सफलता का राज-विनय

सफलता का राज-विनय

                     सफलता का राज-विनय

 “विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।
                      पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ।।
(विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से
सुख प्राप्त होता है)
                  विनयी बनो और तुम पूर्ण हो जाओगे
                  स्वयं को मुड़ने दो (सही रास्ते पर)
                  और तुम सरल हो जाओगे.
                  शून्यत्व को प्राप्त करो
                 और तुम परिपूर्ण हो जाओगे।
                 स्वयं को वार्धक्यता की ओर बढ़ने दो
                और तुम नये हो जाओगे।
                थोड़ा ग्रहण करो
                और तुम लाभान्वित होवोगे
                अधिक समेटो
                और तुम ऊहापोह में पड़ जाओगे
                अतः सन्त उस एक मात्र को अलिन्गित करता है
                और वह स्वर्गिक आभा तले
                उदाहरण के योग्य बन जाता है।
                वह स्वयं का प्रदर्शन नहीं करता
                अतः कौंध उठता है
                 स्वयं को समर्थित नहीं करता
                 अतः लोगों के बीच विख्यात हो जाता है
                 स्वयं की क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर नहीं देखता
                 अतः वह प्रतिष्ठित होता है
                 स्वयं की सफलता को नहीं भांजता
                अतः वह टिका रहता है
                किसी के साथ स्पर्धा नहीं रखता
               अतः कोई उसे हरा नहीं सकता
               अतः पुरातन कथ्य
               ‘विनीत बनो और पूर्णत्व पाओ।’
                ये शब्द झूठे नहीं हैं
                बल्कि अगर तुमने सच में पूर्णता पा ली है,
                हर चीज तुम तक आएगी।
            लाओत्सु के ये वचन हमें जीवन को उसकी पूर्णता में जीने का व सफल हो जाने
का मार्ग सुझाते हैं. हर प्रज्ञा सम्पन्न जीवंत महात्मा से यही सुनने को मिलेगा कि
‘विनयी होकर पाया जाता है, अहंकारी खो देता है. समण महावीर ने कहा कि-
                           ‘विणओ मूलो धम्मो.’
       अर्थात् धर्म का मूल विनय है. आप चाहें जिस किसी क्षेत्र से सम्बद्ध हों, विनम्र
होने पर ही सफलता पा सकोगे विनय होने का अर्थ मात्र सिर झुकाना, नाक व मस्तक
रगड़ना, पंचांग या अष्टांग नमन करना ही नहीं है. विनय का यह बहुत स्थूल व
औपचारिक रूप है, जहाँ विद्यार्थी अध्यापक के कक्षा में प्रविष्ट होने के साथ ही खड़ा हो
जाता है व उसके जाने के समय भी खड़े होकर थैंक्स यू सर बोलता है. अधिकारी
के समक्ष कर्मचारी का विनय भी आत्मिक हो न हो, किन्तु व्यावहारिक व औपचारिक
तो होता ही है. इस तरह के विनय की बात यहाँ नहीं की जा रही है, विनय का यह अर्थ
बहुत स्थूल है, यद्यपि व्यावहारिक है लाओत्सु कहते हैं कि विनम्र वह जो लचीला
है. अपनी गलती या भूलों को स्वीकार करते हुए ही तुरन्त स्वयं को बदल देता है. वह
मुड़ने को तत्पर है, जिद्दी या तार्किक नहीं है. बौद्धिक प्रवंचनाएं करना जिसे न सुहाता
हो, ऐसा विनयशील सरलता से परिवर्तनों को, नए तत्व, विज्ञान को प्राप्त मार्गदर्शन
को स्वीकारता है और आगे बढ़ता जाता है. 
      अक्सर तो अनेक लोग अड़े रहने के कारण अपने दोषों को जानते हुए भी उससे 
मुक्त नहीं हो पाते हैं, किन्तु जो विगत अनुभवों में सीख लेकर आगे बढ़ता जाता 
है, वह अनुभवी, ज्ञानी, बुद्धिशाली एवं विवेकशील बनता जाता है. अक्सर ऐसे 
अनुभवी, विनम्र व लचीले व्यक्तित्व के धनी लोग अल्पभाषी, अल्प संग्रहशील होते हैं. 
उन्हें ‘यह करूँ या वह करूँ’ ‘इधर जाऊँ या उधर जाऊँ ऐसी भागदौड़ नहीं रहती.
वे उतना ही करते या रखते हैं, जो बहुत जरूरी हो, इसी कारण वे शान्त चित्त रह
पाते हैं. अन्यथा तो लोग अधिक पाने के चक्कर में और फिर पाए हुए को समेटने के
चक्कर में ही लगे रहते हैं. जब तक मृगतृष्णा की वह व्याकुलता-भावुकता है तब
तक सांसारिक आभा प्रकट हो सकेगी. अन्दर का सौंदर्य भीतर में से ही उभरता
है, जो शांत चित्त, धैर्यवान, उदारचित्त होकर जीता है, वह स्वर्ग के देवताओं द्वारा भी
दर्शन के योग्य हो जाता है ऐसे चेहरों पर नूर बरसाता है, दिव्य आभा उन्हें घेरे
रखती है.
ऐसे विनम्र लोग कभी अपने आपको प्रदर्शित नहीं करते. अपनी योग्यताओं और
प्राप्त उपलब्धियों के प्रदर्शन की चाह भी नहीं रखते. वे लोगों के बीच बैठकर अपने
आपको श्रेष्ठतम नहीं ठहराते स्वयं की क्षमताओं का बखान नहीं करते, न ही अपने
प्रभावों का व्याख्यान करते हैं उनको अनावश्यक बोलते नहीं देखा जाता, ऐसे
लोगों के प्रत्येक वचन बहुत आदर के साथ सुने जाते हैं. अक्सर ऐसे लोगों से किसी
को कोई खतरा महसूस नहीं होता, इस कारण लोग उनकी दिल से इज्जत करते
हैं. उनकी सत्ता या वैभव में घबराकर या डरकर नहीं, बल्कि उनके मानवीय व दैविक
गुणों से आकृष्ट होकर लोग उनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें आदर्श रूप से स्वीकार करते
हैं. ऐसे विनीत लोग उस प्राप्त आदर व मान को भी अपनी सफलता नहीं समझते,
वे उसके प्रति भी कृतज्ञ रहते हैं, अपनी सफलता को भांजते नहीं हैं, अतः वे लम्बे
समय तक टिके रहते हैं, उन्हें जीतने की कोई इच्छा नहीं होती इसीलिए उन्हें हराया
जाना सम्भव ही नहीं होता है. उनके आत्मिक गुणों से प्रतिस्पर्धा भला कहाँ
सम्भव है ? उनके गुणों को लोग अपने भीतर से सम्मानित करते हैं, उन्हें प्रेम देते
हैं और वह विनीत सबकी सद्भावनाओं पाकर और अधिक विनम्र व दैवीय आभा से
भरपूर हो जाता है. पुरानी कहावत है कि-
                                  ‘विनीत बनो और पूर्णत्व पाओ।’
      ये शब्द झूठे नहीं हैं, बल्कि अगर सच में पूर्णता पा ली है, तो हर चीज तुम तक
स्वतः आएगी. तुम्हें कभी भी किसी से अपेक्षाएं रखने की या उम्मीदें पालने की
जरूरत ही नहीं बचेगी न ही किसी भी प्रकार की असंतुष्टि का भ्रम या पीड़ा रहेगी.
         मात्र खुद को पा लो, शेष सब पा लिया जाएगा. विनीत पूर्णता को पाता है,
पूर्णता ही सफलता है. अतः सफलता का राज है-‘विनय’
         विनय अर्थात् निरहंकारी, लचीला, सावधान, निर्लोभी और अनाक्रामक, जो
स्वयं की मात्रा में सतत् सावधान है, वह विनम्र सिद्धी को पाता ही है
          प्रश्न यह है कि हम विनम्र कैसे बनें ? तो इसके लिए स्वयं को स्थापित करने की
चाह को छोड़ना होगा. जब हम खुद को प्रमाणित या प्रदर्शित करना बंद कर देंगे
और अति आवश्यक मात्र को जीने लगेंगे, तो विनम्रता स्वयमेव उद्घाटित होगी. इन
गुणों की आत्मिक अनुमोदता भी हमारे भीतर गुणों का संचार करेगी. हमारी दृष्टि सबके 
प्रति प्रेमपूर्ण व कृतज्ञ होती जाए, विनम्रता उभरती व निखरती जाएगी.

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