सक्रिय बनना
सक्रिय बनना
सक्रिय बनना
“घोर निराशा के क्षणों में यह स्मरण रखना चाहिए कि हर अमावस्या के बाद
पूर्णिमा सुनिश्चित है; हर काली रात प्रभात की उज्ज्वलता लेकर आती है.”
इस जीवन की विविध धाराओं में हम सभी लोग सफर करते हैं. कुछ साहस और
आत्मविश्वास से भरकर सफर करते हैं, कुछ लोग आलस्य और प्रमाद में जीते हुए
भी जिन्दगी को पूरा व्यतीत कर डालते हैं. आज बहुत सारे लोगों के भीतर अपने
आपको सिद्ध करने में तो तत्परता है, किन्तु अपने कार्यों को अपने कर्तव्यों
को पूरा करने में तत्परता बहुत कम दिखलाई देती है. यही बहुत बड़ा कारण है कि जब
एक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को पूरा करने में अपने सामने आए हुए निमित्त और हालात में
सम्मुख उपस्थित परिस्थिति की माँग में तत्परता नहीं दिखाता है तब वह अपनी योग्यताओं
को भी विकसित नहीं कर पाता इस पूरे विश्व में सकारात्मक रूप से कोई बड़ा योगदान नहीं
दे पाता. लाखों ऐसे लोग हैं जिनका बहुत बड़ा सकारात्मक योगदान इस विश्व को हो
सकता है, किन्तु होता नहीं क्यों नहीं होता ? क्योंकि वे बड़े आलसी हैं, वे बड़े प्रमादी हैं:
उन्हें अपने कार्यों को करने में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में कोई रुचि ही
नहीं है वे सोचते हैं कि बस खाते-पीते जिन्दगी बीत ही जाएगी न. मैं क्यों जागूँ,
क्यों मैं कुछ विशिष्ट करूँ ? वे अपने हाथ-पैर हिलाने में भी डरते हैं. हाथ-पैर हिलाने
में भी सकुचाते हैं. उनकी सोच “खाओ-पियो और मौज उड़ाओ” तक ही सीमित है.
ऐसे लोग इस विश्व को क्या दे पाएंगे ? हम चाहें औरों को कुछ दें या न दें, किन्तु
हम अपनी योग्यताओं का तो भरपूर आनन्द लें, यह तभी सम्भव है, जब हम
सक्रिय हो जाएं. हम निठल्ले न बैठे रहें. निठल्ले बैठने वाले लोग सोचते बहुत हैं
और वे सोच-सोच कर अपनी जिन्दगी को व्यर्थ गवाँ देते हैं, किन्तु अपने भीतर की।
योग्यताओं का कभी सदुपयोग नहीं कर पाते हैं. जो लोग अपनी योग्यताओं का सदुपयोग
नहीं कर सकते, जमाना उनके गीत कभी नहीं गाता. उनका जीवन इस धरती पर
आकर सफल नहीं होता और तो और, उनकी योग्यताएं भी विकसित नहीं हो पातीं,
क्योंकि विकसित भी तो वही होगा, जो कुछ कार्य करेगा, जो सक्रिय होगा, जो निठल्ला
नहीं बैठा रहेगा, हम अपने आपको थोड़ा-सा प्रेरित करें कि हमारा योगदान इस सृष्टि के
लिए, इस जीवन के लिए, जिस स्तर पर हम जी रहे हैं, उस स्तर के लिए कितना हो
सकता है और क्यों नहीं हो रहा है ? नहीं होने में एक कारण हो सकता है. निठल्लापन
और दूसरा कारण हो सकता है. अपनी शर्तों से हमारा लगाव. हम सोचते हैं ऐसी-
ऐसी शर्तें होंगी, तो मैं कुछ काम करूँगा और ऐसी-ऐसी दशाएं नहीं मिलेंगी तो फिर
मैं कुछ करने वाला नहीं हूँ. हम ऐसा सोचते हैं, तब भी हम ये आत्मघाती विचार कर रहे
हैं, अतः ऐसे विचार को छोड़ें. हम अपनी शर्तों पर काम न करें हमें काम करना है,
अपने कर्तव्य में आलस्य नहीं करना है. न ही कर्तव्यों से पलायन करना है. शर्तों के
आधार पर जीवन नहीं चल सकता. किसी भी प्रकार के बहाने गढ़ कर स्वयं की जीवन
ऊर्जा को व्यर्थ नहीं करना है. कर्तव्यनिष्ठा में ये चार तत्व बाधक हैं जिन्हें जानकर दूर
करना अनिवार्य है-
कर्तव्यनिष्ठा के चार बाधक तत्व
(1) कार्य के प्रति रुचि का अभाव
(2) स्वार्थवृत्ति व प्रमाद
(3) श्रम के प्रति अनास्था
(4) जीवन के प्रति निराशा
कर्तव्य प्राप्त कार्यों को श्रद्धा और सतर्कतापूर्वक करने की क्रिया है. करणीय
कार्य को ईमानदारी, भक्ति, निष्ठा, औचित्य और नियमित रूप से पूर्ण करना कर्तव्यनिष्ठा
है. जिनका जीवनक्रम व्यवस्थित होता है, वे ही अपने कर्तव्य को निष्ठा के साथ सम्पादित
करते हैं. कर्तव्यनिष्ठा मानव का अनिवार्य गुण है. परिवार और समाज का विकास
कर्तव्यनिष्ठा द्वारा होता है, कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति ही अपने पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा
करके मुक्त हो पाता है. इस संसार में प्रत्येक मनुष्य का कुछ-न-कुछ कर्तव्य है ही.
जब तक कर्तव्य है तभी तक जीवन शेष है, ऐसा कह दें तब भी कोई अतिशयोक्ति नहीं
होगी. यही कारण है कि जो जीवात्माएं ‘सिद्ध’ हो जाती हैं, हम उन्हें कृतकृत्य कहते
हैं. ‘कृतकृत्य’ अर्थात् जिनके सारे करणीय कृत्य किए जा चुके हैं. हमारे कर्तव्य ही
हमारे ऋण हैं, जिनका भुगतान हमारे लिए आवश्यक है.
1. रुचि का अभाव – जब किसी इंसान को अपने कार्यों में, कर्तव्यों में रुचि नहीं
होती तब वह कर्तव्यनिष्ठ नहीं हो पाता.
2. स्वार्थ व प्रमाद- स्वार्थवश मनुष्य कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता. स्वार्थी इंसान
सोचता है कि मैं वही कार्य करूं जिससे मेरा प्रयोजन सिद्ध होता हो, मेरा हित सधता हो,
यदि मुझे भोजन करना हो, तो खाना बनाऊं दूसरों के लिए मैं क्यों बनाऊं? मुझे दो
टके का फायदा होता हो, तो किसी के काम आऊं वरना क्यों ? ऐसे स्वार्थी लोगों की भी
इस दुनिया में कमी नहीं है. यह स्वार्थ भी कई-कई तरह का होता है. धन पाने का
स्वार्थ, नाम पाने का स्वार्थ, पद-लोलुपता इत्यादि.
3. श्रम के प्रति अनास्था- अनेक लोग मेहनत पर विश्वास नहीं करने वाले होते हैं.
वे कहते हैं कि-
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम ।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम ॥
ऐसे विद्यार्थी सोच रखते हैं कि
‘पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं, न पठितव्यं तदपि
मर्त्तव्यं माथापच्ची किं कर्त्तव्यम्’
अर्थात् पढ़ेंगे तब भी एक दिन मरना ही है, ना पढ़ें तब भी अन्ततः एक दिन मरना ही है फिर
भला सिर खपाई क्यों करना ? ऐसे लोग भ्रम में नहीं किस्मत में विश्वास रखते हुए ये भूल जाते हैं
कि बीते कल का श्रम व संकल्प ही आज की किस्मत है व आज का संकल्प व श्रम ही कल का
भविष्य है. हमारी किस्मत हम ही बनाते हैं, आकाश में बैठा ऐसा कोई ईश्वर नहीं है जो किस्मत
के पेपर लिखता हो.
4. जीवन के प्रति निराशा- जिन्हें अपने जीवन से प्रेम नहीं है वे अपने कर्तव्यों
से भी प्रेम नहीं करते, वे अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार नहीं होते. ऐसे लोग हमेशा
अपनी परिस्थितियों को, माहौल को, अपने इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों को कोसते रहते
हैं. उन्हें अपने देश, समाज, संस्था, घर-परिवार से कोई प्रेम नहीं होता, इसी कारण
वे उनके प्रति लापरवाह हो जाते हैं. ये लोग कर्तव्य करने की प्रेरणा स्वयं में जगने ही
नहीं देते. ऐसे लोगों को उनके कर्तव्य की याद दिलाई जाए तो अकसर ऐसा ही जवाब
देते हैं कि मैं नहीं रहूंगा तब भी तो तुम्हारा काम चलेगा ही, मेरे होने न होने से किसी
को क्या फर्क पड़ता है ? मेरी जरूरत किसी को नहीं है. न मैं किसी के लिए हूँ,
न ही कोई मेरे लिए है, मुझसे कोई उम्मीद मत रखो, इस प्रकार कहते हुए वे अपना
हाथ छिटक देते हैं.
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