समावेशी विकास हेतु वित्तीय समावेशन आवश्यक है
समावेशी विकास हेतु वित्तीय समावेशन आवश्यक है
समावेशी विकास हेतु वित्तीय समावेशन आवश्यक है
भारत में समावेशी विकास की अवधारणा कोई नई नहीं है. प्राचीन धर्म ग्रन्थों का यदि
अवलोकन करें, तो उनमें भी सभी लोगों को साथ लेकर चलने का ही भाव निहित है―
“सर्वे भवन्तु सुखिनः,
सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,
मा कश्चिदुःखभाग्भवेत् ।।”
उपनिषदों की उपर्युक्त पंक्तियाँ भी सबको साथ लेकर चलने का भाव व्यक्त
करती हैं, लेकिन नब्बे के दशक से उदारीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने से यह
शब्द नए रूप में प्रचलन में आया, क्योंकि उदारीकरण के दौर में वैश्विक अर्थव्यव-
स्थाओं को भी आपस में निकट से जोड़ने का मौका मिला. अब यह अवधारणा देश से
बाहर निकल कर वैश्विक सन्दर्भ में भी प्रासंगिक बन गई है. सरकार द्वारा घोषित
कल्याणकारी योजनाओं में इस समावेशी विकास पर विशेष बल दिया गया और 12वीं
पंचवर्षीय योजना 2012-17 का तो सारा जोर एक प्रकार से त्वरित, समावेशी और
सतत् विकास के लक्ष्य हासिल करने पर है. ताकि 8 प्रतिशत की विकास दर हासिल की
जा सके निःसन्देह यदि विकास की इस दर को हासिल करना है, तो समावेशी विकास
के साथ-साथ वित्तीय समावेशन पर जोर देना होगा.
जहाँ एक ओर समान अवसरों के साथ विकास करना समावेशी विकास है,
वहीं दूसरी ओर समाज के पिछड़े एवं कम आय वाले लोगों को वित्तीय सेवाएं प्रदान
करना वित्तीय समावेशन है.
दूसरे शब्दों में ऐसा विकास, जो न केवल नए आर्थिक अवसरों को पैदा करें, बल्कि
समाज के सभी वर्गों के लिए सृजित ऐसे अवसरों की समान पहुँच को भी सुनिश्चित
करे. हम उस विकास को समावेशी विकास कह सकते हैं, जब यह समाज के सभी
सदस्यों की इसमें भागीदारी और योगदान को सुनिश्चित करता है. विकास की इस प्रक्रिया
का आधार समानता है, जिसमें लोगों की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है.
यह भी उल्लेखनीय है कि समावेशी विकास में जनसंख्या के सभी वर्गों के लिए
बुनियादी सुविधाओं यानि आवास, भोजन, पेयजल, शिक्षा, कौशल, विकास, स्वास्थ्य के
साथ-साथ एक गरिमामय जीवन जीने के लिए आजीविका के साधनों को उपलब्ध भी
कराना है, परन्तु ऐसा करते समय पर्यावरण संरक्षण पर भी हमें पूरी तरह ध्यान देना
आवश्यक है, क्योंकि पर्यावरण की कीमत पर किया गया विकास न तो टिकाऊ होता
है और न समावेशी ही. वस्तुपरक दृष्टि से समावेशी विकास उस स्थिति को इंगित
करता है. जहाँ सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद
की उच्च संवृद्धि दर में परिलक्षित हो तथा आय एवं धन के वितरण की असमानताओं
में कमी आए.
यदि बात करते हैं वित्तीय समावेशन की, तो यह अवधारणा समाज के हर वर्ग
के व्यक्ति, विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर लोगों, तक उपयुक्त वित्तीय उत्पाद
तथा सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रारम्भ की गई एक नीति है. इसमें वित्तीय उत्पाद
तथा सेवाओं को मुख्यधारा की वित्तीय संस्थाओं द्वारा इन्हें यथोचित मूल्य तथा
पारदर्शी तरीके से उपलब्ध करने पर जोर दिया जाता है, यानि ऐसा न हो कि गरीब
वर्ग को वित्तीय सेवाएं उपलब्ध कराने के नाम पर ऐसी वित्तीय संस्थाओं को मौका
दिया जाए, जो इनका अनुचित लाभ उठाएं.
वित्तीय समावेशन या फाइनेंशियल इन्क्लूशन शब्द का आसान भाषा में अर्थ
यह होता है कि समाज के निचले-से-निचले स्तर पर बैठे व्यक्ति को देश की वित्तीय
मुख्यधारा (Financial Mainstream) का हिस्सा बनाया जाए वित्तीय विश्लेषकों के
अनुसार वित्तीय धारा से जोड़ने का सबसे सहज तरीका और पहला कदम होता है
बैंक में खाता खोलना. इसलिए कहा जाता है कि वित्तीय समावेशन का उद्देश्य ही यह
सुनिश्चित करना है कि समाज में रहने वाले हर व्यक्ति का बैंक में खाता हो.
लेकिन जब समाज के सबसे निचले स्तर पर बैठे व्यक्ति को बैंक से जोड़ने की
बात की जाती है, तो यह बात भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि बैंकों से लोगों को जोड़ते
समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि वर्तमान स्थितियों में बैंकों के तामझाम ऐसे
लोगों के मन में डर न पैदा करें. यानि वित्तीय समावेशन नो फ्रिल बैंकिंग (दिखावा
तथा आडम्बर रहित बैंकिंग- प्रणाली अपनाने पर जोर दिया जाता है.
वित्तीय समावेशन का एक और पहलू यह सुनिश्चित करना है कि आम लोगों को
समय पर सस्ता कर्ज मिल सके तथा समाज के निचले तबके के प्रति भी सभी वित्तीय
संस्थान जवाबदेही सुनिश्चित करें
वर्ष 2004 में भारतीय रिजर्व बैंक ने भारत में वित्तीय समावेशन की जाँच करने
के लिए खान आयोग का गठन किया. इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर RBI
ने देश के वाणिज्यिक बैंकों को एक मूलभूत नो-फ्रिल बैंक एकाउण्ट बनाने की अपील की. भारत
में आधिकारिक रूप से वित्तीय समावेशन को एक बैंकिंग नीति के रूप में वर्ष 2004 में के. सी.
चक्रवर्ती समिति की रिपोर्ट के बाद अमल में लाना शुरू किया गया. इसके बाद बैंकों ने निचले स्तर पर रहने
वाले लोगों को ध्यान में रखकर बैंक खाता खोलने की शर्तों को आसान करने की प्रक्रिया शुरू की.
वित्तीय समावेशन की नीति बनाने की आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि भारत की
जनसंख्या का बड़ा हिस्सा कृषि कार्य में संलग्न है और कृषि वर्ग को तमाम
समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है, जैसे ऊँची ब्याज दर, कृषि क्षेत्र में भारी
अनिश्चितता, इस क्षेत्रों में बीमा कवर का अभाव लगातार बढ़ती लागत, महाजनी सूद
का लगातार मजबूत होता शिकंजा आदि. इन समस्याओं के चलते यह वर्ग बैंकिंग क्षेत्र
से भी उसी तरह के दुराग्रह पालने लगता है, जैसे महाजनों तथा अन्य सूदखोर प्रवृत्ति
के लोगों के प्रति उसने पाला था. इसलिए यह आवश्यक है कि वित्तीय क्षेत्र विशेषकर
बैंकिंग के प्रति इस वर्ग के दुराग्रह को दूर किया जाए. इसलिए वित्तीय समावेशन की
नीति के तहत मिचले तथा अभी तक वित्तीय क्षेत्र के प्रति उपेक्षा रखने वाले वर्ग को वित्तीय
धारा से जोड़ने का प्रयास किया गया.
वित्तीय समावेशन पर हाल फिलहाल के समय में केन्द्र सरकार तथा भारत की तमाम
वित्तीय संस्थाओं द्वारा ध्यान दिए जाने का एक प्रमुख कारण यह है कि इनका मानना
है कि “वित्तीय समावेशन ही समावेशी विकास (Inclusive Growth) को प्राप्त
करने का सर्वप्रथम माध्यम है.”
वस्तुतः वित्तीय समावेशन से जुड़े मुख्य तथ्यों को निम्न तरह देखा जा सकता है―
● वित्तीय समावेशन का अर्थ समाज के निचले-से-निचले स्तर पर बैठे वर्ग तक
वित्तीय उत्पादों को तथा सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराना.
● वित्तीय समावेशन में यह ध्यान रखा जाता है कि ऐसा करते समय मुख्यतः
मुख्य धारा की वित्तीय संस्थाओं की ही मदद ली जाए.
● वित्तीय समावेशन का सबसे लोकप्रिय व आसान तरीका बैंक खाता खोलना
माना जाता है.
● वित्तीय समावेशन, समावेशित विकास को प्राप्त करने का सर्वप्रमुख माध्यम
माना जाता है.
● अभी तक भारत में केरल, हिमाचल तथा पुदुचेरी 100% वित्तीय समावेशित प्रशा-
सनिक क्षेत्र घोषित किए जा चुके हैं.
आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश की एक-चौथाई से अधिक आबादी
अभी भी गरीब है. उसे जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. ऐसी स्थिति में
भारत में समावेशी विकास की अवधारणा सही मायने में जमीनी धरातल पर नहीं उतर
पाई है. ऐसा भी नहीं है कि इन 6 दशकों में सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास नहीं किए
गए. केन्द्र तथा राज्य स्तर पर लोगों की गरीबी दूर करने हेतु अनेक कार्यक्रम बने,
परन्तु उचित संचालन के अभाव में इन कार्यक्रमों से आशानुरूप परिणाम नहीं मिले
और कहीं-कहीं तो ये कार्यक्रम पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए. यही नहीं जो
योजनाएं केन्द्र तथा राज्यों के संयुक्त वित्त पोषण से संचालित की जगनी थीं, वे भी कई
राज्यों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने या फिर निहित राजनीतिक स्वार्थों की वजह से
कार्यान्वित नहीं की जा सकीं.
समावेशी विकास ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों के सन्तुलित विकास पर निर्भर
करता है. इसे समावेशी विकास की पहली शर्त के रूप में भी देखा जा सकता है.
वर्तमान में हालांकि मनरेगा जैसी और भी कई रोजगारपरक योजनाएं प्रभावी हैं और कुछ
हद तक लोगों को सहायता भी मिली है, परन्तु इसे आजीविका का स्थायी साधन नहीं कहा
जा सकता, जबकि ग्रामीणों को एक स्थायी तथा दीर्घकालिक रोजगार की जरूरत है.
अब तक का अनुभव यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सिवाय कृषि के अलावा रोजगार के
अन्य वैकल्पिक साधनों का सृजन ही नहीं हो सका, भले ही विगत तीन दशकों में
रोजगार सृजन की कई योजनाएं क्यों न चलाई गई हों. इसके अलावा गाँवों में
ढाँचागत विकास भी उपेक्षित रहा. फलतः गाँवों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन
शहरों की ओर होता रहा. इससे शहरों में मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ती गई तथा
अधिकांश शहर जनसंख्या के बढ़ते दबाव को दहन कर पाने में असमर्थ ही है. यह
कैसी विडम्बना है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली कृषि अर्थव्यवस्था
निरन्तर कमजोर होती गई और गाँव वीरान होते गए, तो दूसरी ओर शहरों में बेतरतीव
शहरीकरण को बल मिला और शहरों में आधारभूत सुविधाएं चरमराई, यहीं नहीं
रोजी-रोटी के अभाव में शहरों में अपराधों की वृद्धि हुई.
वास्तविकता यह है कि भारत का कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहाँ कृषि क्षेत्र से इतर
वैकल्पिक रोजगार के साधन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, परन्तु मूल प्रश्न उन अवसरों
के दोहन का है. सरकार को कृषि में अभिनव प्रयोगों के साथ उत्पादन में वृद्धि
सहित नकदी फसलों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा. यहाँ पंचायती राज संस्थाओं के
साथ जिला स्तर पर कार्यरत् कृषि अनुसन्धान संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती
है, जो किसानों से सम्पर्क कर कृषि उपज बढ़ाने की दिशा में पहल करें तथा उनके
समक्ष आने वाली दिक्कतों का समाधान भी खोजें, तभी कृषि विकास का इंजन बन
सकती है. कृषि के बाद सम्बद्ध राज्यों में मौजूद घरेलू तथा कुटीर उद्योगों के साथ
पर्यटन पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है. सरकार को आर्थिक सुधारों के साथ-
साथ कल्याणकारी योजनाओं, जैसे मनरेगा, सब्सिडी का नकद अन्तरण आदि पर भी
समान रूप से ध्यान देना होगा.
इसी क्रम में वित्तीय समावेशन में उपर्युक्त असमानताओं को दूर करने हेतु
विकास की प्रक्रिया को अधिक समान और समावेशी बनाना होगा, क्षेत्र की दक्षता,
जीवंतता, प्रभावशीलता और वास्तविक अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में वृद्धि होगी.
वित्तीय स्थिति मजबूत बनाने का उद्देश्य पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा है वित्तीय समावेशन
के रूप में, औपचारिक वित्तीय प्रणाली में अपनी बचत लाने के लिए गरीबों को एक
अवसर प्रदान करना भी महत्वपूर्ण है. इस प्रकार इस क्रम में भारत की विकास गाथा
में इन क्षेत्रों को शामिल करने में शीघ-से-शीघ्र ग्रामीण दूरदराज इलाकों में बैंकिंग
सेवाओं का विस्तार करने के लिए आवश्यकता है. ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग और
वित्तीय सेवाओं के प्रावधान में समावेशी विकास के लिए एक सबल होगा.
निष्कर्ष
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यदि भारत को विकसित राष्ट्रों के क्रम में जोड़ना
है, तो भारत में समावेशी विकास के साथ-साथ सतत् विकास (Sustainable Devel-
opment) की अवधारणा के साथ अपने विकास कार्यों को करना होगा, जिसमें वित्तीय
समावेशन एक ड्राइवर की भाँति सहायक सिद्ध हो सकता है. वर्तमान में इस दिशा
में सरकार द्वारा चालित बैंक लिंकेज मॉडल काफी सराहनीय रहा है.
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