समय नहीं संकल्प बली

समय नहीं संकल्प बली

                           समय नहीं संकल्प बली

प्रायः लोग कहते हैं कि ‘समय बड़ा बलवान है.’ किन्तु समय से भी अधिक
बलवान इंसान का अपना ‘संकल्प’ है. संकल्पों का धनी पुरुष स्वयं के भावों, विचारों व
कार्यशैली को इतना व्यवस्थित व उन्नत कर सकता है कि उसके भाव बल से उसकी
किस्मत के पन्ने बदल जाएं. हमारी किस्मत हमारे बल-पौरुष से बदल सकती है, बदलती
रही है. चाणक्य ने अपने आत्मबल से चन्द्रगुप्त मौर्य को इतना योग्य प्रशासक बनाया कि
वह सम्पूर्ण भारत देश को एक ‘राष्ट्र’ के रूप में सूत्रबद्ध कर पाया. यह माँ मदालसा
का भाव बल ही था कि वह अपने छः पुत्रों को जन्म देने के साथ ही साधुत्व के भावों
से संस्कारित करती गईं और अपने पति के कहने पर उन्होंने अपनी सातवीं संतान को
वैराग्य बोध न देकर राज्य सत्ता संचालन का ज्ञान दिया. उसे राजा बनाया. तत्पश्चात्
वह भी राज्य धर्म का पालन करने के बाद अपने पुत्र को योग्य बनाकर उसे राज्य पद
देकर स्वयं साधु बन गया. कहने का तात्पर्य यह है कि एक माँ अपने संकल्पों से अपनी
संतान की किस्मत बना सकती है. एक गुरु अपने संकल्पों से अपने शिष्य की भाग्य
रेखा बदल सकता है. जैन धर्म के इस युग के आद्य तीर्थंकर प्रभु ऋषभ ने अपने हजारों
शिष्यों के भाग्य को इस तरह बदला कि सभी शिष्यों का निर्वाण अपने ही साथ करवाया
और इस प्रकार भाव शक्ति के अनूठे प्रयोग ने ‘समवेत शिखर’ (सम्मेदशिखर) की सर्जना
कर डाली. एक साथ एक सौ आठ पुरुषों का मुक्त होना यह स्पष्ट बताता है कि सभी
के कर्मों को इच्छाशक्ति के प्रयोग से बदला जा सकता है, अन्यथा यह भला कैसे सम्भव
होता कि सभी के कर्म एक साथ ही समाप्त हों और सभी का आयुष्य एक ही साथ पूर्ण
होकर सभी मुक्ति को पा जाएं.
             समण परम्परा आत्म नाथ होने की बात करती है. वह कहती है कि आत्मा ही
परमात्मा है, ईश्वर है. जब वही ईश्वर है, तो निश्चित ही वह समय और क्षेत्र से सम्बन्धित
है, मुक्त है. फिर बस कथन का क्या महत्व कि ‘समय बड़ा बलवान है.’ जब कभी आप
और हम संकल्प बल का उपयोग नहीं करते हैं, आलसी, प्रमादी बने रहते हैं, उन क्षणों
में हमारे पूर्व प्रसारित कल्प ही हम पर लागू होते रहते हैं. वे हम पर जिस तरह की
घटनाओं का प्रभाव लेकर आते हैं, हम उन्हें भोगते चले जाते हैं. जैन दर्शन की भाषा में
इसे औदयिक कर्मों का प्रभाव कहते हैं. औदयिक कर्म जैसा जैसा माहौल रचते हैं,
वैसा वैसा होता जाता है, तब इंसान चूँकि स्वयं पुरुषार्थ नहीं कर रहा होता है अतः
वह यही कहता है कि समय बलवान है, जब जैसा कर्मों का उदय होगा वैसा वैसा होता
जाएगा, इस उदय के अधीन हम सब ही हैं. तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, ऋषि
मुनि कोई भी कर्म सत्ता व समय चक्र से मुक्त नहीं हो पाए. सबको अपने समय के
अधीन जीना ही पड़ता है. किसी पर भी घटित हो रही घटनाओं को देखकर हम इस
तरह की व्याख्या करते आए हैं, कर सकते हैं, किन्तु सत्य को देखने का यह नजरिया
हमें कमजोर व काल को प्रबल बनाता है, उसे ज्यादा बलवान साबित करता है, यह
गरिमापूर्ण नहीं है. हकीकत यह है कि तीर्थंकर, पैगम्बर, अवतार पुरुष स्वयं स्वयं
के नाथ होते हैं. वे स्वयं चाह कर अपने अतीत के कर्मफलों का आह्वान करते हैं और
उन्हें भोगते हैं स्वयं महावीर ने चाहा कष्टों को भोग कर समाप्त करना, इसीलिए उन्होंने
कायोत्सर्ग-ध्यान में उपसर्गों का आह्वान किया. वे अपने अतीत के ग्रंथि बंधनों को भोग कर
समाप्त कर लेना चाहते थे इसीलिए स्वेच्छया अनार्य भूमि में चले जाते हैं. स्वेच्छा से भूत-
प्रेत-यक्ष से अधिष्ठित भूमि पर खड़े रहकर ध्यान लगाते हैं, ताकि बाधाएँ आएं और वे
उनसे गुजरकर अपने आत्मबल को और अधिक जगा सकें. यदि गौतम बुद्ध की
इच्छा न होती, तो वे सुख-वैभवपूर्ण राज्य लक्ष्मी को छोड़कर क्यों जंगलों का जीवन
चुनते, भला क्यों यायावरी करते. उनकी जन्म कुण्डली में चक्रवर्ती सम जीवन सुस्पष्ट था,
किन्तु वे मृत्यु के पार का सत्य जानने की इच्छा से चल पड़े थे.
            महाभारत का प्रसंग है युद्ध समाप्ति पर गांधारी अपने शतपुत्रों की मृत्यु से
शोकविह्वल होकर श्रीकृष्ण पर रुष्ट होती है. जिस दिन श्रीकृष्ण उनके चरण छूने
जाते हैं, उस दिन वह क्रुद्ध होकर शाप दे देती है कि जिस प्रकार तुमने मेरे जीवन में
पुत्र अभाव का अँधेरा भर दिया है इसी प्रकार तुम भी अँधेरे लोकों के जीवन को
जीने के लिए बाध्य बनो, श्रीकृष्ण गांधारी की संवेदनाओं को, हृदय की पीड़ा को
समझते हुए कहते हैं कि तू तो माँ है, जो तू मुझे ऐसा शाप देती है, तो मैं ये भी
स्वीकार करता हूँ, तेरा दिया शाप भी मैं हँसते-हँसते भोग लूँगा और इस प्रकार
श्रीकृष्ण अपने लिए अंधलोकों की नियति को स्वीकार कर लेते हैं. ‘समय’ चक्र गति-
शील है, वह पूर्णतया निष्पक्ष व निरपेक्ष है, किन्तु हम उसे जिस तरह से जीते हैं, वही
हमारा जीवन बन जाता है. हम चाहे तो समयाधीन रहें, चाहें, तो समयनाथ बनें.
          हम अपने मालिक खुद हैं, अगर हम ऐसा महसूस कर पाते हैं, तो अपनी नियति
और अपनी किस्मत की रचना जाग्रत भावों से कर पाएंगे हम खुद ही अपने लिए
जीवन के आकार को चुन पाएंगे अन्यथा काल की कठपुतली बुरे समय की धारा में
गोते लगाते रहेंगे जैसाकि कवि कहता है-
                        है समय नदी की धार, कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
                        है समय बड़ा तूफान, प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं।
                        अक्सर दुनिया के लोग, समय में चक्कर खाया करते हैं।
                         किन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो इतिहास बनाया करते हैं।
      समय बलवान है, जो सोए हैं उनके लिए, जो कल्पना की, विचारों की, भाग्य-
वादिता की नींद का बहाना बना जाते हैं, उनके लिए किन्तु आप यदि संकल्पी हों,
तो आप समय में सर्जना करोगे अपना इतिहास खुद रचोगे,
                         खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले।
                         खुदा बंदे से खुद पूछे कि बता तेरी रज़ा क्या है।
      आप और हम अपने संकल्पों से अपने सितारे बदल सकते हैं. याद रहे, संकल्पों के
दृढ़ कदमों से चलने वाले कभी ज्योतिषियों के घरों के चक्कर नहीं काटते हैं. उनकी
हथेलियाँ किसी भविष्यवक्ता के आगे फैलती नहीं हैं. वे अपनी लकीरें खुद चुनते हैं, भाव
बल से बदल भी डालते हैं.
          एक बार आत्मज्ञानी योगी पुरुष श्री विराट गुरुजी के सम्मुख एक युवक ने अपनी
हथेलियाँ फैलाते हुए पूछा कि-गुरुजी ! जरा मेरा भविष्य बता दो मेरा आने वाला समय
कैसा रहेगा ? गुरुजी ने उसके दोनों हाथों को समेटते हुए बड़े प्यार से कहा कि जैसा
तुम वर्तमान को जीओगे और जैसा विश्वास करोगे वैसा ही होगा. बोलो – आज तुम्हारा
कैसा है ? वह बोला आज तो बढ़िया है. गुरुजी बोले-आज तो… में से ‘तो’ निकाल
दो शंका निकाल दो, फिर देखो कल भी बढ़िया ही होगा. गुरुजी ने उस युवक को
सम्बोधित करते हुए सम्पूर्ण युवा वर्ग को संदेश दिया कि अपने हाथ किसी के सामने
मत फैलाओ खुद पर भरोसा करो व अपनी किस्मत को खुद रचो.

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