संबंध-तत्व के कार्य :

संबंध-तत्व के कार्य :

                        संबंध-तत्व के कार्य :

भाषा में संबंध-तत्त्व द्वारा प्रमुखतया काल, लिंग, पुरुष, वचन तथा कारक आदि की अभिव्यक्ति होती है।
संबंध तत्त्व के कार्यों की सर्राण इन्हीं के तहत तैयार की जा सकती है। समवेत रूप-संबंध-तत्त्व के कार्यों की
विवरणी से तैयार की जा सकती है-
काल-काल के तीन भेद होते हैं: वर्तमान, भविष्य और भूतकाल । इन कालों की क्रियाओं के भी
पूर्णता-अपूर्णता तथा भाव और अर्थ आदि के आधार पर सामान्य वर्तमान, अपूर्ण वर्तमान आदि बहुत-से उपभेद हैं।
क्रिया में विभिन्न प्रकार के संबंध-तत्व जोड़कर ही काल इन भेदों और उपभेदों की सूक्ष्मताओं को प्रकट करते हैं।
इसमें अनेक प्रकार के संबंध तत्त्वों से काम लेना पड़ता है। कहीं तो स्वतंत्र शब्द जोड़कर (‘आइ शैल गो’ में ‘शैल’
जोड़कर) काम चलाते हैं तो कहीं ‘इड’ जोड़कर (ही वाक्ड) भाव व्यक्त करना पड़ता है और कहीं इतना परिवर्तन
किया जाता है कि अर्थतत्व और संबंध-तत्त्व का पता ही नहीं चलता । जैसे, हिन्दी में ‘जा’ से ‘गया’ या अंग्रेजी
में ‘गो’ से ‘वेंट’ । कुछ अन्य तरह के संबंध-तत्वों का भी इसके लिये प्रयोग होता है। विद्वानों का विचार है कि
कालों का रूप आज की क्रिया के रूपों में जितनी दो स्पष्टता है उतनी पूर्व में कभी नहीं थी। इसका यही आशय
है कि अब इस दृष्टि से हमारी विचारधारा जितनी विकसित हो गयी है, पहले नहीं थी।
लिंग-प्राकृतिक लिंग कुल दो ही हैं: स्त्रीलिंग और पुल्लिंग । बेजान चीजों को नपुंसक की श्रेणी में रखा जाता
है। हालाँकि भाषा में इसका रूप सदा ही स्पष्ट नहीं होता। संस्कृत का ही उदाहरण लें। वहाँ दारा (=स्त्री)
प्राकृतिक रूप से स्त्रीलिंग का शब्द होते हुए भी नपुंसक लिंग है। हिन्दी में किताब प्राकृतिक रूप से नपुंसक लिंग
का शब्द होते हुए भी स्त्रीलिंग है और दूसरी ओर ग्रंथ प्राकृतिक रूप से नपुंसक लिंग का शब्द होते हुए भी पुल्लिंग
है। मक्खी, चींटी, चिड़िया, लोमड़ी तथा छिपकली आदि हिन्दी में सर्वदा स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं, यद्यपि इनमें
प्राकृतिक रूप से पुल्लिंग या पुरूष भी होते हैं। इसी प्रकार बिच्छू तथा गोजर जैसे बहुत-से शब्द सर्वदा पुल्लिंग में
प्रयुक्त होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वाभाविक लिंग से भाषा के लिंग का संबंध बहुत कम है। भाषा में
हमने प्रायः कल्पित लिंग आरोपित कर लिया है।
लिंग का भाव व्यक्त करने के लिये प्रमुख रूप से दो तरीके भाषा में अपनाए जाते हैं-
1. प्रत्यय जोड़कर-जैसे हिन्दी में बाघ से बाघिन, हिरन से हिरनी, या कुत्ता से कुतिया । अंग्रेजी में भी ‘प्रिंस’
से ‘प्रिंसेस’ या ‘लायन’ से ‘लायनेस’ भी इसी प्रकार के उदाहरण हैं: संस्कृत में सुंदर से सुंदरी शब्द भी इसी श्रेणी के हैं।
2. स्वतंत्र शब्द साथ में रखकर-जैसे, अंग्रेजी में ‘शी गोट’ (बकरी), ‘ही गोट’ (बकरा), या मुंडा भाषा
में आँडिया-कुल, (बाघ) और ‘एंगा-कुल’ (बाघिन) ।
ऐसा भी देखा जाता है कि एक लिंग में तो कोई दूसरा शब्द है और दूसरे में बिल्कुल दूसरा, जिससे पहले
शब्द का कोई संबंध नहीं है; जैसे स्त्री-पुरूष , व्याय-गर्ल, हॉर्स-मेयर, वर-बधू, माता-पिता, राजा-रानी तथा
भाई-बहन आदि ।
लिंग के अनुसार संज्ञा, विशेषण, सर्वनाम तथा क्रिया के रूप बदलते हैं, पर यह सभी भाषाओं के बारे में सत्य
नहीं है। अंग्रेजी के विशेषणों में लिंग के कारण प्रायः परिवर्तन नहीं होता। जैसे फैट गर्ल, फैट ब्याय । हिन्दी आकारांत
में तो हो जाता है, जैसे मोटा लड़का, मोटी लड़की, परंतु अन्यत्र परिवर्तन नहीं होता, जैसे चतुर पुरूष, चतुर स्त्री, या
सुंदर लड़का, सुंदर लड़की । सर्वनाम में हिन्दी में तो परिवर्तन नहीं होता पर अंग्रेजी (ही, सी,) तथा संस्कृत, (सः,
तत्, सा) आदि में परिवर्तन हो जाता है। इसके उलट क्रिया में लिंग के आधार पर हिन्दी में परिवर्तन होता है,
जैसे-लड़का जाता है, लड़की जाती है। परंतु अंग्रेजी (द गर्ल गोज, द व्वाय गोज) तथा संस्कृत आदि
भाषाओं में ऐसा नहीं होता।
काकेशस परिवार की चेचेन बोली में तो छह लिंग हैं।
पुरुष-पुरुष तीन होते हैं: उत्तम, मध्यम तथा अन्य । पुरुष के आधार पर क्रिया के रूपों में परिवर्तन होता
है। परंतु यह बात संसार की सभी भाषाओं में नहीं पाई जाती । एक और संस्कृत, हिन्दी तथा अंग्रेजी आदि भाषाओं
में यह है तो दूसरी ओर चीनी आदि भाषाओं में नहीं है। पुरुष के आधार पर क्रिया के रूपों में परिवर्तन करने के
लिये कभी तो कुछ स्वरों, व्यंजनों या अक्षरों के बदलने से काम चल जाता है, जैसे हिन्दी में ‘मैं जाऊंगा’ तू जायेगा,
(जावेगा, जाएगा) और कभी-कभी विभक्ति परिवर्तित करना पड़ता है, जैसे संस्कृत में प्रथम पुरुष भू+ति, मध्यम
पुरुष भू+सि, अन्य पुरुष भू + मि। अंग्रेजी में कभी तो एक ही रूप कई में काम देता है (जैसे आइ गो, यू गो,
दे गो) और कभी नये शब्द रखकर (ही इज गोइंग, यू आर गोइंग) तथा कभी प्रत्यय जोड़कर (आई गो, ही गोज)
काम चलाते हैं। अरबी तथा फारसी आदि में भी प्रायः यही तरीके अपनाये जाते हैं।
वचन-वचन प्रमुख रूप से दो हैं: एकवचन और बहुवचन । परंतु संस्कृत में तथा लिथुआनियन आदि कुछ
भाषाओं में द्विवचन तथा कुछ अफ्रीकी भाषाओं में त्रिवचन का प्रयोग भी मिलता है। वचन का ध्यान प्रायः संज्ञा,
सर्वनाम तथा क्रिया में रखा जाता है। पर संस्कृत आदि कुछ प्राचीन भाषाओं में तथा हिन्दी आदि में विशेषण में भी
इसका ध्यान रखा जाता है।
वचन के भावों को व्यक्त करने के लिये प्रायः एकवचन के रूप में प्रत्यय (हिन्दी में ओं या ओं आदि, अंग्रेजी
में इयस या यस आदि तथा संस्कृत में औ, जस आदि लगाते हैं। कभी-कभी अपवादस्वरूप समूहवाची स्वतंत्र (गण,
तथा लोग आदि) शब्द भी जोड़े जाते हैं। क्रिया में और भी कई प्रकार की पद्धतियों से वचन के भाव व्यक्त किये जाते हैं।
इसके अतिरिक्त संज्ञा तथा सर्वनाम के कारण (कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण,
संबोधन) रूप, क्रिया के विभिन्न वाक्यों (कर्तृ, कर्म भाव) या भावों के रूप, संस्कृत धातुओं के परस्मैपद तथा 
आत्मनेपद के रूप तथा क्रिया के प्रेरणात्मक (पढ़ना से पढ़वाना) आदि रूपों के लिये भी भाषा में संबंध तत्व का
सहारा लेना पड़ता है। इसी प्रकार संज्ञा से क्रिया (हाथ से हथियाना) क्रिया से संज्ञा (मार से मार) संज्ञा से विशेषण
(अनुकरण से अनुकरणीय) विशेषण से संज्ञा, (सुंदर से सुंदरता) संज्ञा या विशेषण (तेजी या तेज से, तेजी से) एवं
नकारात्मकता या आधिक्य आदि बोधक रूपों आदि को बनाने के लिये भी संबंध तत्त्व की आवश्यकता पड़ती है।

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