समग्र आस्था के साथ लक्ष्य के प्रति अडिग रहें

समग्र आस्था के साथ लक्ष्य के प्रति अडिग रहें

                   समग्र आस्था के साथ लक्ष्य के प्रति अडिग रहें

जब कोई व्यक्ति किसी भी तरह की साधना करता है, तो उसकी साधना तभी
सफल हो सकती है, जब उसके भीतर तीन गुण हों- पहला गुण है आस्था. आस्था शब्द
सुनते ही हमारे मन में विचार कोंदेगा. आस्था किसके प्रति, ईश्वर के प्रति किस्मत
के प्रति कर्मों के लेख के प्रति आस्था किस पर किसी देवी-देवता पर किसी गुरु
पर, आत्मज्ञानी विराट गुरुजी से जब पूछा गया, आस्था किस पर तो उन्होंने आस्था
शब्द का अर्थ करते हुए कहा कि आस्था आत्मा में अवस्थिति को कहते हैं. आपका
ध्यान समग्र रूप से अपने आप में हो, आपकी चेतना किसी और की तरफ प्रवाहित
न होती हो, आप समग्र रूप से जीना शुरू करो और अपने भीतर के आत्मस्वरूप पर
विश्वास रखते हुए, अपनी योग्यताओं पर भरोसा रखते हुए अपने आपको जगाते हुए
और खुद को जानते हुए जीओ. ये आस्था है. यानी आस्था है आत्म अवस्थिति आस्था
का अर्थ किसी अन्य पर आस्था करना नहीं है, क्योंकि जब तक कोई भी साधक किसी
भी अन्य में अपनी चेतना को केन्द्रित करता है तब तक वह अपने आत्मरूप को कभी
भी प्रकट नहीं कर पाएगा. उसका ध्यान तभी सफल होगा, उसकी साधना तभी
सफल होगी, जबकि वह आत्मरूप होगी, यानी आस्था अपने से दूसरों की तरफ नहीं
हो, अपने आप में से प्रकट होने वाली हो इसीलिए साधक को अपनी साधना में
सफल होने के लिए सबसे पहले आस्था गुणों की आवश्यकता होती है. यह आस्था
तभी साधना में आगे बढ़ाती है. जब एक व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति अडिग होता है.
              दूसरा गुण होता है अडिगता का, अडिगता अर्थात् अपने लक्ष्य से अविचलित
होना, अडिग होना, जैसे अंगद का पैर कहा जाता है. अंगद ने जिधर पैर रख दिया,
उसके पैर को कोई हिला नहीं सकता, ठीक ऐसे ही हमारा ध्यान अपने लक्ष्य से जरा भी
विचलित न होने पाए. ऐसा न हो कि आज हमने कुछ लक्ष्य निर्धारित किया, कल फिर
उसके मार्ग में कोई विकटता आ गयी अथवा कोई प्रलोभन आ गया और हम
अपने लक्ष्य को भूल गए और अक्सर विकटता आती है, तो आदमी अपने लक्ष्य
को बदल देता है. सोचता है कि ये सब होना है कि जो आज बहुत मुश्किल है.
संसाधन उपलब्ध नहीं हो सकते इसीलिए मैं अपने लक्ष्य को छोड़ देता हूँ अगर
कठिनाइयों को देख करके लक्ष्य को छोड़ दिया तो व्यक्ति कभी भी सफल नहीं हो
सकेगा. साधक को अपनी साधना में सफल होने के लिए अपने लक्ष्यों के प्रति अडिग
होना होगा आज तक जितने भी लोग सफल हुए हैं. वे वही लोग हैं, जो अपने
लक्ष्य को तय करने के बाद न कभी उससे भ्रमित हुए, न कभी उससे च्युत हुए कोई
भी प्रलोभन उन्हें डिगा नहीं पाया, लोगों ने लालच दिया होगा, अपना काम-धाम छोड़
दो, हमारे साथ आ जाओ, हम तुम्हें सारी सुविधाएँ देंगे घर पर रहने का खर्चा,
बिजली-पानी का खर्चा तुम्हारे खाने का खर्चा, तुम अपना लक्ष्य छोड़ दो. प्रलोभन
पाकर कितने ही लोग पलायन कर जाते हैं और जो लोग प्रलोभन पाकर पलायन कर
जाते हैं वे अपने लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच पाते हैं. अगर आपने कोई लक्ष्य
निर्धारित किया है, तो समग्र आस्था के साथ अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहें,
अविचलित रहें ये अडिगता अन्त तक तभी बनी रह सकती है जब साधक में तीसरा
आवश्यक गुण हो.
            आत्मज्ञानी पूज्य श्री विराट गुरुजी साधक की साधना का तीसरा आवश्यक
गुण को बताते हैं क्षमा क्षमा यानी सहनशीलता, सहनशील साधक कभी भी कैसी
भी प्रतिक्रियाएं आ जाएं, प्रतिकूलताएं आ जाएं, विचलित नहीं होता, वह घबरा कर
अपने लक्ष्य से विमुख नहीं होता. सहनशील साधक अनन्य आकर्षणों के प्रलोभनों में भी
नहीं आता, यहाँ तक कि कोई उसका विरोध करे तो भी विरोधी के प्रति सहिष्णु
बना रहता है, वह स्वयं किसी का विरोध करने के लिए आत्म नहीं बनता पूज्य
विराट गुरुजी समझाया करते थे कि आपके पास जितनी भी योग्यता, काबिलियत क्षमता
है. अगर आप विरोधी तत्वों के विरोध करने में, प्रतिकूलताओं की प्रतिक्रिया में उस
ताकत को लगा दोगे, तो आप अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए जिस ताकत की आवश्यकता
होती है. उस ताकत को गँवा बैठोगे और तब आप अपने लक्ष्य को प्राप्त भी नहीं कर
पाओगे. इसीलिए चाहे आपको कोई प्रतिकूलताएं दे रहा हो, चाहे आपका कोई
विरोध कर रहा हो, चाहे कोई गाली-गलौज भी कर रहा हो, अपमानित भी कर रहा हो.
आपके प्रति भ्रमित वार्तालाप दुनिया में फैला रहा हो, जैसे आप नहीं हो वैसी वैसी बात
वह दुनिया में कह रहा हो, लेकिन आपका काम है क्षमाशील रहना. बाहरी ताँक-झाँक
से अप्रभावित रहना. कौन क्या कहता है, इस बात से अप्रभावित निरपेक्ष होकर के
अपने लक्ष्य की ओर सदा बढ़ते चले जाना, अगर आप ऐसा कर पाते हो, तो आप जिस
भी क्षेत्र की साधनाएँ कर रहे हो. जिस भी कार्य क्षेत्र में आगे बढ़ना चाह रहे हो.
जिस भी कार्य क्षेत्र में आपने अपना लक्ष्य निर्धारित किया है. ये आप अपने भीतर जो
कुछ भी होना चाह रहे हो वह अवश्य हो पाओगे, फिर आपको कोई भी नहीं रोक
सकता. अगर तीन तत्व आपमें हैं-आस्था, अडिगता और क्षमा यानी सहनशीलता आप
कहोगे ये सहन करा तो ये कायरता है, नहीं समझदारीपूर्वक सहन करना कायरता नहीं
होती है. आवेश में आकर उत्तेजना में आकर जो प्रतिक्रिया करता है. वह कमजोर
व्यक्ति होता है, क्योंकि वह किसी भी बात के तथ्य की तह तक जाने की कोशिश
नहीं करता जरासा अपना अपमान सहन नहीं कर पाता और उत्तेजित होकर के कुछ
भी अनर्गल बातें करने लगता है. सहना कमजोरी कभी नहीं है, सहना तो वीरों का
भूषण है, कमजोरी तो तब होती है जब आप क्रोध में आते हो और दूसरों के चलाए
चलते हो वह कमजोरी है, जब आप अपने भीतर आस्थावान होते हो, तो आप कभी
कमजोर नहीं होते हो. आस्था, अडिगता और क्षमा ये तीनों गुण गुरु शक्तियों की
कृपा से हमारे भीतर प्रकट हों और हम समग्र रूप से अपने आप पर भरोसा करते
हुए अपने ध्यान को अपने भीतर की ओर मोड़ते हुए अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण
समर्पित, दृढ अटल होते हुए हर आने वाली. अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के मध्य
क्षमावान रहते हुए सतत् वर्धमान बने रहें, तो जिन्दगी में आपको सफल होने से कोई
नहीं रोक सकेगा.

Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *