संबंध-तत्व और उसके प्रकार :

संबंध-तत्व और उसके प्रकार :

                           संबंध-तत्व और उसके प्रकार :

ज्ञातव्य है कि वाक्य में मूलतः दो तत्व होते हैं: संबंध तत्व और अर्थ-तत्व । दोनों में प्रधानता अर्थ-तत्व की
होती है। दूसरा तत्व जिसे हम संबंध-तत्व कहते हैं, का भी अर्थ-तत्व की भूमिका के रूप में महत्त्वपूर्ण होता है,
क्योंकि संबंध तत्व का ही कार्य होता है विभिन्न अर्थ-तत्वों का आपस में संबंध दिखलाना । एक उदाहरण से इसे
समझा जा सकता है। एक वाक्य लें ‘राम ने रावण को बाण से मारा’ । ध्यान से देखें । इस वाक्य में चार-अर्थवाहक
तत्व हैं-राम, रावण, बाण और मारना । वाक्य के निर्माण के लिये इन चारों अर्थवाहक तत्वों में तालमेल बिठाने के
लिये संबंध-तत्व की आवश्यकता पड़ेगी। जाहिर है यहाँ चार संबंध-तत्व भी हैं। ‘ने’ संबंध तत्व हैं जो वाक्य में
राम का संबंध दिखलाता है और इसी प्रकार ‘को’ एवं ‘से’ क्रम से रावण और बाण का संबंध बतलाते हैं। ‘मारना
से ‘मारा’ पद बनाने का संबंध तत्व इसी में मिल गया है।
 
यहाँ एक और संबंध तत्व मिलता है जो शब्द से अलग है। (राम ने) ऐसा ही है। दूसरी ओर एक ऐसा मिला।
जो शब्द में ऐसा और इस तरह घुलसिल गया है-(मारा) कि उसका पता ही नहीं चलता। ध्यातव्य है कि इसी प्रकार
के और अनेक तरह के संबंध-तत्व होते हैं। इन संबंध तत्वों के बिना एक तो वाक्यों में शब्दों या पदों के अलग और
निरपेक्ष अस्तित्व बने रहते हैं, दूसरे यदि ऐसा ही बना रहा तो फिर उसका कोई अर्थ निष्पन्न नहीं हो पाएगा। फलतः
वाक्य की अर्थ रहितता भाषिक अस्तव्यस्तता कारण बन जायगी ।
 
             संबंध-तत्व के प्रकारः
 
संबंध तत्व के अनेक रूपाकार परिलक्षित किये जा सकते हैं।
 
1. शब्द-स्थान-वाक्य में शब्दों के स्थान भी कभी-कभी संबंध तत्व के कार्य करते हैं। संस्कृत भाषा के
समासों में यह बात प्रायः देखने में आती है। उदाहरण द्रष्टव्य हैं:
 
राज सदन = राजा का घर
 
सदन राज = घरों का राजा, अर्थात बहुत अच्छा या बड़ा घर
 
ग्राम मल्ल = गाँव का पहलवान
 
मल्ल ग्राम = पहलवानों का ग्राम
 
धन पति = धन का मालिक (पति) कुबेर 
 
पति धन = पति (शौहर) का धन ।
 
यह स्पष्टरूपेण द्रष्टव्य है कि स्थान परिवर्तन के कारण संबंध-तत्व में अंतर आ गया है। इतना ही नहीं इसी
कारण उसका अर्थ भी बदल गया है। अंग्रेजी में भी स्थान कभी-कभी संबंध-तत्व का कार्य करता है, जैसे
‘गोल्डमेडल’ । इसमें यदि दोनों का स्थान उलट दें तो यह भाव व्यक्त नहीं होगा । ‘पावर हाउस’ तथा ‘लाइट हाउस’
जैसे शब्द भी इसी के उदाहरण हैं। संस्कृत तथा अंग्रेजी के इन उदाहरणों की भाँति ही हिन्दी में भी अधिकारी के
बाद अधिकृत वस्तु रखी जाती है। ‘राजमहल’ ‘डाकघर’ तथा ‘मालबाबू’ इसी के उदाहरण हैं। यहाँ स्थान विशेष
पर होने से ही ‘राज”डाक’ तथा ‘माल’ शब्द संज्ञा होते हुए भी विशेषण का काम कर रहे हैं और इस प्रकार उनके
साथ शब्दों से विशिष्ट संबंध स्पष्ट है। चीनी भाषा में भी इसी प्रकार अधिकारी के बाद अधिकृत वस्तु रखी जाती
है। बैंग = राजा, तीन बैगतीन अर्थात राजा का घर ।
 
वाक्यों में भी स्थान से संबंध-तत्व स्पष्ट हो जाता है। यह बात चीनी आदि स्थान प्रधान भाषाओं में विशेष
रूप से पाई जाती है। उदाहरणार्थ-
 
न्गो त नि = मैं तुम्हें मारता हूँ।
 
नि त न्गो = तू मुझे मारता है।
 
हिन्दी तथा अंग्रेजी में भी इसके उदाहरण मिल जाते हैं-
 
“मोहन किल्ड राम” तथा ‘राम किल्ड मोहन’ ।
 
कहना नहीं होगा कि पहले वाक्य में मोहन और राम का संबंध दूसरा है, पर स्थान परिवर्तन मात्र से ही दूसरे
वाक्य में वाक्य पूर्णतः परिवर्तित हो गया है। हिन्दी में चावल जल रहा है’ और ‘मैं चावल खाता हूँ’ इन दोनों वाक्यों
में बिना किसी विभक्ति के केवल ‘चावल’ शब्द है, पर स्थान की विशिष्टता के कारण वह दोनों प्रकार का संबंध
दिखला रहा है। पहले में कर्ता है दूसरे में कर्म ।
 
2. शब्दों का ज्यों का त्यों छोड़ देना या शून्य संबंध तत्व जोड़ना-कभी-कभी कोई भी संबंध-तत्व न लगाकर शब्दों को ज्यों का त्यों छोड़ देना भी संबंध-तत्व का बोधक होता है। अंग्रेजी में सामान्य वर्तमान में प्रथम
पुरुष एकवचन (आइ गो) तथा सभी बहुवचनों (वी गो, यू गो, दे गो) में क्रिया को ज्यों का त्यों छोड़ देते हैं। अंग्रेजी
में ‘शीप’ का बहुवचन ‘शीप’ ही है। संस्कृत में ऐसी संज्ञाएँ (जैसे वणिक, भूभृत, मरुत, विद्युत, वारि, दधि, विद्या,
नदी तथा स्त्री आदि) कम नहीं है, जिनका अविकृत रूप ही प्रथमा एकवचन का बोधक है। आधुनिक
भाषा-वैज्ञानिकों ने स्पष्टता के लिये ऐसे रूपों को शून्य संबंध- तत्वयुक्त रूप कहा है। अर्थात् मूल शब्द में शून्य
संबंध-तत्व जोड़कर ये बने हैं।
 
3. स्वतंत्र शब्द-संसार की बहुत-सी भाषाओं में स्वतंत्र शब्द भी संबंध-तत्व का कार्य करते हैं। हिन्दी के
सारे परसर्ग या कारक-चिन्ह (ने, को, से, पर, में, का के, की) इसी वर्ग के हैं, और उनका कार्य दो या अधिक शब्दों
का वाक्य या वाक्यांश या शब्द-समूह में संबंध दिखलाना ही है । अंग्रेजी के ‘टू’, ‘फ्रॉम’, ‘ऑन’, तथा ‘इन’ आदि
भी इसी श्रेणी के शब्द हैं। संस्कृत के इति, आदि तथा च आदि भी ऐसे ही शब्द हैं । चीनी में रिक्त (एम्पटी) और
पूर्ण (फुल) दो प्रकार के शब्द होते हैं। रिक्त शब्दों का प्रयोग, संबंध-तत्व दिखलाने के लिये ही होता है। चीनी
भाषा के त्सि = (का), यु-(को), त्सुंग = (से) तथा लि (= पर) रिक्त शब्द हैं जो ऊपर के हिन्दी तथा अंग्रेजी
शब्दों की श्रेणी में आते हैं । ग्रीक, लैटिन, फारसी तथा अरबी में भी इस प्रकार के संबंधतत्वदर्शी स्वतंत्र शब्द मिलते हैं।
 
कभी-कभी दो स्वतंत्र शब्दों का भी प्रयोग संबंध-तत्व के लिये होता है। हिन्दी का यह वाक्य देखें-
 
अगर पिताजी की नौकरी छूट गयी तो मुझे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ेगी। इस में ‘अगर’ और ‘तो’ इसी प्रकार के
शब्द हैं। हालाँकि ‘मगर” ने ‘न’ त्यों-त्यों, यदि, तो, तथा, यद्यपि, तथापि आदि भी इसी के उदाहरण हैं। अंग्रेजी
के ‘इफ’, ‘देन’, या ‘नीदर’ और नॉर भी इसी प्रकार के शब्द हैं।
 
4. ध्वनि-प्रतिस्थापन-इसके अंतर्गत तीन उपभेद किये जा सकते हैं। स्वर-प्रतिस्थापन, व्यंजन-प्रतिस्थापन
स्वर-व्यंजन-प्रतिस्थापन । (क) केवल स्वरों में परिवर्तन से भी कभी-कभी संबंध-तत्व प्रकट किया जाता है। कुछ
भाषा-विज्ञान वेत्ताओं ने इसी को अपश्रुति द्वारा संबंध तत्व प्रकट होना कहा है। अंग्रेजी में सिंग से सेंग, तथा संग
ऐसे ही बनते हैं। ‘टुथ’ से ‘टीथ’, ‘फाइन्ड’ से ‘फाउन्ड’ में भी स्वर-प्रतिस्थापन है। संस्कृत में दशरथ सेदाशरथी
तथा पुत्र से पौत्र या हिन्दी में मामा से मामी आदि भी इसी श्रेणी के उदाहरण हैं। (ख) व्यंजन-प्रतिस्थापन में ‘सेन्ड’
से ‘सेन्ट’ या ‘एडवाइस’ से ‘एडवाइज’ देखे जा सकते हैं। (ग) ‘जा’ से ‘गया’, संस्कृत में पच् धातु का लुङग
पर स्मैपद में अपाक्षी या अपाक्त; रम का लुङग में अरप्साताम या आशी: में रप्सीष्ट आदि स्वर-व्यंजन प्रतिस्थापन
के उदाहरण हैं।
 
5. ध्वनि-द्विरावृत्ति-कुछ ध्वनियों की द्विरावृत्ति से भी कभी-कभी संबंध तत्वं का काम लिया जाता है। यह
द्विरावृत्ति मूल शब्द के आदि, मध्य और अंत तीनों स्थानों पर पाई जाती है। संस्कृत और ग्रीक में भी इसके कुछ
उदाहरण मिलते हैं।
 
6. ध्वनि-वियोजन-कभी-कभी कुछ ध्वनियों को घटाकर या निकालकर भी संबंध तत्त्व का काम लिया
जाता है। यों इसके उदाहरण बहुत नहीं मिलते हैं । फ्रांसीसी में ऐसे कुछ शब्द मिलते हैं।
 
7. आदि सर्ग, पूर्व सर्ग, पूर्व प्रत्यय या परसर्ग-मूल शब्द या प्रकृति के पूर्व कुछ जोड़कर शब्द तो बहुत-सी
भाषाओं में बनते हैं किंतु संबंध तत्त्व के लिये इसका प्रयोग बहुत अधिक नहीं मिलना । संस्कृत भूतकाल की क्रियाओं
में ‘अ’ आरंभ में लगाते हैं, जैसे-अगच्छत्, अघोरयत् ।
 
8. मध्यवर्ग-कभी-कभी संबंध तत्त्व मूल शब्द के बीच में भी आता है। यह ध्यातव्य है कि मूल शब्द और
प्रत्यय या उपसर्ग के बीच में यदि संबंध-तत्त्व आये तो उसे सही अर्थ में मध्यसर्ग नहीं कहा जा सकता । उदाहरणार्थ
संस्कृत में गम्यते में ‘य’ गम धातु के बाद आया है। अतः यह प्रत्यय है, मध्यसर्ग नहीं। अरबी भाषा में भी इसके
उदाहरण पर्याप्त रूप से मिलते हैं। जैसे कतब से किताब या कुतुब ।
 
9. अंतसर्ग, विभक्ति या प्रत्यय-इसका प्रयोग सर्वाधिक रूप में होता है । संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण
और क्रिया के रूपों के बनाने में प्रायः इसी का प्रयोग होता है। राम + : सु = रामः । फल + = फल । हिन्दी में
भी इसका प्रयोग खूब होता है । हो धातु से होता, ‘उस’ से उसने । भोजपुरी में दुवार से दुवारे (सप्तमी) । अंग्रेजी
किया में ‘एड’, ‘इंग’ से बनने वाले रूप भी इसी श्रेणी के हैं।
 
10. ध्वनिगुण (बलाघात या सुर) बलाघात तथा सुर भी संबंध-तत्त्व का काम करते है। सूर का उदाहरण
चीनी तथा जापानी एवं अफ्रीकी भाषाओं में मिलता है। बलाघात तथा स्वराघात का संस्कृत तथा ग्रीक आदि में भी
काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
 
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्रकार के संबंध-तत्त्व भी मिलते हैं। उपर्युक्त दस में से दो या दो से अधिक को
एक साथ सम्मलित कर भी संबंध-तत्व का काम लिया जाता है जैसे कतल (मारना) से मक्तूल (जो मारा जाय)
तकतुल (एक-दूसरे के मारना) कुत्ताल (कतल करने वाले) मुकातला (आपस में लड़ना) मकतल (कतल करने की
जगह) और तकलील (बहुत कतल करना) आदि ।

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