समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता

समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता

                       समान नागरिक संहिता की प्रासंगिकता

भारत में अनेक धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं, रीति-रिवाजों,
सामाजिक संस्थाओं, कर्म-काण्डों, पुरुषों-महिलाओं के अधिकारों के मामलों में 
अलग-अलग धर्मों की अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं. कुछ लिखित तो कुछ परम्परागत.
भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद-25 में धर्म के अबाध रूप
से मानने आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देश के प्रत्येक नागरिक को
है. इस अनुच्छेद में कहा गया है.
      (1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के
अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के
अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा.
        (2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव
नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो-
       (क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य
लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है;
        (ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं
की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खोलने का
उपबंध करती है.
         प्रत्येक धर्म के अनुयायी इसी मौलिक अधिकार के तहत् अपने-अपने धार्मिक
कानूनों, प्रावधानों में राज्य द्वारा किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करने का विरोध करते
हैं. दूसरी ओर राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद-44 में
कहा गया है, “राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान सिविल
संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा.”
        भारत के अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमान संविधान लागू होने के बाद से
ही समान नागरिक संहिता के नाम पर शरियत (इस्लामी कानूनों) में किसी भी प्रकार
का विरोध अनुच्छेद-25 में प्राप्त धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन मानते हैं.
वोट की राजनीति के तहत भारतीय जनता पार्टी तथा शिव सेना को छोड़कर लगभग
अन्य सभी राजनीतिक दल भी समान नागरिक संहिता लागू किए जाने को
भारतीय जनमानस का ‘हिन्दुत्वीकरण’. ‘भगवाकरण’ किए जाने का अरोप लगाते
हुए इसका विरोध करते हैं.
       देश की सर्वोच्च न्यायपालिका उच्चतम न्यायालय देश में समान नागरिक संहिता
लागू किए जाने की पक्षधर तो है, लेकिन वह यह कार्य संसद के ऊपर छोड़ देती है.
मुस्लिम महिलाएं पति द्वारा तीन बार तलाक-तलाक तलाक कहकर तलाक की
वैधता को चुनौती दे रही हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में दिए गए निर्णय में
स्पष्ट रूप से कहा था, “जब देश के 80 प्रतिशत से अधिक नागरिक संहिताकृत
वैयक्तिक कानून के अन्तर्गत आ चुके हों तो भारत के सभी नागरिकों को समान
नागरिक संहिता के दायरे में लाए जाने को रोके रखा जाना न्यायोचित नहीं है.” सर्वोच्च
न्यायालय द्वारा लगभग इसी प्रकार का अभिमत शाहबानो, डेनियललतीफ, तथा
जॉन वाल्लामट्टम वादों में दिया है. एडवोकेट अश्वनी उपाध्याय द्वारा समान
नागरिक संहिता लागू किए जाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका को
अस्वीकार करते हुए यह विषय एक बार पुनः संसद के ऊपर छोड़ दिया है. लेकिन
मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खण्डपीठ ने मुस्लिम महिलाओं को आश्वस्त
करते हुए निर्णय दिया कि न्यायालय उनके अधिकारों की रक्षा हेतु अपने कर्तव्य से
पीछे नहीं हटेगा, इसमें चाहे जितना विवाद उठे या इसकी चाहे जो कीमत चुकानी पड़े.
यदि कोई मुस्लिम महिला न्यायालय की शरण में आती है और कहती है कि तीन
तलाक की प्रथा बुरी है, तो न्यायालय इस प्रश्न का परीक्षण करेगा.
           देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर जनता की राय जानने के
लिए विधि आयोग द्वारा 16 सवालों की प्रश्नावली जारी कि गई है. इसके जारी होते
ही कुछ मुस्लिम संगठन और धर्मगुरु इस तरह विचलित हो गए कि उन्होंने सवालनामे
का बहिष्कार करने का फैसला ले लिया है. दरअसल संविधान के अनुच्छेद-44 के तहत्
सर्वोच्च न्यायालय चाहती है कि देश के सभी नागरिकों के लिए एकसमान कानून
हो. इसी मकसद की रायशुमारी के लिए सभी धर्मों के धर्मगुरुओं, बुद्धिजीवियों और
राजनीतिक दलों को प्रश्नावली देकर राय माँगी गई है कि संविधान के अनुच्छेद-44
की भावना का पालन कैसे हो ? दुर्भाग्यवश कोई सुझाव देने की बजाय इस पवित्र मंशा
पर न केवल सवाल उठने शुरू हो गए, बल्कि इस बहस को साम्प्रदायिक रूप भी
दिया गया. देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो राजनीति होती है, उसे हथियार बनाकर
इस अनुच्छेद की भावना का अनादर किए जाने की शुरूआत हो गई है.
          सर्वोच्च न्यायालय कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में
केन्द्र सरकार के रुख को जानने की पहल कर चुकी है. दरअसल संविधान में दर्ज
नीति-निर्देशक सिद्धान्त भी यही अपेक्षा रखता है कि समान नागरिकता लागू हो.
जिससे देश में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए एक ही तरह का कानून वजूद में आ
जाए, जो सभी धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों पर लागू हो. आदिवासी और घुमंतू जातियाँ
भी इसके दायरे में आएंगी केन्द्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार से यह उम्मीद
ज्यादा इसलिए है, क्योंकि यह मुद्दा भाजपा के राम मन्दिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर से
धारा-370 हटाने के बुनियादी मुद्दों में शामिल है. इसीलिए अदालत द्वारा पूछे गए।
प्रश्न के उत्तर में विधि मंत्री सदानंद गौड़ा ने कहा था कि ‘राष्ट्रीय एकता के लिए
समान नागरिक संहिता जरूरी है,’ किन्तु चतुराई से अगले वाक्य में यह भी जोड़
दिया था. इस मसले पर सभी हितधारकों से विचार-विमर्श की जरूरत है. दरअसल
यही वह पेंच है जो असमान कानूनों को एकरूपता में ढालने में रोड़ा बनता है.
            इसमें सबसे बड़ी चुनौतियाँ बहुधर्मों के व्यक्तिगत कानून और वे जातीय मान्यताएं
हैं, जो विवाह, परिवार, उत्तराधिकार और गोद जैसे अधिकारों को दीर्घकाल से चली
आ रही क्षेत्रीय सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं को कानूनी स्वरूप देती हैं. इनमें
सबसे ज्यादा भेदभाव महिलाओं से बरता जाता है. एक तरह से ये लोक प्रचलित
मान्यताएं महिला को समान हक देने से खिलवाड़ करती हैं. लैंगिक भेद भी इनमें
स्पष्ट परिलक्षित रहता है. मुस्लिमों के विवाह व तलाक कानून महिलाओं के हितों की
अनदेखी करते हुए पूरी तरह पुरुषों के पक्ष में हैं. ऐसे में इन विरोधाभासी कानूनों के
तहत् न्यायपालिका को सबसे ज्यादा चुनौती का सामना करना पड़ता है. अदालत में जब
पारिवारिक विवाद आते हैं तो अदालत को देखना पड़ता है कि पक्षकारों का धर्म
कौनसा है और फिर उनके धार्मिक कानून के आधार पर विवाद का निराकरण करती
है. इससे व्यक्ति का मानवीय पहलू तो प्रभावित होता ही है, अनुच्छेद-44 की भावना
का भी अनादर होता है. दरअसल ब्रिटिश-कालीन भारत 1772 में सभी धार्मिक
समुदायों के लिए विवाह, तलाक और सम्पत्ति के उत्तराधिकार से जुड़े अलग-
अलग कानून बने थे, जो आजादी के बाद भी अस्तित्व में हैं.
          वैसे तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बुनियादी मूल्य समानता है, लेकिन
बहुलतावादी संस्कृति, पुरातन परम्पराएं और धर्मनिरपेक्ष राज्य अंततः कानूनी असमानता
को अक्षुण्ण बनाए रखने का काम कर रहे हैं. इसलिए समाज लोकतांत्रिक प्रणाली से
सरकारें तो बदल देता है, लेकिन सरकारों को समान कानूनों के निर्माण में दिक्कतें
आती हैं. इस जटिलता को सत्तारूढ़ सरकारें समझती हैं, संविधान के भाग-4 में
उल्लेख है कि राज्य-निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत अनुच्छेद-44 में समान नागरिक
संहिता लागू करने का लक्ष्य निर्धारित है. इसमें कहा गया है कि राज्य भारत के
सम्पूर्ण क्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता पर क्रियान्वयन कर सकता
है, किन्तु यह प्रावधान विरोधाभासी है, क्योंकि संविधान के ही अनुच्छेद-25 में
विभिन्न धर्मावलम्बियों को अपने व्यक्तिगत प्रकरणों में ऐसे मौलिक अधिकार मिले हुए
हैं, जो धर्म-सम्मत कानून और लोक में प्रचलित मान्यताओं के हिसाब से मामलों के
निराकरण की सुविधा धर्म संस्थाओं को देते हैं. इसलिए समान नागरिक संहिता की डगर
कठिन है, क्योंकि धर्म और मान्यता विशेष कानूनों के स्वरूप में ढलते हैं तो धर्म के
पीठासीन (मन्दिर, मस्जिद और चर्च के मुखिया) अपने अधिकारों को हनन के रूप
में देखते हैं.
        इस्लाम और ईसाइयत से जुड़े लोग इस परिप्रेक्ष्य में यह आशंका भी व्यक्त
करते हैं कि यदि कानूनों में समानता आती है तो इससे बहुसंख्यकों, मसलन हिन्दुओं
का दबदबा कायम हो जाएगा, जबकि यह परिस्थिति तब निर्मित हो सकती है, जब
बहुसंख्यक समुदाय के कानूनों को एकपक्षीय नजरिया अपनाते हुए अल्पसंख्यकों पर थोप
दिया जाए जो पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में कतई सम्भव नहीं है. विभिन्न
पर्सनल कानून बनाए रखने के पक्ष में यह तर्क भी दिया जाता है कि समान कानून
उन्हीं समाजों में चल सकता है, जहाँ एक धर्म के लोग रहते हों. भारत जैसे बहुधर्मी
देश में यह व्यवस्था इसलिए मुश्किल है, क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के मायने हैं कि
विभिन्न धर्म के अनुयायियों को उनके धर्म के अनुसार जीवन जीने की छूट हो ?
इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शासन पद्धति में बहुधार्मिकता और बहुसांस्कृतिकता को
बहुलतावादी समाज के अंग माने गए हैं. इस विविधता के अनुसार समान अपराध प्रणाली
तो हो सकती है, किन्तु समान नागरिक संहिता सम्भव नहीं है ? इस दृष्टि से देश
में समान ‘दण्ड प्रक्रिया सहिता’ तो बिना किसी विवाद के आजादी के बाद से लागू
है, लेकिन समान नागरिकता संहिता के प्रयास अदालत के बार-बार निर्देश के
बावजूद सम्भव नहीं हुए हैं. इसके विपरीत संसद निजी कानूनों को ही मजबूती देती
रही है.
        इस बाबत् सबसे अहम् मुकदमा 1985 में आया- इन्दौर का मोहम्मद अहमद खान
बनाम शाहबानो बेगम इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला एक
तलाकशुदा मुस्लिम महिला के पक्ष में सुनाया था. फैसले को सुनाते वक्त अदालत
ने यह चिन्ता भी प्रगट की थी कि संविधान का अनुच्छेद-44 अभी तक लागू नहीं किया
गया.’ अनुच्छेद-44 को लागू करने की बात तो छोड़िए, इस फैसले पर जब मुस्लिम
समाज ने नाराजगी जताई तो प्रचण्ड बहुमत से सत्तारूढ़ राजीव गांधी सरकार के
हाथ-पांव फूल गए. गोया, आनन-फानन में ‘मुस्लिम कट्टरपंथियों की माँग स्वीकारते
हुए मुस्लिम महिला विधेयक-1986′ संसद से पारित कर दिया गया. हालांकि अब कई
सामाजिक और महिला संगठन अर्से से मुस्लिम पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार की जरूरत
जता रहे हैं. उनकी माँग है कि तीन तलाक और बहुविवाह पर रोक लगे. यह अच्छी बात
है कि शीर्ष न्यायालय ने भी इस मसले पर बहस और कानून की समीक्षा की जरूरत
को अहम् माना है. ऐसा इसलिए सम्भव हुआ, क्योंकि खुद मुस्लिम समाज के भीतर
पर्सनल लॉ को लेकर बेचैनी बढ़ रही है.
          ऐसे महिला और पुरुष बड़ी संख्या में आगे आए हैं. जो यह मानते हैं कि पर्सनल
लॉ में परिवर्तन समय की जरूरत है. इस परिप्रेक्ष्य में मुस्लिम संगठनों की प्रतिनिधि
संस्था ऑल इण्डिया मजलिस-ये-मुशावरत ने भी अपील की थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ
बोर्ड और उलेमा मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार किए जाएं. इस्लाम के अध्येता
असगर अली इंजीनियर मानते थे कि भारत में प्रचलित मुस्लिम पर्सनल लॉ दरअसल
‘ऐंग्लो मोहम्मडन लॉ’ है, जो फिरंगी हुकूमत के दौरान अंग्रेज जजों द्वारा दिए फैसलों पर
आधारित है. लिहाजा इसे संविधान की कसौटी पर परखने की जरूरत है.
         दरअसल देश में जितने भी धर्म व जाति आधारित निजी कानून हैं, उनमें से
ज्यादातर महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव बरतते हैं. बावजूद ये कानून विलक्षण
संस्कृति और धार्मिक परम्परा के पोषक माने जाते हैं, इसलिए इन्हें वैधानिकता हासिल है
इनमें छेड़छाड़ नहीं करने का आधार संविधान का अनुच्छेद-25 बना है. इसमें
सभी नागरिकों को अपने धर्म के पालन की छूट दी गई है. दरअसल संविधान निर्माताओं
ने महसूस किया था कि विवाह और भरण पोषण से जुड़े मामलों का सम्बन्ध किसी
पूजा पद्धति से न होकर इंसानियत से है. लिहाजा यदि कोई निःसन्तान व्यक्ति बच्चे
को गोद लेकर अपनी वंश परम्परा को आगे बढ़ाना चाहता है अथवा इससे उसे सुरक्षा
बोध का अहसास होता है तो यह किसी धर्म की अवमानना कैसे हो सकती है, यदि
किसी कानून से किसी महिला को सामाजिक सुरक्षा मिलती है या पति से अलग होने के
बाद उसे दरबदर भटकने की बजाय गुजारे भत्ते की व्यवस्था की जाती है तो इसमें
उसका धर्म आड़े कहाँ आता है ? स्त्री-पुरुष के दांपत्य सम्बन्धों में यदि समानता
और स्थायित्व तय किया जाता है तो इससे किसी भी सभ्य समाज की गरिमा ही बढ़ेगी,
न कि उसे लज्जित होना पड़ेगा ?
          ईसाई समाज में युवक-युवती ने यदि चर्च में शादी की है, तो उनको चर्च में
आपसी सहमति से सम्बन्ध विच्छेद का अधिकार है, किन्तु ऐसी सुविधा ‘हिन्दू
विवाह अधिनियम में नहीं है. यदि हिन्दू युगल मन्दिर में स्वयंवर रचाते हैं और
कालान्तर में उनमें तालमेल नहीं बैठता है तो वै चर्च की तरह मन्दिर में जाकर
आपसी सहमति से तलाक नहीं ले सकते ? उन्हें परिवार न्यायालय में कानूनी प्रक्रिया से
गुजरने के बाद ही तलाक मिलता है. यदि हम परम्परा को कायम रखना चाहते हैं तो
मन्दिरों को तलाक का अधिकार भी देना चाहिए ? हिन्दुओं में खाप पंचायतें एक गौत्र
में शादी करने की प्रबल विरोधी है. कई जनजातियां अपनी लोक मान्यताओं के
अनुसार गांव और जाति से बाहर विवाह को वर्जित मानती हैं.
       हालांकि जैसे-जैसे धर्म समुदाय शिक्षित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे निजी कानून और 
मान्यताएं निष्प्रभावी होती जा रही है. पढ़े-लिखे मुस्लिम अब शरिया कानून के
अनुसार न तो चार-चार शादियां करते हैं। और न ही तीन बार तलाक बोलकर पति-
पत्नी में सम्बन्ध विच्छेद हो रहे हैं. हिन्दू समाज का जो पिछड़ा तबका शिक्षित होकर
मुख्यधारा में शामिल हो गया है, उसने भी लोक में व्याप्त मान्यताओं से छुटकारा पा
लिया है. कुछ मामलों में उच्च और उच्चतम न्यायालयों ने भी ऐसी व्यवस्थाएं दी हैं.
जिनके चलते हरेक धर्मावलम्बी के लिए व्यक्तिगत रूप से संविधान-सम्मत धर्मनिरपेक्ष
कानूनी व्यवस्था के अनुरूप कदमताल मिलाने के अवसर खुलते जा रहे हैं.
         समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार करते वक्त व्यापक राय-मशविरे की
जरूरत तो है ही, यत्र-तत्र सर्वत्र फैली लोक-परम्पराओं और मान्यताओं में समानताएं
तलाशते हुए, उन्हें भी विधि-सम्मत एकरूपता में ढालने की जरूरत है. ऐसी तरलता बरती
जाती है तो शायद निजी कानून और मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अदालतों को जिन
कानूनी विसंगतियों और जटिलताओं का सामना करना पड़ता है, वे दूर हो जाएं ?

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