संजीवनी में प्रस्तुत कच-देवयानी वार्ता की भाषा

संजीवनी में प्रस्तुत कच-देवयानी वार्ता की भाषा

                         संजीवनी में प्रस्तुत कच-देवयानी वार्ता की भाषा

खण्ड-काव्य में वार्ता का प्रयोजन है कथा को नाटकीयता प्रदान करना। स्वयं
कवि को अपनी ओर से कुछ नहीं कहना पड़ता। चरित्र एक-दूसरे-तीसरे के सम्बन्ध 
में विचार प्रकट करते चलते हैं। इससे चरित्र का अध्ययन सहज हो जाता है।
      संजीविनी में दो कथा है-आधिकारिक (प्रमुख) और प्रासंगिक (अप्रमुख ) । प्रमुख कथा
के समाप्त होने पर भी प्रासंगिक कथा आगे बढ़ती है। संजीविनी विद्या की सिद्धि आधिकारिक
कथा है, देवयानी कच की प्रणय और तरंग वाली कथा प्रासंगिक कच देवयानी वातों का
सम्बन्ध इसी प्रासंगिक कथा से है।
          तीसरे सर्ग में ही कच और देवयानी एक दूसरे से परिचित हो जाते हैं। देवगुरु बृहस्पति
का मेधावी पुत्र कच दैत्यगुरु शुक्राचार्य से संजीविनी विद्या का ज्ञान प्राप्त करने दैत्यों की
नगरी गया था। शुक्राचार्य की कुटी पर उसकी इकलौती सन्तान देवयानी ने उसका स्वागत
किया। वीणा के स्वरों की मिठास अपनी वाणी में भर कर उसने कच का परिचय पूछा कच
कुछ भी गोपनीय नहीं रख सका। उसने अपना परिचय दिया और सामने खड़ी हुई अपूर्व
सुन्दरी का परिचय जानने की लालसा प्रकट की। देवयानी को लगा मानो परिचय और
आत्मीयता का सागर उमड़ पड़ा हो। एक मधुर आत्मीयता के भाव से वह भर उठी।
. उसने निसंकोच भाव से अपना परिचय दिया और बतलाया कि वह गुरु शुक्राचार्य की एक
मात्र सन्तान है। पूजा के लिए पुष्प बटोरना, यज्ञ के लिए लकड़ियाँ चुनना, अतिथि सत्कार
करना और गुरु पिता की देख-रेख करना ही उसका काम है। पिता ही उसके बन्धु, गुरु,
जननी सभी कुछ हैं। उन्हीं की स्नेह-छाया में वह पल्लवित हुई है। वह कुमारी है। वह असूघी
फूल-माला है, तपस्या की हिमानी शक्ति है। प्रथम परिचय में ही वह कच को अतिथि रूप
में स्वीकार कर लेती है और यह विश्वास प्रकट करती है कि गुरु उसे शिष्य के रूप में
अवश्य ही स्वीकार कर लेंगे तथा उसे निर्जन एकान्त में एक सहचर मिल जावेगा।
          कच शिष्य के रूप में स्वीकृत हो गया। उसकी साधना गुरु के आदेश रूपी धूप और
गुरु-सुता की स्नेह-चाँदनी के पथ पर चलने लगी। वे दोनों साथ-साथ गुरु-सेवा में लीन रहते,
निश्छल क्रीड़ा कौतुक में निमग्न रहते। कच बाँसुरी बजाता और देवयानी मनहर नृत्य करती।
कच की साधना में देवयानी का योग रहता था। कच अनेक बार दैत्यों द्वारा निहत किया गया।
पर प्रत्येक बार देवयानी के करूण अनुरोध के कारण गुरु को उसे जिला देना पड़ा।
          कच की साधना समाप्त हो गई। उसे गुरु की कृपा और देवयानी का अमित स्नेह
प्राप्त था। उसे संजीविनी का ज्ञान गुरु ने दिया। अब उसे अपने देश की सुधि आई। वह
लौटने के लिए उद्यत हुआ। अब देवयानी उससे प्रणय-निवेदन करती है। वह कच के मुखड़े
को घेरे हुए उदासी के मेघों को लक्ष्य करती है। स्वच्छन्द भाव से प्रणय-क्रीड़ा के हेतु उसे
निमंत्रित करती है। प्रेम की ऋतु में चाँदनी की नौका पर सवार होकर प्रेम और सौन्दर्य के
देवता की अराधना करने का भाव प्रकट करती है। उसके निश्छल प्रेम में कामना की कलियाँ
खिल आई थी, लालसा के पल्लव निकल आए थे। वह अपने स्वच्छन्द भावों में असीम
कल्पना का मादक रूप प्रस्तुत करती है।
          कच मुग्ध होते हुए भी राष्ट्र को विस्मृत नहीं कर सका। वह उदास है क्योंकि प्रीति
का भुज-पाश अब नहीं मिल सकेगा। वह स्वर्ग लौट जाने के लिए उद्यत है। कच के उत्तर
से देवयानी को चोट लगी। वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि पत्थर बनकर कच स्नेह
को कुचल देगा। वह उसके बिना मछली की तरह तड़पेगी। वह नहीं चाहती कि कच नील
गगन के उस पार चला जाये। निष्ठुर परदेशी की तरह, प्यार की वंशी बजाकर, फिर मर्माहत
छोड़कर चले जाने में करुणा और प्रेम की भावना नहीं। किन्तु कच परदेशी की प्रीति की
तुलना बहते हुए जल की धारा और गगन पर मॅडराने वाले बादलों से करता है। देवयानी
विह्वल होकर उत्तर देती है कि उसके चले जाने पर पीड़ा के अश्रु कण और अतृप्त प्रणय
का उन्माद ही शेष रहेगा। वह मँझधार में अस्त-व्यस्त नौका की तरह त्रस्त, करुण और
अनिश्चित बन जायेगी। पर कच के सामने कल्पना का नील गगन नहीं, वास्तविकता की
ठोस धरती थी। उसके सामने कर्तव्य का निष्ठुर पथ था और प्रणय की लता में बँधकर वह
बेसुध होना नहीं चाहता। उसे जन्मभूमि की मीठी, सुखद और शीतल स्मृति हो आई थी।
देवयानी कहती है कि चांदनी चन्द्रमा से अलग नहीं रह सकती। जहाँ रूप होगा वहीं उसका
प्रतिरूप भी। जहाँ शीतल पवन के झंकि होंगे वहीं सुरभि रहेगी। जहाँ अस्तित्व है, वही
चेतना का बोध रहता है। इसी प्रकार वह कच को छोड़कर जीवित नहीं रह सकती। कच
प्रत्युत्तर में अपना आभार प्रकट करता है, पर साथ ही अपनी विवशता बतलाता है। उसके
प्राण जन्म भर आभारी रहेंगे। यदि देवयानी सहारा न देती तो कच की साधना पूर्ण नहीं होती।
            पर देवयानी को मात्र धन्यवाद की अपेक्षा नहीं वह अछूती वेदना का अधूरी वासना
का-प्रतिदान चाहती है। देवयानी उसकी कृपणता पर शोकाकुल हो उठती है। स्वर्ग पर मीठी
चुटकी लेते हुए वह कहती है कि क्या वहाँ के निवासी अकिंचन होते हैं? क्या वहाँ नन्दन-वन
में प्रेम के वसन्त की ऋतु नहीं पलकित होती? भौरे पारिजात पर नहीं मँडराते ? झूमते हुए
यौवन के विलास-चित्र नहीं मिलते? क्या कच अवर्षित बादल की तरह ही चला जावेगा?
क्या उसके हृदय में स्नेह का एक भी अंकुर नहीं? हृदय-वीणा में एक भी तार ऐसा नहीं जो
प्रणय-राग झंकृत कर दे? शांत सौम्य कच का एक ही उत्तर है-उसमें श्रद्धा की पुलक
है-सद्भाव है। वह पद धूलि-वन्दन करता है, कृपा और करुणा की एक किरण चाहता है।
पर देवयानी सन्तुष्ट नहीं होती। वह स्पष्ट स्वर में कच को आदेश देती है―
                    “छन्द जो स्वच्छन्द होकर आज गाना चाहता है,
                      राग जो अनुराग बनकर मुस्कुराना चाहता है,
                      आज मत रोको उसे, उद्दाम बहने दो लहर को।
                     तोड़ दो बन्धन नियंति का, फूटने दो प्रेम स्वर को।”
        कच अकृतज्ञ, अविनीत नहीं। पर उसके सामने कर्त्तव्य का पहाड़ है जो स्वच्छन्द प्रेम
की लता से अधिक महत्वपूर्ण है। अतः वह फिर देवयानी से याचना करता है कि वह प्रणय
के बन्धन में उसे बाँधने का प्रयास न करे।
          अब देवयानी के धैर्य का बाँध टूट जाता है। वह अपने उपकारों की याद दिलाती है,
अपने निश्छल स्नेह की याद दिलाती है और कच से उसका प्रतिदान माँगती है। कच स्पष्ट
स्वर में कह देता है कि वह उसे अपनी भगिनी मानता है। अब यदि पत्नी के रूप में उसे
प्राप्त करेगा तो गुरु रुष्ट होंगे। उस पतन पर स्वर्ग हाहाकार कर उठेगा। वह पापपूर्ण चरित्र
लेकर कहाँ जायगा? न शांति मिलेगी, न स्वदेश। देवताओं का कार्य समाप्त हो चुका था
और वह स्वर्ग के आह्वान पर लौटकर चला जाना चाहता है। कच के उत्तर से–निष्कंप और
कठोर स्वर से- देवयानी को अपनी भूल ज्ञात हुई। उसे लगा मानों उसे छला गया हो। अब
तक कच का स्नेह-प्रदर्शन एक धोखा था, एक छलावा था। प्रणय की उपेक्षा से वह आहत
भुजंगिनी की तरह क्रुद्ध हो उठती है। वह प्रेम को भौतिक बतलाती है। प्रेम का पुष्प गन्धहीन
नहीं होता। उसमें कामना की सुरभि होगी ही। किन्तु कच को वह इसी प्रकार छोड़ नहीं देगी।
वह अपमान का बदला लेगी। वह कहती है:–
                       “आज उस अपमान का मैं मानवी प्रतिशोध लूँगी ।
                         देवता को आज पावन मृत्तिका का बोध दूँगी।
और वह अपने अपमान का बदला लेती है-कच को शाप देकर―
                   “कच, सुनो, यह देवयानी यों तुम्हें अभिशाप देगी।
                     ओ मृषा-भाषी, विफल संजीविनी विद्या रहेगी।”
           परन्तु कच अप्रतिहत रहता है। उसने सिर झुकाकर शाप ग्रहण कर लिया। किन्तु
उसका अटल निश्चय नहीं डिगा। उसने घोषणा की कि सिद्धि की शक्ति हर लेने से क्या
हुआ? वह सिद्धि से विरहित हो गया। पर वह अपने देशवासियों को उसका ज्ञान देगा और
स्वर्ग के प्रत्येक निवासी उस विद्या में सिद्ध हो जायेंगे। शाप के बदले में कच इतना अवश्य
कहता है कि ब्राह्मण को क्रोध करना शोभा नहीं देता। क्रोध करना क्षत्रिय का धर्म है। देवयानी
ने क्रोध करके उसी “धर्म और वृत्ति” का परिचय दिया है अत: उसका विवाह किसी क्षत्रिय
से ही होगा। यह भी एक प्रकार का अभिशाप ही है।

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