक्य-संरचना अजटिल या कभी-कभी अनियंत्रित भी होती है।
2. विशिष्ट कार्यवाही (व्यावहारिक व्यवसाय) की शैली-इसका उपयोग प्रशासन में, कार्यालयों में,
व्यापार में, शिक्षा में करते हैं। व्यावहारिक शैली की उक्तियाँ और सूचनाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण और विशेषीकृत होती
हैं। यहाँ अभिव्यक्ति-प्रकार पर अधिक ध्यान दिया जाता है। अभिव्यंजना बहुधा नियंत्रित, मर्यादित, कृत्रिम और
औपचारिक होती है।
3. वैज्ञानिक शैली-विभिन्न प्रकार की अन्वेषणात्मक व आविष्कारात्मक ज्ञान-विज्ञान में, विशेषज्ञों की भाषा
में यथा तथ्य और परिशुद्ध, कभी-कभी अतिसूक्ष्म अभिव्यक्ति मिलती है। वैज्ञानिक और विशेषीकृत अभिव्यंजना में
मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग होता है। वाक्य-रचना अधिक श्रमसाध्य और जटिल, प्रायः असामान्य
रूप से लंबी होती हैं। यह शैली अविशेषज्ञों के लिये प्रायः गूढ और दुर्बोध होती है, क्योंकि वे पारिभाषिक, प्राविधिक,
और विशेषीकृत शब्दावली से अपरिचित होते हैं और वैज्ञानिक विषय का सार समझने में असमर्थ होते हैं।
विज्ञान की शैली एक उपशैली होती है। समय-समय पर आकाशवणी या दूरदर्शन में ऐसे भाषणों या वार्ताओं
की शैली न शुद्ध वैज्ञानिक है, न शुद्ध व्यावहारिक व्यवसाय की ।
4. साहित्यिक शैली-विभिन्न लेखकों की रचना-शैलियों तथा विभिन्न साहित्यिक विधाओं की शैलियों को
नम्मलित करना अत्यावश्यक है। साहित्य की शैली बहुशास्त्रीय, बहुविध, बहुरूप और विभेदीकृत होती है, क्योंकि
स्वयं साहित्य में अनेक स्वतंत्र विधाएँ मिलती हैं जिनके अंतर्गत कुशल लेखक अपने अभीष्ट कलात्मक उद्देश्य की
प्राप्ति के लिये भाषा के सभी संभव स्तर- भेदों का मुक्त भाव से प्रयोग कर सकता है।
5. पत्रकार शैली― यह शैली भी एक अर्थ में बहुशास्त्रीय और बहुविधिक है क्योंकि राजनैतिक वृत्तियों,
विभिन्न टीकाओं, समालोचनाओं, विज्ञापनों और संपादकीय लेखों (अग्रलेखों) में सुस्पष्ट अंतर प्रत्येक पाठक को
दृष्टिगोचर होता है। पत्रकार शैली का मुख्य ध्येय अधिक से अधिक समाचार संक्षिप्त और सूत्रात्मक रूप में प्रस्तुत
करना है। इसके अनुरूप शब्द-चयन काफी प्रभावकारी और असाधारण होता है। वाक्य-रचना में पर्याप्त वैशिष्ट्य
देखने को मिलता है।
प्रत्येक विकसित भाषा की इन शैलियों की अपनी-अपनी विशिष्टता होती है जो एक दूसरे से अपने विशिष्ट
लक्षणों के कारण अलग-अलग होती है। इस तरह शैली-विज्ञान का ध्वनि शैली-विज्ञान, शब्द शैली विज्ञान, रूप शैली
विज्ञान और वाक्य शैली-विज्ञान शाखाओं में विभाजन किया जा सकता है, जिनमें क्रमश: शैली प्रयोग की दृष्टि से
किसी के द्वारा प्रयुक्त ध्वनियों, शब्द-समूहों, रूपों तथा वाक्यों पर विचार किया जा सकता है।
शैलीकार अनेक ध्वनियों तथा संयुक्त व्यंजनों आदि में चयन करता है जैसे–मूरख-मूर्ख, अचरज-आश्चर्य,
सूरज-सूर्य, ब्राम्हण-ब्राह्मण, चिन्ह-चिह्न आदि ।
हर भाषा में अर्थ की समानता की दृष्टि से शब्दों के कुछ वर्ग होते हैं । शैलीकर अपनी जरूरत के मुताबिक
किसी एक को चुन लेता है। कुछ लोग अप्रचलित शब्दों के प्रयोग में रुचि लेते हैं तो कुछ अतिप्रचलित । कुछ बीच
के शब्दों में रुचि लेते हैं तो कुछ नये शब्द बनाते रहते हैं। शब्द के क्षेत्र में चयन की गुंजाइश बहुत होती है।
रूपों में चयन की गुंजाइश सबसे कम है, कारण यह है कि हर भाषा में परिनिष्ठत रूप प्रायः निश्चित होते
हैं। वाक्य-रचना के क्षेत्र में भी चयन के लिये काफी अवकाश है । पदक्रम में परिवर्तन करते हुए एक ही वाक्य के
कई रूप संभव होते हैं। इसी प्रकार एक ही अर्थ में प्रयुक्त दो या अधिक मुहावरों, विशेष प्रयोगों या लोकोक्तियों
में किसी एक का प्रयोग भी शैलीगत वैशिष्ट्य के लिये प्रायः किया जाता है।
इनमें से प्रत्येक के कुछ उदहारण हिंदी से दिये जा सकते हैं यथा ध्वनिपरक उदाहरण―
क-के, ख-फ, ग-क, ज़-ख, फ-फ जैसे कानून-कानून, खराब-खराब, गरीब-गरीब, जहाज-जहाज;
फायदा-फायदा आदि । संयुक्त व्यंजनों के उदाहरण मूरख-मूर्ख और सूरज-सूर्य ।
शब्दों के उदाहरण-सहस्र-हजार, गृह-घर-मकान: पुष्प-फूल-गुल; सुंदर-सुघर-खूबसूरत आदि ।
रूप के उदाहरण-किया-करा; जाया गया; सर्वनाम-मुझे, मुझको, मैंने, मेरे को; तुम्हें-तुमको-तुमने तेरे
को आदि।
वाक्य के उदाहरण-राम ने ही राम ही ने राम को ही-राम ही को; मात्र पानी-पानी-मात्रा: आदि ।
यह शैली शब्द अंग्रेजी के स्टाइल शब्द के तर्ज पर हिंदी में आया है परंतु अब तो यह एक भाषा वैज्ञानिक
शाखा के रूप में सुस्थापित हो चुकी है। रीति में (वामन) शब्द को कई बार शैली का प्रतिरूपी माना जाता है।
काव्यालंकार सूत्र के लेखक आचार्य वामन ‘विशिष्ट पद-रचना’ कहकर रीति को परिभाषित करते हैं। विशिष्ट
के हैं
अर्थात गुण युक्त।
प्रसिद्ध यूनानी विचारक प्लेटो का कहना है-“जब विचार को तात्त्विक रूपाकार दे दिया जाता है तो शैली का
उदय होता है।” प्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्या कार स्टेनढाल शैली को अच्छी रचना का गुण मानते हैं। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ
का कथन है कि “प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति ही शैली का अथ और इति है।” विभिन्न रचनाएँ जिन प्रभावों को उत्पन्न
करती हैं वे भिन्न-भिन्न कोटियों के होते हैं; फलतः शैलियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। इसलिये शैली की
परिभाषा यों दी जाती है―
“शैली अनुभूत विषयवस्तु को सजाने के उन तरीकों का नाम है जो उस विषयवस्तु की अभिव्यक्ति को सुंदर
एवं प्रभावपूर्ण बनाते हैं।” (साहित्यकोश)
पिछले कुछ वर्षों में शैली-विज्ञान ने काफी विकास किया है और अब भाषा-विज्ञान की एक शाखा के रूप
में वह अपना महत्त्व स्थापित कर चुका है।
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