सार्वजनिक जीवन में नैतिकता

सार्वजनिक जीवन में नैतिकता

                           सार्वजनिक जीवन में नैतिकता

नैतिकता मानक नियमो का एक सवर्ग है, जिसे समाज अपने ही ऊपर लागू करता
है और जो व्यवहार, विकल्पों और कार्रवाइयों के मार्गदर्शन में सहायता करता है मानक
नियम अपने आप में नैतिक व्यवहार को सुनिश्चित नहीं करते, जिसे एक ईमानदार
संस्कृति की सख्त जरूरत है. मानक नियमों के रूप में नैतिक व्यवहार का मर्म जोरदार
शब्दों और अभिव्यक्तियों में नहीं होता, बल्कि उस पर कार्रवाई किए जाने में, उल्लघन के
लिए दण्ड देने में, उल्लंघन के आरोपों को छानबीन करने के लिए सक्षम अनुशासनिक
अधिकारियों के हवाले करने में और शास्तियों को तुरन्त लागू करने में तथा एक ईमानदार
संस्कृति विकसित करने में होता है.
        नैतिकता की नीव उत्तरदायित्व और जवाबदेही की धारणा में रखी जाती है
लोकतंत्र में सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्तियों को अततोगत्वा जनता को जवाब
देना होता है ऐसी जवाबदेही को कानून और नियमों की व्यवस्था से प्रभावी किया
जाता है जिसे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि अपने कानूनों द्वारा अधिनियमित करते हैं
नैतिकता ऐसे कानून और नियमों के निर्माण में एक आधार प्रदान करती है यह लोगों
के आदर्श विचार ही होते हैं जो कानून और नियमों को जन्म देकर उनका चरित्र निर्माण
करते हैं हमारी कानूनी व्यवस्था अच्छाई और न्याय की साझा दृष्टि से नि सृत होती है.
          लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धान्त यह है कि सत्ता को धारण करने वाले सभी व्यक्ति
इसे लोगो से प्राप्त करते हैं दूसरे शब्दों में, सभी सार्वजनिक पदों पर आसीन व्यक्ति
जनता के प्रति जवाबदेह है सरकारी भूमिका में वृद्धि से सार्वजनिक पद पर बने लोग
जन-जीवन पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं जनता और राज्य सेवकों के बीच में जवाबदेही का
सम्बन्ध यह अपेक्षा करता है कि अधिकारियों को सौंपे गए अधिकारों का प्रयोग लोगों की
सर्वोत्तम भलाई या ‘जन हित में किया जाना चाहिए.
        सार्वजनिक जीवन में नैतिकता की भूमिका के अनेक पक्ष हैं एक तरफ उच्च
आचार के मूल्यों की अभिव्यक्ति है, और दूसरी ओर कार्रवाई की सुनिश्चितता से है
जिसके लिए सार्वजनिक अधिकारी को वैधानिक रूप से जवाबदेह ठहराया जा
सकता है. नैतिक व्यवहार के किसी भी ढाँचे में अग्रलिखित तत्वों को अवश्य शामिल
किया जाना चाहिए―
● नैतिक प्रतिमानक और व्यवहारों को संहिताबद्ध करना
● जन हित और व्यक्तिगत लाभ के बीच संघर्ष से बचने के लिए व्यक्तिगत
रुचि को अभिव्यक्त करना.
● सारभूत संहिताओं को प्रभावी बनाने के लिए व्यवस्था की रचना करना.
● किसी सार्वजनिक अधिकारी को अपने पद पर योग्य या अयोग्य करार दिए
जाने के लिए प्रतिमानक प्रदान करना.
      कानूनों और नियमों की व्यवस्था, चाहे जितनी भी विस्तृत क्यों न हो, वह सभी
स्थितियों का समाधान नहीं हो सकती. निस्संदेह, यह अपेक्षित होता है और शायद
सम्भव भी हो कि उन लोगों के आचरण पर नियंत्रण किए जाएं जो निचले तबके के हैं
और एक सीमा में अपने विवेक का प्रयोग करते हैं, लेकिन सार्वजनिक सेवा में यह
तबका जितना ऊँचा होगा, उतनी ही विवेक की परिधि बड़ी होगी, कानूनों और नियमों
की एक ऐसी व्यवस्था का उपबंध करना कठिन है जिसमें ऊँचे पदों पर विवेक के
प्रयोग को बृहत् रूप से शामिल करके उस पर नियंत्रण किया जा सके.
            सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों के लिए नैतिक मानदण्ड क्या होने चाहिए, इस
पर अत्यधिक बृहत् वक्तव्यों में से एक, संयुक्त राज्य अमरीका में लोक जीवन में
प्रतिमानकों पर समिति से आया था जो नोलन समिति के नाम से लोकप्रिय था,
जिसमें सार्वजनिक जीवन के निम्नलिखित सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया―
निःस्वार्थनिष्ठता-सरल रूप में इसका अर्थ यह है कि सार्वजनिक पदाधि-
कारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपना आचरण इस तरह से करें
कि उनके स्वयं के हित के स्थान पर जन हित को सामने रख कर काम
करने की भावना उत्पन्न हो सके.
 
सत्यनिष्ठा–सार्वजनिक प्राधिकारी को सरकारी कर्तव्यों से सम्बन्धित मामलों
में बाहरी दबावों से स्वयं को अलग रखना चाहिए. सार्वजनिक पद पर बैठे
लोगों को बाहर के ऐसे व्यक्तियों या संगठनों के साथ वित्तीय या अन्य
बाध्यतावश अपने को लिप्त नहीं करना चाहिए जो उनके सरकारी कार्य-
निष्पादन को प्रभावित करे.
 
विषयनिष्ठा―सार्वजनिक पदाधिकारियों के कर्तव्यों में निर्णय लेने का प्राधिकार
निहित होता है जिसमें नियुक्तियाँ करना, ठेके देना, लाभों का वितरण
करना आदि शामिल होते हैं. चयनों को योग्यता के आधार पर करने के अलावा
किसी अन्य मापदण्ड की अनुमति नहीं दी जा सकती है. निर्णयों को उन
कारणों पर आधारित होना चाहिए जो मन-मर्जी से मुक्त हों. कार्यपालिका,
न्यायपालिका की पुस्तक से प्रत्येक कार्रवाई के लिए स्व-प्रेरणा से कारण
दिए जाने के लिए उद्धरण ले सकती है. कारणों को लेखबद्ध करने की
आवश्यकता ही स्वयं में बड़ा सुरक्षण है जो निर्णय निर्माताओं को व्यक्तिनिष्ठ
होने से रोकता है.
 
जवाबदेही-कोई भी सार्वजनिक पद एक विश्वास का पद होता है, अतः
कोई सार्वजनिक पदाधिकारी, शासन के किसी काम को करते हुए, जिसमें
विधान मण्डल के सदस्य भी शामिल होते हैं, उस पद पर रहते हुए किए
गए कार्यों के निष्पादन में सभी कार्रवाइयों के लिए जवाबदेही होता है,
इससे यह बात स्वाभाविक रूप से निकलती है कि किसी भी कृत्य या
अकृत्य की छानबीन की जाती है, चाहे वह आन्तरिक लेखा परीक्षा या बाह्य
लेखा परीक्षा व्यवस्था से की जाए. यहाँ पर ‘लेखा परीक्षा’ शब्द का प्रयोग
खातों की लेखा परीक्षा के संकुचित अर्थ में नहीं बल्कि शासन की प्रत्येक
कार्रवाई के कारणों और परिणामों के मूल्यांकन की दृष्टि से किया गया है.
 
पारदर्शिता–सूर्य के प्रकाश से अधिक बेहतर कोई रोगाणुनाशक नहीं हो
सकता. पारदर्शिता प्रत्येक सरकारी कृत्यों का मंत्र होना चाहिए.
न्यायपालिका अपनी कार्रवाइयों को खुले में आयोजित करके इस बात को
ईमानदारी से अपनाती है. पारदर्शिता से जाँच भी सहज रूप में हो जाती है.
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 ने भारत में प्रशासनिक ढाँचे को
वास्तव में सही में ला दिया है इससे पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है.
 
ईमानदारी सरकारी पदधारी व्यक्तियों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सरकारी
काम से सम्बन्धित निजी हितों की घोषणा करें और ऐसे किसी विरोध के
समाधान के लिए कदम उठाएं जो उन हितों की रक्षा करने में आड़े आता हो,
यह ईमानदारी की अवधारणा की एक विडम्बना ही होगी, यदि कोई प्रशासनिक
प्राधिकारी ऐसे मामलों में निर्णय लेता हो, जिनमें उन लोगों के निजी हित लिप्त
होते हों, जो प्राधिकारी से निकटता से जुड़े हुए हों इस विचार से यह आवश्यक
है कि सार्वजनिक पदाधिकारियों को अपने निजी हितों की घोषणा करने के
लिए बाध्य किया जाए ताकि उन्हें हमेशा उस समय जवाबदेह ठहराया जा सके
जब उनके सार्वजनिक कर्तव्य में लिप्त कोई द्वंद्व हो रहा हो. इसका यह भी
अर्थ है कि सार्वजनिक पदाधिकारियों की सम्पत्तियों और दायित्व के ब्यौरे
जनता की जानकारी में हों. सार्वजनिक पद ग्रहण करते समय और उसके बाद
समय-समय पर अनिवार्य घोषणाएं करने से उस प्रकार की ईमानदारी सुनिश्चित
हो सकेगी जो हम लाना चाहते हैं.
 
नेतृत्व–एक सच्चा नेता हमेशा अपने ही अनुभव से चलता है. यदि नेता
ईमानदार है. निष्कपट है, उसे जो काम दिया गया है. उसके प्रति वह वचनबद्ध
है, तो जिस व्यवस्था पर उसका नियंत्रण है, उसे साफ-सुथरा करने में जो वाता-
वरण बनेगा, वह लोक पदाधिकारियों के पदानुक्रम को भी धीरे-धीरे साफ
सुथरा कर देगा.
 
● सरकारी पदाधिकारियों को अपने नेतृत्व द्वारा और एक मिसाल पेश करते हुए
इन सिद्धान्तों को विकसित करना और इनका समर्थन करना चाहिए.
 
● प्रत्येक लोकतंत्र में सार्वजनिक जीवन के ये सिद्धान्त सामान्य व्यवहार्यता के
सिद्धान्त होते हैं. ऐसे ही नैतिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए सरकारी पदाधि-
कारियों के लिए एक आचार संहिता की प्रवृत्ति लिए हुए लोक व्यवहार के
मार्गदर्शी सिद्धान्तों का एक सेट बनाना आवश्यक हो गया है. वास्तव में, ऐसा
कोई भी व्यक्ति जिसे लोगों की बागडोर के मार्गदर्शन करने का विशेषाधिकार
प्राप्त हुआ हो, उसे केवल नैतिक ही नहीं होना चाहिए बल्कि उसे ऐसे
नैतिक मूल्यों को व्यवहार में भी लाना चाहिए. यद्यपि, सभी नागरिक देश के
कानूनों के साथ बाधित हैं, लोक सेवकों के मामले में, व्यवहार के प्रतिमानकों
को साधारण नागरिक की अपेक्षा अधिक कड़ा होना चाहिए. यह सरकारी
कार्रवाई और निजी हित के मध्य एक समन्वय है, जिसके कारण नैतिक
संहिता ही नहीं, बल्कि आचार संहिता की भी आवश्यकता है. नैतिक संहिता में
सद्व्यवहार और शासन के मुख्य मुख्य मार्गदर्शी सिद्धान्त शामिल होंगे, जबकि
और अधिक विशिष्ट आचार संहिता में संक्षिप्त और सुस्पष्ट तरीकों से स्वीकृत
और अस्वीकृत व्यवहारों और कार्रवाई की सूचना का उल्लेख होगा.

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