सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक, सब जगह, समान मानक

सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक, सब जगह, समान मानक

       सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक, सब जगह, समान मानक

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, समाज में रहना उसका स्वभाव है. अपने इस
स्वभाव को मनुष्य अनेकविध समुदाय बनाकर प्रकट करता है. अपनी इस प्रकृति
के कारण ही मनुष्य अपने साथी अन्य मनुष्यों के साथ अनेकविध सम्बन्ध स्थापित
करता है. ये सम्बन्ध मनुष्य की क्रियाओं को अनेक प्रकार से नियन्त्रित व मर्यादित करते
हैं. दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लेने के कारण वह न तो पूर्णतया
स्वच्छन्द हो सकता है और न ही उच्छृखल. समुदाय का अंग होने के कारण मनुष्यों को
एक निश्चित व्यवस्था का अनुसरण करना होता है, एक निश्चित मर्यादा में रहना पड़ता
है. दूसरों के साथ सम्बन्ध होने के कारण ही मनुष्यों को यह सोचना पड़ता है कि
उनके कौनसे व्यवहार उचित हैं और कौनसे अनुचित हैं. मनुष्यों के जीवन में एक दूसरे
के साथ सम्बन्धों का जो जाल-सा बिछा हुआ है, समाजशास्त्र में उसी को ‘समाज’
कहा जाता है. समाज एक सम्पूर्ण शरीर है और हम सब उसके अंग-अवयव हैं. जिस
प्रकार शरीर का अस्तित्व अंगों के सहयोग पर निर्भर है, उसी प्रकार सम्पूर्ण शरीर की
सहायता से अंग और अवयव भी स्वस्थ रहते हैं. यह दोनों अन्योन्याश्रित हैं.
पारस्परिक सहयोग के अभाव में इन दोनों का ही अस्तित्व शंका में पड़ जाएगा. व्यक्ति
का समाज के प्रति वही दायित्व है, जो अंगों का सम्पूर्ण शरीर के प्रति सुखी, सम्पन्न
और विचारशील समाज का निर्माण तभी हो सकता है, जब उसके सदस्य संकीर्ण
व्यक्तिवाद को छोड़कर व्यष्टिवाद के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाते हैं. समाज में
जब तक पारस्परिक सहयोग, सहानुभूति, सौजन्य, त्याग, सेवा और संगठन की भावना
का आविर्भाव नहीं होता, उसका सामूहिक विकास नहीं होता.
              समाज में परिवर्तन एवं उत्थान एक शाश्वत प्रक्रिया है. दुनियां में शायद ही ऐसा
कोई समाज हो, जो इस परिवर्तन से अछूता रहा हो. जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यह
सर्वविदित है कि उसके राजनीतिक इतिहास के आरम्भ से बहुत पहले ही सामाजिक
इतिहास का आरम्भ हो चुका था. कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में सामाजिक
व्यवस्था के उदय का इतिहास कम से कम चार हजार वर्ष पुराना है और समय के साथ 
इसका तमाम परिवर्तनों से साक्षात्कार हुआ, लेकिन आजादी के बाद देश की विभिन्न आर्थिक, राजनीतिक परिस्थतियों ने सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह से बदल डाला.
          दरअसल, साठ साल के बाद का भारत कृषि और औद्योगिक क्रान्ति के प्रत्यक्ष
दिग्दर्शन से उभरा हुआ भारत है, जो अपने औपनिवेशिक चोले को लगभग त्याग चुका
है. दूसरे शब्दों में कहें तो भारत का वर्तमान स्वरूप उस नए मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व
करता है, जिसने कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, उद्योग जैसे विभिन्न क्षेत्रों में नए
मूल्यों और मानकों की स्थापना करके पूरे विश्व में भारत का मान बढ़ाया है. इसके
अलावा भारत में शिक्षा के क्षेत्र में आए क्रान्तिकारी बदलाव ने जिस शिक्षित वर्ग को
जन्म दिया है, उसका चरित्र, उसकी आकांक्षाएं, उसके लक्ष्य और समाज में
उसकी भूमिका उस मध्यम वर्ग से बिल्कुल भिन्न है, जिसका जन्म ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली
में हुआ. इस नए समाज का एक और महत्वपूर्ण पहलू है-गाँव और शहर के बीच
की दूरी को कम करना. गाँव से शहरों की ओर एक बड़े वर्ग के विस्थापन ने जहाँ
शहरी लोगों के बीच ग्रामीण सभ्यता और संस्कृति का प्रसार किया है, वहीं गाँवों में
भी शहरी जीवन शैली का काफी मात्रा में प्रवेश हुआ है.
            आजादी के पश्चात् भारत के विभिन्न प्रदेशों, समुदायों, वर्गों जातियों, धर्मावलम्बियों
के जीवन में जो परिवर्तन हुए है, उसका मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है. कारण,
देश की प्रगति की राष्ट्रीय औसत आमदनी, विकास दर और सामाजिक आँकड़ों के
आधार पर आँकने से जो तस्वीर उभरती है, वह उस तस्वीर से भिन्न है, जो क्षेत्रीय
विशिष्टताओं और विविधताओं का पूरा-पूरा जायजा लेने से उभरती है. इसके अलावा,
सामाजिक स्थिति के तुलनात्मक अध्ययन से भी सामाजिक बदलाव की दशा और दिशा
को जानने में मदद मिलती है. इस दृष्टि से विचार करने पर हमारे सामने भारत की एक
ऐसी तस्वीर उभरकर सामने आती है, जो कई अन्तर्विरोधों से भरी है. एक ओर केरल
जैसे प्रदेश हैं, जिन्होंने बच्चों की मृत्युदर, शिशु जन्मदर, निरक्षरता निवारण, प्रारम्भिक
शिक्षा जैसे सभी सामाजिक विकास के मुद्दों की दृष्टि से अभूतपूर्व प्रगति की है.
वहीं दूसरी ओर बिहार जैसे राज्य हैं, जो सामाजिक विकास की दृष्टि से अभी भी
बहुत पीछे हैं. सामाजिक विकास की इस भिन्नता को समाप्त करके एकरूपता लाने
का कार्य सम्पादित करने हेतु दृढ इच्छा-शक्ति की महती आवश्यकता है.
            सिर्फ परम्परागत और प्रत्यक्ष तौर पर विकास का वास्तविक रेखाचित्र नहीं खींचा
जा सकता, बल्कि आज उन स्तरों पर भी इसकी परख जरूरी है, जो वैश्विक संगठनों
द्वारा आधार बनाए गए हैं. इनमें शिक्षा, रोजगार, बाल श्रम, स्त्री-पुरुष समानता
जैसे कुछ मुद्दों को विकास के मानक के रूप में तय किया गया है. यदि हम इन
मानकों के आधार पर भारत के नए समाज का मूल्यांकन करते हैं, तो आदर्श और
वास्तविक स्थिति में बहुत बड़ा फासला दिखता है. पारिवारिक विघटन, पुराने
रोजगारों के ह्रास और नए रोजगारों की तलाश में विस्थापन की समस्या आज एक
बड़ी समस्या बन गई है. यही नहीं, देश में जातीयता और साम्प्रदायिकता के उभार भी
नए सामाजिक परिदृश्य के अभिन्न अंग हैं. इसके पीछे प्रमुख कारण आर्थिक है. भारत
में लोग समूह बनाकर चलते हैं और जाति को महत्व दिया जाता है. विकास की गति
मन्द होने की वजह से जो असन्तुलन और विषमता बढ़ी है, उसने जातीयता और
साम्प्रदायिकता के प्रसार में मदद की है अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के साथ-साथ तमाम
नैतिक मूल्यों एवं परम्परागत मान्यताओं में भी परिवर्तन और संवर्धन की आवश्यकता
है, परन्तु यहाँ ऐसा नहीं हो पाया, जिसकी वजह से आज नैतिक शून्यता की स्थिति
उत्पन्न हो गई है. इस नैतिक शून्यता की स्थिति ने तमाम तरह के संकटों को भी
जन्म दिया है.
          भारतीय समाज में स्वाधीनता की उपलब्धि के तौर पर यदि कुछ बातों को
लिया जा सकता है, तो उनमें से एक है, दलितों के भीतर राजनीतिक चेतना एवं
अधिकारों के प्रति संघर्ष की क्षमता का विकास. सदियों से अन्याय, शोषण और
उत्पीडन के शिकार रहे लोगों में इस समस्या को मानव प्रदत्त समझने की चेतना
का जागना ही एक बड़ी उपलब्धि है. दलित चेतना के अलावा उभरते हुए नए समाज की
एक अन्य प्रेरक शक्ति है-नारी जागरण, मानवता के आधे हिस्से पर सदियों से
प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पुरुष प्रधान समाज द्वारा किए गए उत्पीड़न के विरुद्ध
नारी समाज द्वारा किए गए प्रतिरोध का परिणाम है-नारी जागरण. इन दोनों वर्गों के
भीतर जगी इस चेतना में ही नए समाज के पुनर्गठन की सम्भावना देखी जा रही है.
आज एक बहुत बड़ा प्रश्न यह है कि भारतीय समाज की दिशा क्या होगी और
उसमें जो तमाम कमियाँ या विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हैं, उनका निराकरण कैसे
होगा? भारत में नवजागरण और साम्राज्य विरोधी आन्दोलन जिन मूल्यों, आदर्शों और
विचारों पर आधारित था, उन्होंने देश के युवा वर्ग पर पुनरुत्थानवादी विचारों को
हावी नहीं होने दिया, लेकिन इधर कुछ वर्षों में नैतिक हास, चारित्रिक विघटन और
लक्ष्यहीनता के कारण जो संकट की स्थिति पैदा हुई है, उस नैतिक शून्य की स्थिति में
पुनरुत्थानवाद को युवा मानव पर फिर से प्रभाव जमाने का मौका मिला है. ऐसी
स्थिति में युवा वर्ग को राष्ट्र के निर्माण में तथा सामाजिक उत्थान के कार्य में अपनी
भूमिका किस रूप में तय करनी है, यह उसके ऊपर बहुत बड़ा दायित्व है
         अंततः यह कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में जो भी परिवर्तन हुए हैं
या हो रहे हैं, उनकी गति एवं दिशाओं में पर्याप्त विविधता है. एक ओर जीवन के
विभिन्न रूपों में आधुनिकता का पूरा प्रभाव है, तो दूसरी ओर तमाम ऐसी परम्पराओं का
भी अनुपालन हो रहा है, जिनकी वर्तमान युग में कोई प्रासंगिकता नहीं है. परिवर्तन
कई क्षेत्रों में काफी उत्साहवर्धक रहे हैं, जैसे-आर्थिक एवं राजनीतिक, लेकिन तमाम
परम्परागत आदर्शों और कर्तव्यों को लोग आधुनिकता की चकाचौंध में भुला बैठे हैं,
जिससे सम्पूर्ण समाज के निर्माण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है. एक सम्पूर्ण समाज में परिवर्तन
जितना आवश्यक है, उससे कहीं अधिक समाज के लोगों को स्वस्थ एवं सचेत
मानसिकता के साथ व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति को त्यागकर समष्टिवाद के बारे में सोचना
अपरिहार्य है. एक ऐसे समाज के निर्माण की आवश्यकता है, जिसमें सभी वर्ग, जाति,
सम्प्रदाय के लोग एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर सभी के समान उत्थान की भावना
को मूर्तरूप प्रदान कर सकें स्वस्थ एवं सभ्य समाज का निर्माण तभी हो सकता है.

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