स्वतंत्रता के दायित्व को समझना

स्वतंत्रता के दायित्व को समझना

                             स्वतंत्रता के दायित्व को समझना

लगभग 60 वर्ष पहले की बात आधुनिक युग के मूर्धन्य चिंतक श्री जे. कृष्णमूर्ति द्वारा संचालित 12 वर्षीय छात्रा ने निवेदन किया, “मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं अपने द्वारा परिकल्पित स्वतंत्रता को उपभोग करती हुई जीवन व्यतीत करूँ मैं किसी प्रकार के भी नियम प्रतिबन्ध स्वीकार नहीं करूँगी, किसी भी कोटि के विधि-निषेध को. मान्यता नहीं दूँगी मैं जब चाहूँगी, तब कक्षा में पढ़ने आऊँगी, जब इच्छा होगी तब भोजन करूँगी और जहाँ जाने का मन होगा, वहाँ जाऊँगी अध्यापक ने बड़े स्नेह के साथ उत्तर देते हुए कहा, ‘अच्छा मेरी बच्ची; यदि स्वतंत्रता के बारे में तुम्हारी यही अवधारणा है, तो तुम जो चाहो सो करो, जहाँ जाना चाहो, वहाँ जाओ, परन्तु अपने शरीर की सुरक्षा के सम्बन्ध में पूरी तरह सावधान रहना. ” बालिका चली गई. परन्तु आधा घण्टा व्यतीत होने के पहले ही वापस आ गई. यह पूछे जाने पर कि वह इतनी जल्दी वापस क्यों आ गई ? बालिका ने उत्तर दिया- “इस स्वल्प अवधि में मैंने अनुभव किया कि स्वतंत्र होने का मतलब है अपने प्रति उत्तरदायी होना पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है-अपने विचारों, निर्णयों एवं कार्यों के प्रति पूर्णरूपेण उत्तरदायी होना अवधि में वह सर्वथा अकेली रही, उसके भीतर से आवाज आई कि उसकी गतिविधियों के प्रति कोई भी अन्य व्यक्ति उत्तरदायी नहीं होगा अथवा होना चाहेगा ? जिस विद्यालय की अपने अध्यापक से
विचारों एवं कार्यों के परिणाम केवल उसी को भोगने पड़ेंगे.” ध्यातव्य है कि यह अनुभूति या समझ आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली एक बालिका की है. अंग्रेजी के श्रेष्ठ/ दार्शनिक कवि मिल्टन ने ठीक ही कहा है”जब लोग स्वतत्रता, स्वतंत्रता चिल्लाते हैं, तब उनका अभिप्राय उच्छृंखलता से होता है, क्योंकि स्वतंत्रता से प्रेम करने के पहले आदमी को ज्ञानवान और नेक होना चाहिए.”
स्वतंत्रता को मानव सभ्यता की सर्वोच्च उपलब्धि के रूप में सार्वभौम मान्यता प्रदान की जाती है. मानव सभ्यता की कहानी ही वस्तुतः स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु संघर्ष की कहानी है. मानव स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र एवं बन्धन रहित होना चाहता है. मौलिक रूप में स्वतंत्रता का अर्थ है-स्वयं अपने नियंत्रण में रहना स्वतंत्रता के लिए स्वराज्य शब्द का प्रयोग भी किया जाता है. स्वराज्य का अर्थ है-आत्मशासन एवं आत्मानुशासन इस प्रकार मानव के सर्वांगीण विकास के लिए स्वतंत्रता आधारशिला अथवा नींव के पत्थर की भूमिका का निर्वाह करती है और उसको अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक बनाती है. ये लक्षण मात्र व्यक्तिपरक अथवा व्यक्ति से सम्बद्ध न होकर सामाजिक अथवा समाज के परिप्रेक्ष्य में आवश्यक लक्षण माने जाते हैं.
स्मरण रखिए स्वतंत्रता जब पड़ोसी के लिए अभिशाप बन जाती है, तब उसका अंत हो जाता है. स्वतंत्रता वस्तुतः हमारे सामाजिक ढाँचे को तथा समाज के विकास के स्तर को प्रतिफलित करती है. ये दोनों विशेषताएं व्यक्ति के उत्तरदायित्व से जुड़ी हैं. सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वाह के अनुपात में स्वतंत्रता का आकलन किया जाता है. व्यक्ति को अपने विचारों एवं कार्यों संचालन इस प्रकार करना चाहिए कि वे किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक न बनें विधि-विरुद्ध एवं नियम विरुद्ध कार्य एक प्रकार के मानसिक रोग के विस्फोट के रूप में देखे जाने चाहिए. हमारा उत्तरदायित्व है कि उस रोग को निर्मूल करने का प्रयत्न करें. केवल डाल-पात को सींचने से काम नहीं चलता है. प्रश्न हो सकता है कि जब बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने तुच्छ एवं तात्कालिक लाभ को ध्यान में रखकर अपनीगतिविधियों का निर्धारण करने लगे, तो व्यक्तिगत स्तर पर क्या किया जा सकता है ? इसी को शास्त्रीय भाषा में धर्म की ग्लानि कहा गया है और जब धर्म की ग्लानि होती है, उसका अंत करने वाला अवतारी व्यक्ति जन्म लेता है. हमें स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक विचार का उद्भव एवं प्रत्येक कार्य का शुभारम्भ व्यक्तिगत स्तर पर होता है.
अतएव प्रत्येक व्यक्ति के सकारात्मक चिंतन का स्वरूप मेघमालाओं को एकत्र करने वाले नाभिक जैसा होना चाहिए / सकारात्मक विचार एवं कार्य निश्चित रूप से प्रभावोत्पादक होते हैं. इस दिशा में वही अग्रसर होता है, जो स्वतंत्र है. सापेक्षतावाद नामक सिद्धान्त (Theory of Relativity)/ के प्रतिष्ठापक दार्शनिक-वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक स्थान पर लिखा है कि श्रेष्ठ एवं प्रेरणाप्रद सकारात्मक कार्य उन्हीं व्यक्तियों द्वारा किए जा सके हैं, जो स्वतंत्रता के वातावरण में श्रम एवं कार्य कर सके हैं.
स्वतंत्रता का के प्रति उदासीन होना अथवा उससे पलायन करना नहीं है स्वतंत्र व्यक्ति न लापरवाह हो सकता है न प्रमादी हो सकता है और न एकान्तवासी हो सकता है. स्वतंत्रता का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता है कि व्यक्ति जो चाहे सो करे ऐसा व्यवहार अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर देगा. कोई व्यक्ति यदि स्वतंत्रता के नाम पर सड़क के बीचों-बीच अपना बिस्तर लगा दे, तो आप उसे क्या कहेंगे अथवा वह समाज के लिए कितनी समस्याएं उत्पन्न कर देगा ? स्वतंत्रता का वास्तविक अभिप्राय है कि व्यक्ति के मन में उत्तरदायित्व निर्वाह की भावना स्वतः एवं स्वाभाविक रूप से स्फूर्त हो तथा वह स्वभावतया कर्तव्य ज्ञान करके कर्तव्यपालन के प्रति उन्मुख हो. यही कारण है कि भारत के आर्ष ऋषियों ने स्वतंत्र एवं पूर्ण व्यक्तित्व को प्राप्त करने वाले साधक के लिए प्रत्येक स्तर पर कर्तव्यों का विधान किया था. स्वतंत्रता तो उसका जन्म सिद्ध अधिकार है जिसकी रक्षा उसको अनवरत् कर्तव्यपालन द्वारा करनी पड़ती है. श्री जी. पी. कुरल नामक विचारक ने ठीक ही कहा है कि स्वतंत्रता का मूल्य निरंतर सावधानी -Eternal vigilance is the price of freedom / liberty. जैसाकि चर्चित बालिका ने सोचा था कि एक स्वतंत्र व्यक्ति को अत्यधिक उत्तरदायी होना पड़ता है, क्योंकि अपने प्रत्येक विचार एवं कार्य के लिए उसे पूरा हिसाब देना होता है किसी अन्य के सिर अपनी त्रुटियों को थोपने के लिए उसके पास कोई बहाना या रास्ता नहीं होता है.
उत्तरदायित्व का यह भाव और कर्तव्यपालन का ज्ञान अन्तःप्रेरणा की देन है. बाहर से थोपे हुए सामान्य ज्ञान के वंशज नहीं हैं. इसी से कहा जाता है कि उत्तरदायित्व प्रसूत स्वतंत्रता संस्कार का वरदान होती है. जिन महानुभावों ने इस सत्य का साक्षात्कार किया है वे जानते हैं कि पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ उनके द्वारा किया जाने वाला कार्य मानव समाज को प्रगति की दिशा में एक कदम आगे ले जाएगा और अनुत्तरदायित्वपूर्ण उनका प्रत्येक कार्य मानवता के विकास को बाधित करेगा और विनाश की दिशा की ओर भी ले जा सकता है, जो व्यक्ति ऐसा नहीं करते हैं, जो व्यक्ति स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी करना लगाते हैं और अपने अनुत्तरदायी व्यवहार द्वारा अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता को अपनी उपलब्धि एवं शक्ति का मापदण्ड बनाते हैं वे तानाशाह बनकर समाज लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं. गम्भीरतापूर्वक विचार करें कि स्वतंत्र होना कितना गुरुतर उत्तरदायित्व है,

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