सर्वधर्म समभाव भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मेरूदण्ड

सर्वधर्म समभाव भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मेरूदण्ड

          सर्वधर्म समभाव भारतीय सामाजिक व्यवस्था का मेरूदण्ड

“भारत अनेक सम्प्रदायों का देश है, इसलिए जब तक हम एक-दूसरे के विचार
और रहन-सहन का आदर नहीं करेंगे. हम एक विशाल और अखण्ड राष्ट्र का निर्माण
नहीं कर सकेंगे.”
 
    भारतीय समाज में बहुधर्मी व्यवस्था है अर्थात् हमारे यहाँ अनेक धर्मों को मानने
वाले लोग निवास करते हैं, इस लिहाज से सर्वधर्म समभाव एक अत्यन्त महत्वपूर्ण
व्यवस्था है. जिस प्रकार मेरुदण्ड पर सम्पूर्ण शरीर टिका होता है, ठीक उसी
प्रकार सर्वधर्म समभाव, सामाजिक व्यवस्था रूपी शरीर को स्थिरता प्रदान करता है.
भारत की संस्कृति, कर्म और धर्म प्रधान है. धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, सहअस्तित्व एवं
समानता के आधार पर ही कल्याणकारी राज्य का आधार बनता है. सम्पूर्ण जगत् के
तमाम सफल लोकतान्त्रिक राज्यों में धर्म-निरपेक्षता शीर्ष पर है. हमारे देश ने तो
आजादी के पहले ही दिन से सर्वधर्म समभाव रूपी व्यवस्था अर्थात् धर्म-निरपेक्षता
को अपनाया हुआ है. भारतीय संविधान की मूल प्रस्तावना में भारत को एक पंथ-निरपेक्ष
राज्य बताया गया है. समाज में सर्वधर्म एवं समभाव को ही ध्यान में रखकर हमारे
संविधान निर्माताओं ने भारत को धर्म-निरपेक्ष देश होने का गौरव प्रदान किया है. इसी
आधार पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25-28 में सभी व्यक्तियों को धार्मिक
स्वतन्त्रता प्रदान किए गए जाने सम्बन्धी उपबन्धों का उल्लेख किया गया है.
      प्राचीन काल में सर्वधर्म समभाव की नीति मजबूत न होने के कारण सत्ता पर
ब्राह्मणों और क्षत्रियों का प्रभुत्व लम्बे समय तक बना रहा. कर्मकाण्डीय हिन्दू धर्म में
उच्च जातियों के अतिरिक्त सभी जातियों के लिए पहचान का संकट बना रहा.
सल्तनत काल तथा मुगलकाल में राजशाही सत्ता इस्लामी शासकों के हाथ हस्तान्तरित
हुई. मध्यकाल में कई बुद्धिजीवियों और समाज सुधारकों, जैसे-रैदास, कबीर,
नानक इत्यादि द्वारा सर्वधर्म समभाव की नीति अपनाए जाने के कारणं मध्य एवं
निम्न जातियों को अपनी पहचानों को सिद्ध करने का मौका हाथ लगा. बाद में महात्मा
गांधी, डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले इत्यादि और भी कई महान् हस्तियों 
की बदौलत सर्वधर्म समभाव की स्थिति मजबूत हुई. सर्वधर्म समभाव रूपी मेरुदण्ड की 
वजह से ही हमारे देश में धर्म के नाम पर झगड़े अथवा संघर्ष की स्थिति नगण्य ही रही. 
इसका कारण यह रहा है कि भारत में तथाकथित धर्म को सर्वथा व्यक्तिगत वस्तु माना 
गया अर्थात् धर्म को समाज एवं शासन से सदैव दूर रखा गया. हमारे देश के इतिहास को 
खंगालने में एक शासक के तौर पर एकमात्र सम्राट अशोक का उदाहरण मिलता है, 
जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाकर उसका प्रचार-प्रसार किया था, परन्तु इसके बावजूद भी 
इन्होंने शासकीय कार्यों के साथ बौद्ध धर्म को कभी सम्बद्ध नहीं किया और न ही कभी किसी 
को बौद्ध धर्म स्वीकार करने के लिए विवश किया.
          हमारे देश में भिन्न-भिन्न तरह की विषमताएं होने के बावजूद भी ‘अनेकता में
एकता-राष्ट्रीय एकता की मिशाल पेश की जाती है. यहाँ पर विभिन्न धर्म, जाति,
समुदाय, भाषा इत्यादि के लोग निवास करते हैं. इन अनेकताओं में सामंजस्य स्थापित
करते हुए जीवन-यापन करना सामाजिक न्याय, सुशासन एवं मानवाधिकार संरक्षण
की श्रेणी में आता है, भारत में मानव धर्म ही सर्वोपरि है. भारतीय संविधान में भी सभी
को समानता का अधिकार प्राप्त है. गांधीजी का सपना ‘भारत की सर्वोन्मुखी उन्नति’ का
था, उनके सपने में ऐसे भारत की कल्पना थी, जिसमें सादगी, अहिंसा, श्रम की
पवित्रता, मानवीय मूल्य, भाईचारा, सद्भाव, नैतिकता, आदर्शवाद इत्यादि सम्मिलित थे,
परन्तु आजाद भारत में दुषित राजनीति का ग्रहण इस तरह लगा कि वोट बैंक की
दूषित मानसिकता के चलते समाज में मौजूद कुशाग्र बुद्धि के कई लोग भ्रष्टाचार, भेदभाव,
पक्षपात, अराजकता, वैमनस्यता, घृणा एवं अनैतिकता जैसे हथियारों का इस्तेमाल करते
हुए जाने अनजाने सामाजिक न्याय एवं सुशासन की ढाल को कमजोर करने में लगे
हुए हैं. अतः स्पष्ट है कि भारत देश में  अनेक अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक लोग
निवास करते हैं और अक्सर इनके बीच में ही धर्म को लेकर तरह-तरह के विवाद
उत्पन्न होते हैं, इन्हीं विवादों को साम्प्र- दायिकता की संज्ञा दी जाती है. इसके
बावजूद भी सर्वधर्म समभाव के कारण समाज में एकता बनी हुई है.
          भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है, किन्तु तुष्टीकरण की राजनीति ने धर्म अथवा
सम्प्रदाय को विशेष रूप से प्रभावित किया हुआ है. एक तरफ तो धर्म, प्रभाव एवं
शक्ति अर्जित करने का माध्यम है, तो वहीं दूसरी ओर इसके द्वारा राजनीति में तनाव
पैदा होता है और चुनाव के लिए वोट बटोरे जाते हैं. वर्तमान समय में धर्म एवं जाति तो
राजनीतिक दलों के निर्माण का आधार बन चुके हैं. यही वजह है कि चुनाव के समय
राजनीतिक दलों को धर्म या सम्प्रदायों के समर्थन की आवश्यकता होती है और
राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव में धर्म, जाति व सम्प्रदाय के समीकरण के हिसाब से ही
किसी नेता का टिकट दिया जाता है.
         धर्म निरपेक्षता को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि समाज में राज्य सभी
धर्मों से एकसमान दूरी बनाए रखे और लौकिकता का प्रचार-प्रसार हो. धर्म निरपेक्ष
तत्वों का शिक्षा में समावेश एवं प्रजातान्त्रिक मूल्यों का विकास हो. सर्वधर्म समभाव का
ही कमाल है कि आज हमारा देश कई भिन्नताएं होते हुए भी समूचे जगत् में
राष्ट्रीय एकता की मिशाल बना हुआ है अर्थात् राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से हमारा
स्थान सर्वोपरि है. हमारे देश में हर व्यक्ति सर्वधर्म व समभाव के लिए स्वतन्त्र है, वह
अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म का अनुयायी हो सकता है, संवैधानिक व्यवस्था
के अनुसार शासन की दृष्टि में समस्त धर्म समान हैं और शासन किसी भी मत,
सम्प्रदाय व धर्म इत्यादि द्वारा प्रभावित नहीं होता है.
        सर्वधर्म समभाव से साम्प्रदायिकता रूपी सामाजिक बुराई के प्रभाव को कम किया
जा सकता है या छुटकारा पाया जा सकता है. वैसे तो भारत में साम्प्रदायिकता का
उद्भव एवं विकास ब्रिटिश शासन की नीतियों एवं कार्यक्रमों के फलस्वरूप ही
हुआ. साम्प्रदायिकता का उदय आधुनिक राजनीति के उदय के साथ जुड़ा हुआ है.
राष्ट्रीयतावाद तथा समाजवाद जैसी विचार-धाराओं की तरह ही राजनीतिक विचारधारा
के रूप में साम्प्रदायिकता का विकास उस समय हुआ, जब जनता की भागीदारी,
जनजागरण तथा जनमत के आधार पर चलने वाली राजनीति अपने पाँच जमा चुकी
थी. आधुनिक भारत में साम्प्रदायिकता के विकास के लिए ब्रिटिश शासन तथा ‘फूट
डालो और राज करो’ की नीति विशेष रूप से जिम्मेदार मानी जा सकती है,
स्वतन्त्रता के उपरान्त राष्ट्रीय नेतृत्व ने भारत को एक ऐसे आदर्श राज्य के रूप में देखने का
प्रयास किया, जहाँ जाति, धर्म, पंथ, क्षेत्र आदि के आधार पर भेदभाव न होकर समानता 
अर्थात् सर्वधर्म समभाव रूपी अवस्था प्रतिष्ठित हो. इन विचारों को भारतीय संविधान में 
देखा जा सकता है, जो भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, 
लोकतान्त्रिक गणराज्य के रूप में घोषित करता है धर्म-निरपेक्ष राज्य का यह आशय 
है कि भारत का कोई राज धर्म नहीं है और सरकार द्वारा नागरिकों के मध्य धर्म के 
आधार पर किसी प्रकार का विभेद नहीं किया जाएगा. सभी नागरिकों को किसी धर्म 
के पालन, प्रचार और प्रसार की स्वतन्त्रता प्राप्त होगी. सभी धर्मावलम्बियों को अपनी 
रुचि की धार्मिक संस्थाएं स्थापित करने और उनके प्रबन्ध का अधिकार होगा.
          वर्तमान दौर में अब सभी दलों को वोट की राजनीति और साम्प्रदायिक सौहार्द्र
से ऊपर उठकर सर्वधर्म और समभाव की कड़ी को मजबूत करते हुए देश के समक्ष
उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर उनका हल खोज़ना चाहिए और विकास को ध्यान में
रखकर योजना निर्माण और उनका कार्यान्वयन करना चाहिए. वास्तव में इसके
लिए कल्पनाशील व संवेदनशील नेतृत्व की आवश्यकता बनी हुई है, यह तभी सम्भव है
जब भारत जैसे विकासशील देश में सभी दलों के नेता अध्ययनशील व चिन्तनशील
भी हों तथा धर्म, भाषा, जाति व सम्प्रदाय को महत्व न देकर वे जातिगत वोट बैंक से
अपना ध्यान हटाकर, सुशासन स्थापित करने तथा जरूरतमंदों की मूलभूत
आवश्यकताओं की पूर्ति करने व विकास की नि स्वास्थ राजनीति करने के विचार से
राजनीतिक मैदान के दंगल में उतरें.
        दूषित राजनीति के चलते ही हाल के चुनावों में कई राजनेताओं द्वारा अपनी
स्वार्थसिद्धि के उद्देश्य से जाति और धर्म को वोट की राजनीति से जोड़ा जाता रहा
है. अधिकांश राजनीतिक दल मूल मुद्दों से भटक कर जाति, धर्म व आरक्षण के नाम
पर विशेष अवसर तथा कार्यक्रमों की मदद से समाज में तुष्टीकरण को बढ़ावा देने में
प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. क्षेत्रीयता और भाषाई दबाव समूह ने देश में अस्थिरता की स्थिति
पैदा कर दी है. आज भी सर्वधर्म समभाव की नीति इन विषम स्थितियों को सँभालने
में सक्षम है. हमारे देश में सर्वधर्म समभाव के कारण ही राष्ट्रीयता की स्थिति अधिक
मजबूत है और अधिकांश व्यक्तियों की सर्वोपरि कर्तव्यनिष्ठा राष्ट्र के प्रति अनुभव
की जाती है.
राष्ट्रीयता की भावना समस्त जनमानस को आपसी भेदभाव भुलाकर
राष्ट्रीय हित में मिलकर रहने की प्रेरणा देती है. राष्ट्रीयता में वह गुण होता है, जिसमें
व्यक्ति राष्ट्र की भौगोलिक, जातीय, भाषाई, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक
एकता के प्रति व्यक्तिगत रूप से कर्तव्यनिष्ठ रहते हुए आध्यात्मिकता की भाँति अलौकिक
समर्पण भाव रखता है. वास्तव में सर्वधर्म समभाव भारतीय सामाजिक व्यवस्था का
मेरुदण्ड है. समस्त धर्मों से मनुष्य को मौलिक सिद्धान्तों और मान्यताएं सीखने की
शिक्षा मिलती है।
         संविधान निर्माताओं की भी यही इच्छा थी कि भारत सर्वदा धर्म-निरपेक्ष देश बना
रहे और यहाँ सर्वधर्म समभाव विद्यमान रहे, तो निश्चित ही भारत की अनेकता में एकता
बनी रहेगी, परन्तु अभी आधुनिक दौर में ‘साम्प्रदायिकता शब्द प्रचलन बहुत
अधिक बढ़ चुका है, जिसका इस्तेमाल वोट बैंक के लिए लगभग सभी राजनीतिक दलों
द्वारा किया जा रहा है. अब तो किसी धर्म व मजहब में गहरी आस्था रखने को ही
‘साम्प्रदायिकता’ समझने की भूल की जाने लगी है, जबकि धर्म की आजादी तो प्रत्येक
मनुष्य का मौलिक अधिकार है, परन्तु यह कहना बिलकुल भी गलत नहीं होगा कि
जब-जब साम्प्रदायिकता रूपी दंगे भडकते हैं, तो सर्वधर्म समभाव’ रूपी हथियार ही
कारगर साबित होता नजर आया है, इन्हीं तथ्यों के आधार पर प्रसिद्ध लेखक एवं
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने इण्डिया आफ्टर गांधी में लिखा है कि ‘भारतीय राष्ट्र राज्य
में अनेक राष्ट्रीयताओं वाली विविधताओं के बावजूद इसका एक हिन्दुस्तान के रूप
में अखण्ड बने रहना आश्चर्यजनक है और विदेशी विद्वानों के लिए एक पहेली भी.”
         सर्वधर्म समभाव सामाजिक न्याय को मजबूत करने के लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी
है. सामाजिक न्याय समानता का ही एक पहलू है. यह भी सच है कि हमारे समाज में
वर्ण-व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था के कारण कुछ वर्ग और समुदाय भेदभाव, अस्पृश्यता.
दमन, शोषण और निर्योग्यताओं का शिकार रहे है और आज भी हैं. इसके बावजूद भी
सर्वधर्म समभाव की नीति ने सामाजिक व्यवस्था की सुचारु रूप से में अपना महत्वपूर्ण
योगदान दिया है, सर्वधर्म समभाव की नीति में अभी भी कई सुधार करने की आवश्यकता है.
समस्त धर्म निरपेक्ष ताकतों को एकजुट होकर, साम्प्रदायिकता को जड़ से उखाड़ फेंकने का
सामूहिक एवं प्रयास करने की जरूरत है. वसुधैव कुटुम्बकम जैसे पवित्र वाक्य पर खरा
उतरने की आवश्यकता है. साथ ही हमारे राजनेताओं को भी वोट बैंक की राजनीति
से ऊपर उठकर धर्म को राजनीति से अलग कर देखते हुए तथा नैतिक पक्ष को
मजबूत करते हुए सर्वधर्म समभाव की नीति का कड़ाई से पालन करने की ओर अग्रसर
होना चाहिए.
        यह सच है कि सर्वधर्म समभाव की नीति हमारी सामाजिक व्यवस्था में मेरुदण्ड
का काम कर रही है, परन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसके विपरीत वोट बैंक
की ललक के कारण बड़े-बड़े राजनेता हमारे देश में धर्म की आड़ लेते हुए समय-
समय पर साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने से नहीं चूकते हैं. धर्म-निरपेक्षता, समाजवाद,
अल्पसंख्यक एवं भाषाई राज्य जैसे शब्दों को तो अब अलगाववादी एवं विघटनकारी
शब्दों का पर्यायवाची माना जाने लगा है, यह भी सच है कि भारत की भौगोलिक एवं
सांस्कृतिक विभिन्नता के कारण स्वजाति केन्द्रवाद के आधार पर एक क्षेत्र विशेष के
लोग अन्य क्षेत्रों से अपने को सांस्कृतिक आधार पर विशिष्ट समझते हैं, परन्तु दूसरी
ओर इस बात को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि सर्वधर्म समभाव की नीति ने
भारतीय समाज में क्षेत्रवाद, भाषाई जातिवाद इत्यादि विविधताओं को दरकिनार करते हुए
राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को बनाए रखा है. वास्तव में सर्वधर्म समभाव भारतीय
सामाजिक व्यवस्था का मेरुदण्ड है. 

Amazon Today Best Offer… all product 25 % Discount…Click Now>>>>

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *