संशय रहित बनना और कर्त्तव्य कर्म का निर्धारण करना

संशय रहित बनना और कर्त्तव्य कर्म का निर्धारण करना

 संशय रहित बनना और कर्त्तव्य कर्म का निर्धारण करना

जीवन में ऐसे अवसर प्रायः उपस्थित होते हैं जब दो विरोधी धर्म कर्त्तव्य-कर्म
सम्बन्धी मूढ़ता उत्पन्न कर देते हैं. इस मोह की स्थिति एवं उसके निवारणार्थ उपायों का
वर्णन करने वाले अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं. 
        युद्ध स्थल में अर्जुन के मन में मोह उत्पन्न होने का उदाहरण सर्वाधिक प्रसिद्ध
है. इसको लक्ष्य करके गीता का उपदेश दिया गया. सबका निष्कर्ष है कि जो कुछ करो
शुद्ध कर्त्तव्य भाव से करो. स्वार्थ-बुद्धि रहित निर्णय सदैव शुभ फलदायक होगा. अपने को
निमित्त मात्र समझना.
              प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो
जाता है. वैचारिक चौराहे पर खड़े ऐसे व्यक्तियों के लिए सही एवं वांछित मार्ग
चुनना कठिन हो जाता है. ऐसे अवसरों पर व्यक्ति का स्व-विवेक ही सबसे बड़ा
मार्गदर्शक होता है.
          प्रायः प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कर्त्तव्याकर्त्तव्य-निर्धारण सम्बन्धी इस प्रकार
की द्विविधा के अवसर आ जाना सर्वथा स्वाभाविक है.
             द्विविधापूर्ण संकट उत्पन्न करने वाले अवसरों को लक्ष्य करके कवियों ने
अन्तर्द्वन्द्व के मनोहारी वर्णन किए हैं. विदेश-गमन के लिए तैयार पति अपनी
पत्नी से औपचारिक विदाई माँगता है. पत्नी के उत्तरस्वरूप भारतेन्दु ने कई छंद
लिखे हैं. केवल दो पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं जो पत्नी की मानसिक उलझन
के प्रति इंगित करती हैं-
                 रोकहुँ जो तो अमंगल होइ,
                 सनेह नसै कहौं पिय जाइए।
                   +          +            +
                  तासों पयान समै तुम्हरे
                  हम कहा कहैं, आप हमें समुझाइए।
भारत के महान् काव्य-ग्रन्थ महाभारत में कर्त्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी मूढ़ता के
उदाहरण भरे पड़े हैं. इनके समाधान के रूप में धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र
आदि सभी कुछ रचे गए हैं.
          युद्ध में मारे गए अपने प्रियजन का श्राद्ध करते समय धर्मराज युधिष्ठिर के मन
में भारी मोह उत्पन्न हुआ था. उनके इस मोह को दूर करने के लिए महाभारत के
‘शांति पर्व’ का कथन किया गया.
         अंग्रेजी के प्रख्यात नाटककार शैक्सपीयर के दो नाटक-हैमलेट और
कोरियो नेकस इस प्रकार की द्विविधापूर्ण मनोदशा का उद्घाटन करने वाले ग्रन्थों के
अच्छे उदाहरण हैं. हैमलेट नाटक का नायक है डैनमार्क का राजकुमार हैमलेट.
राजकुमार के मन में यह अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न होता है कि वह अपने पापी चाचा का वध
करके पुत्र धर्म के अनुसार अपने पिता की हत्या का बदला ले अथवा अपने चाचा-
अपनी माता के तथाकथित पति और राजसिंहासन पर विराजमान राजा पर दया
करे. इस दुविधा अथवा मोह में फँस जाने के फलस्वरूप हैमलेट की मानसिक दशा
दयनीय हो जाती है, उचित मार्गदर्शन के अभाव में वह पागल हो जाता है और अन्त
में ‘जिऊँ या मरूँ’ इस दुश्चिंता द्वारा ग्रसित होकर उसके जीवन का अन्त हो जाता है.
हिन्दी के नाटककार जयशंकर प्रसाद के नाटक पात्रों के अन्तर्द्वन्द्व का अच्छा चित्रण
करते हैं.
        कर्त्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी मूढ़ता अथवा मोह की उत्पत्ति का सबसे प्रसिद्ध-प्रायः
विश्व-विश्रुत-उदाहरण हैं युद्ध स्थल में अर्जुन के मन में उत्पन्न मोह. उसकी
दुविधा थी कि वह विपक्ष में खड़े परिजन एवं प्रियजन की हत्या का पाप करे अथवा
युद्ध से पलायन कर जाए और आवश्यक होने पर भिक्षान्न द्वारा जीवन-निर्वाह कर ले.
          अर्जुन के इस मोह के निवारणार्थ भगवान श्रीकृष्ण को श्रीमद्भगवद्गीता का
उपदेश देना पड़ा था, जो कालजयी बन गया.
           कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निर्धारणं अथवा धर्म सम्बन्धी निर्णय करना निस्संदेह बहुत दुस्तर
है. इस कठिनाई से छुटकारा पाने हेतु महाभारत के रचनाकार ने एक सीधा सा
रास्ता बता दिया-महाजनो येन गतःस पंथः । अर्थात् महाजनों द्वारा निर्देशित मार्ग का
अनुसरण करो, परन्तु अनुसरणीय महाजन का निर्णय भी व्यक्ति के विवेक के
सापेक्ष होगा. हमारे विचार से बात घूम-फिर कर स्व-विवेक पर आकर केन्द्रित हो जाती है.
अर्जुन के मोह की समस्या के समाधान के अन्तर्गत श्रीकृष्णजी ने मोह के सन्दर्भ में
मानव जीवन में आने वाली प्रायः उन सभी स्थितियों की विवेचना कर दी है जिनमें दो
विरोधी धर्म प्रस्तुत होकर कर्त्तव्याकर्त्तव्य-सम्बन्धी मूढ़ता उत्पन्न कर देते हैं.
          समस्त उपदेश अन्ततः इस बिन्दु पर केन्द्रित हो जाता है और यही बात वस्तुतः
व्यवहार में लाने योग्य है कि जो कुछ करो कर्त्तव्य भावना से, धर्म-पालन की दृष्टि से
करो. केवल यह सोचकर करो कि मुझे इसके शुभाशुभ परिणाम से कुछ लेना-देना
नहीं है. मैं जो कुछ कर रहा हूँ, प्रभु की इच्छानुसार, अपने हृदय में विराजमान विवेक
रूप आत्म-तत्व की प्रेरणा के अनुसार कर रहा हूँ. मैं तो इस कार्य में निमित्त मात्र हूँ.
विराट, रूप-दर्शन के उपरांत प्रभु का कथन इसी ओर इंगित करता है, यानी समस्त
ज्ञान-विज्ञान प्रसूत विवेक बुद्धि के अनुसार कर्त्तव्य निर्धारण का यही मार्ग है करने
वाला ‘मैं’ कौन ? जो कुछ होता है, सब कुछ उसकी इच्छा एवं प्रेरणानुसार होता
है, मैं तो केवल उसका स्थूल साधन हूँ. लेखक वह है, हाथ भी वह है, मैं तो केवल हाथ 
में पकड़ी हुई कलम हूँ.
            कर्म में निमित्तमात्र बन जाने के उदाहरण हमको न्यायालयों में देखने को
मिल जाते हैं. न्यायाधीश जब किसी अभियुक्त को मृत्यु दण्ड देता है, तब
क्या उसे मानव-हत्या का पाप लगता है? कदापि नहीं, क्योंकि वह प्रस्तुत साक्ष्यों
आदि के आधार पर निस्पृह भाव से अपने कर्त्तव्य-कर्म का निर्वाह करता है.
चिकित्सालयों में भी विशेषकर प्रसूति के मामलों में, इस प्रकार के उदाहरण देखने में
आते रहते हैं.
         हमारे युवा वर्ग को बड़े-से-बड़े उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना होगा. वे प्रत्येक
कार्य को शुद्ध कर्त्तव्य समझकर करें, उसमें किसी भी प्रकार अपने स्वार्थ को निहित न
होने दें. निष्काम भाव से किए गए कर्म का दुष्परिणाम तो हो ही नहीं सकता है.
            आपका विवेक ही आपके हृदय में निवास करने वाला परमात्म तत्व, गुरु रूप
श्रीकृष्ण तत्व है. उसको साक्षी मानकर संशय रहित बनिए और अपने कर्त्तव्य कर्म
का निर्धारण कीजिए. अर्जुन की भाँति आप भी कह सकेंगे-मेरा मोह नष्ट हो गया है,
मुझे अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो गया है, मैं आपकी आज्ञानुसार कर्म में प्रवृत्त हो रहा हूँ.

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