सप्तक और उसके कवि

सप्तक और उसके कवि

                      सप्तक और उसके कवि

हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल में ‘सप्तक’ की सदैव चर्चा होती रही है. ‘तारसप्तक’ एक कविता-संग्रह है जिसमें स्वयं को प्रयोगवादी कवि मानने वाले कवियों की रचनाएं संकलित हैं. अब तक चार सप्तक प्रकाशित हो चुके हैं, जो इस प्रकार हैं―
● तारसप्तक 1943 ई. में प्रकाशित हुआ.
 
● दूसरा सप्तक आठ वर्ष बाद 1951 ई. में प्रकाश में आया.
 
● तीसरा सप्तक 1959 ई. में प्रकाशित हुआ.
 
● चौथा सप्तक 1978 ई. में प्रकाशित हुआ.
 
प्रत्येक सप्तक में सात-सात कवियों की रचनाओं को संकलित किया गया है. चारों तारसप्तकों के सम्पादक सचिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय हैं और यही ‘प्रयोगवाद’ के जनक माने जाते हैं. प्रयोगवाद का जन्म 1943 ई. में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन से ही माना गया है. यह अलग बात है कि बिहार में प्रयोगवाद के विरुद्ध जन्मे ‘नकेनवाद’ के जन्मदाताओं (नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश) ने प्रयोगवाद का जन्म 1936-38 ई. में प्रकाशित नलिन विलोचन शर्मा की कविताओं से माना है. नकेनवादियों का कहना है कि “हिन्दी कविता में प्रयोगवाद का वास्तविक आरम्भ 1936-38
ई. में लिखी गई नलिन विलोचन शर्मा की कविताओं से होता है जिनमें से कुछ ही पत्र सम्पादकों के हलक के नीचे उतर सकी थीं.”-देखिए, नकेन-1 की ‘पस्पशा’ शीर्षक
से भूमिका, पृ. 113.
        नकेनवादियों ने अज्ञेय के ‘प्रयोग’ शब्द की स्वीकृति का घोर विरोध किया. उन्होंने ‘प्रयोगवाद’ और ‘प्रयोगशील’ में भेद स्थापित करके अज्ञेय और उनके सहयोगी कवियों को प्रयोगशील कहा और अपने वर्ग को पूर्णतः प्रयोगवादी माना, किन्तु उन्होंने अपने ‘वाद’ को ‘प्रयोगवाद’ न कहकर ‘प्रपद्यवाद’ नाम दिया जिसे आलोचकों और समीक्षकों ने इन तीनों कवियों के नाम से आद्याक्षरों (आरम्भ के अक्षरों) को लेकर ‘नकेनवाद’ नाम दिया.
         ‘तारसप्तक’ की भूमिका में अज्ञेय ने लिखा है कि “प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किए हैं, यद्यपि किसी एक काल में किसी विशेष दिशा में प्रयोग करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है, किन्तु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, उनसे आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी नहीं छुआ गया है या जिनको अभेद्य मान लिया गया है.” देखिए, तारसप्तक.पृ. 276.
        ‘तारसप्तक’ के कवियों की प्रयोग दृष्टि को इंगित कर समीक्षकों ने इसे ‘वाद’ का चोंगा पहनाया जिसके विरोधस्वरूप ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन के आठ साल बाद प्रकाशित दूसरे सप्तक में स्वयं अज्ञेय ने समीक्षकों के दृष्टिकोण का विरोध किया और कहा कि “प्रयोग का कोई ‘वाद’ नहीं है. हम वादी नहीं रहे, न हैं, न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है, ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है, कविता भी अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है, वह साधन है. अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है, जितना हमें कवितावादी कहना”-देखिए, दूसरा सप्तक
की भूमिका, पृ. 6.
          अज्ञेय ने अपने छ: साहित्यिक मित्रों-गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमीचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा और गिरिजा कुमार माथुर-को एकत्र किया और उनकी कविताओं को लेकर ‘तारसप्तक’ 1943 ई. में प्रकाशित किया. अज्ञेय ने तारसप्तक के इन कवियों को ‘राहों के अन्वेषी’ कहा है, उन्होंने लिखा है कि “उनके तो एकत्र होने का कारण ही यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी मंजिल पर पहुँचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं-राही नहीं, राहों के अन्वेषी” देखिए, तारसप्तक की भूमिका, पृ. 12.
           तारसप्तक―तारसप्तक 1943 ई. में प्रकाशित हुआ. इसमें अज्ञेय, गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमीचन्द्र जैन, भारत-भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, रामविलास शर्मा और गिरिजा कुमार माथुर इन सात कवियों की कविताएं संकलित हैं. इसी सप्तक से प्रयोगवाद का जन्म माना जाता है. प्रोफेसर नामवर सिंह ने भी माना है कि प्रयोगवाद की चर्चा तारसप्तक कविता-संग्रह (1943 ई.) से शुरू हुई. इसी सप्तक की भूमिका में अज्ञेय ने इसके कवियों को ‘राहों के अन्वेषी’ कहा है. इस सप्तक की कुछ कविताओं के अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-
              तड़के ही रोज
              कोई मौत का पठान
              माँगता है जिन्दगी जीने का ब्याज।
                                                      ― गजानन माधव मुक्तिबोध
            बड़ा मूर्ख है जो लड़ता है तुच्छ धूल मिट्टी के कारण 
            क्षणभंगुर ही तो है रे ! यह सब वैभव धन
            अन्त लगेगा हाथ न कुछ, दो दिन का मेला 
            लिवू एक खत हो जा गांधी जी का चेला 
                                                                 ― भारतभूषण अग्रवाल
           हाथी घोडा पालकी
           जय कन्हैयालाल की
          जय हिटलर भगवान की
          टोकियो और जापान की
          बोलो वन्दे मातरम्
          सत्यं शिवं सुन्दर ।
                              ― प्रभाकर माचवे
          दूसरा सप्तक―दूसरा सप्तक 1951 ई. में प्रकाशित हुआ. पहले सप्तक और दूसरे सप्तक में यह अन्तर है कि जहाँ पहले सप्तक में राहों के अन्वेषण की बात कही गई है, वहीं दूसरे सप्तक में आत्म-अन्वेषण पर अधिक बल दिया है. दूसरे सप्तक में भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती नामक सात कवियों की रचनाएं संकलित हैं. इस सप्तक में भवानी प्रसाद मिश्र की ग्यारह, शकुन्तला माथुर की भी ग्यारह, हरिनारायण व्यास की दस, शमशेर बहादुर सिंह की इक्कीस, नरेश मेहता की दस, रघुवीर सहाय की चौदह और धर्मवीर भारती की तेरह कविताएं शामिल हैं. गांधीवादी विचारधारा. अनुभूतियों की विविधता, बौद्धिकता, सामाजिक चेतना, सौन्दर्य-चित्रण, उत्कृष्ट विम्य-विधान, सशक्त कल्पना आदि दूसरे सप्तक की विशेषताएं हैं. इस सप्तक की कुछ प्रमुख कविताओं के अंश यहाँ प्रस्तुत हैं―
             इन फिरोजी होठों पर बरबाद मेरी जिन्दगी!
                                                                        ― धर्मवीर भारती
यह यौवन की भूमि सोवियत
जहाँ मनुज की उसके श्रम की होती पूजा
पूँजी और साम्राज्यवाद की तोड़-बेड़ियाँ।
                                                       ― नरेश मेहता
 
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ
जी माल देखिए, दाम बताऊँगा
बेकाम नहीं है काम बताऊँगा
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने
यह गीत सख्त सिर-दर्द भुलाएगा
यह गीत पिया को पास बुलाएगा।
                                        ― भवानीप्रसाद मिश्र
 
हम अपने ख्याल को सनम समझे थे
अपने को ख्याल से भी कम समझे थे
“होना था”-समझना न था कुछ भी शमशेर
होना भी कहाँ था वो जो हम समझे थे।
                                          ― शमशेर बहादुर सिंह
 
       तीसरा सप्तक―1959 ई. में तीसरा सप्तक प्रकाशित हुआ. इस सप्तक के कवियों की यह विशेषता है कि वे स्वयं अपनी कविताओं के आलोचक बनकर भी प्रस्तुत हुए हैं. इस सप्तक के एक कवि प्रयाग नारायण त्रिपाठी कहते हैं कि “नयी कविता के नाम पर जो लिखा जा रहा जा रहा है उनके अन्तर्गत बहुत-कुछ (मेरी अपनी कविताएं भी) महज बकवास हैं.” एक अन्य कवयित्री कीर्ति चौधरी ने लिखा है कि “एक दिन कहीं ऐसा न आ जाए कि हम निरे आलोचक हो जाए, कवि रहे ही नहीं.”
      तीसरा सप्तक में प्रयाग नारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन वात्स्यायन, केदारनाथ सिंह, विजयदेव नारायण साही. कुंवर नारायण और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना-इन सात कवियों की रचनाएं शामिल हैं. इनमें मदन वात्स्यायन “सिन्दरी के कवि” कहे जाते हैं,
       तीसरा सप्तक की कुछ कविताओं के प्रमुख अंश यहाँ उद्धृत है―
 
सौदा है सौदा है तभी, अगर सेवा है,
सेवा है सेवा है तभी, अगर अर्पण है
अर्पण है अर्पण है तभी, अगर पीड़ा है
पीडा है पीड़ा है तभी, अगर सोहम् है।
                                             ― प्रयाग नारायण त्रिपाठी
 
फूल झर गए
क्षण भर की ही तो देरी थी
अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी।
                                      ― कीर्ति चौधरी
 
दे धोती
दिन भर चरखा कात
साँझ को क्यों रोती?
सूत बेचकर
पी आए घर ताड़ी
छीन लँगोटी
काटी बोटी बोटी
ऊपर नेग माँगते हैं
ये बम्हन-नौआ।
                     ― सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
 
चौथा सप्तक―तीसरे सप्तक के प्रकाशन के लगभग दो दशक बाद 1978 ई. में चौथा सप्तक प्रकाशित हुआ था. अज्ञेय ने इस सप्तक में नए सात कवियों की प्रयोगशील रचनाओं को संकलित किया है. ये कवि हैं-अवधेश कुमार, राजकुमार कुम्भज, स्वदेश भारती, नन्दकिशोर आचार्य, सुमन राजे, श्रीराम वर्मा और राजेन्द्र किशोर. इन कवियों के बारे में अज्ञेय का कथन है- “निश्चय ही जिस पीढ़ी या जिन दशकों से ये कवि चुने गए हैं उनमें और भी अच्छी रचनाएं हुई हैं. पर उनका अथवा उनके कवियों का यहाँ न पाया जाना इस बात का द्योतक नहीं है कि मैं उनकी अवमानना करना चाहता हूँ. मेरा दावा इतना ही होगा कि संकलित कवि इस अवधि की अच्छी कविता का प्रतिनिधित्व करते हैं कि उनकी रचनाएं किसी बिन्दु पर आकर ठहर नहीं गयी हैं.”
        चौथे सप्तक की कुछ प्रमुख कविताओं के अंश उदाहरणार्थ प्रस्तुत किए जा रहे हैं―
लेकिन, सोचता हूँ मैं
फिर भी सोचता हूँ
बीसवीं सदी के इस हिमपात में
कि संगीत और आदमी और पेड़
और बड़े-बड़े हरफों में लिखी गयी
यह कविता ! इतनी बेमतलब क्यों है ?
                                                ― अवधेश कुमार
 
प्रेम की परिणति यही होती है उम्र भर
पलकों में सपनों के अंकुर उगाना
अथवा गहरे
बहुत गहरे मन के भीतर डूबना
डूबते जाना।
                  ― स्वदेश भारती
 
ये तमाम बस्तियाँ उजड़ जाएंगी
इन शहरों की जगह होंगी खंदकें
तब यह लड़ाई खत्म हो जाएंगी और
शान्ति-ध्वज लिए
भगवान बुद्ध आएंगे।
                             ― राजेन्द्र किशोर

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