स्वर और व्यंजन
स्वर और व्यंजन
स्वर और व्यंजन
ध्वनियों का सर्वाधिक प्रचलित और प्राचीन वर्गीकरण ‘स्वर’ और ‘व्यंजन के रूप में मिलता है। प्रथम यूनानी
वैयाकरण ‘डायोनिशस घेक्स’ ने ‘व्यंजन’ उन ध्वनियों को कहा जिनका उच्चरण स्वरों की सहायता के बिना नहीं
किया जा सकता और स्वर उन ध्वनियों को कहा जिनका उच्चारण बिना किसी अन्य ध्वनि की सहायता के किया
जा सके । संस्कृत में ‘स्वर’ शब्द का प्रथम प्रयोग यों तो ऋग्वेद में मिलता है किंतु वहाँ उसका अर्थ ‘ध्वनि के रूप
में है। यह शब्द ‘स्व’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘ध्वनि करना । बाद में इसी का अर्थ ‘बलाघात’ या ‘सुर’
हो गया। प्राचीन ‘ऐतरेय आरण्यक’ नामक ग्रंथ में स्वर के अर्थ में पहले घोष’ शब्द का प्रयोग होता था-(तस्य
यानि व्यंजनानि तच्छरीराम, यो घोषः स आत्मा) । व्यंजन का संबंध ‘अंज’ (करना) घातु से है और इसका अर्थ है
‘जो प्रकट हो’ । स्पष्ट है उस काल तक भारत में स्वर के महत्त्व को पहचाना जा चुका था। आगे पतंजलि ने अपने
महाभाष्य में लिखा-“स्वयं राजन्ते स्वरा अन्वग भवति व्यंजनमिति’ । व्यंजनानि पुनरी भार्यावद भवन्ति । याज्ञवल्क्य
शिक्षा में भी यही कहा गया है।
उपर्युक्त हर कथनों में स्वर की प्रधानता तथा व्यंजन को अप्रधानता की बात तो है, किंतु स्वर के स्वयं उच्चरित
होने तथा व्यंजन के स्वर की सहायता से उच्चरित होने की बात सर्वत्र स्पष्ट नहीं है। पतंजलि और थ्रेम्स एक ही
समय ईसापूर्व दूसरी सदी के हैं। स्वर और व्यंजन के विषय में दोनों एक ही बात कह रहे थे। भारत में उसके
सात-आठ सौ वर्षों पूर्व ही ब्राह्मण तथा आरण्यक ग्रों में इसके संकेत मिलने लगे थे।
यों स्वर और व्यंजन की परिभाषा भारत और यूरोप दोनों ही के वैयाकरण गलत दे रहे थे। हिन्दी के
तथाकथित अकारांत शब्द यथार्थतः व्यंजनांत हैं अर्थात उनके अंत के व्यंजन बिना स्वर की सहायता के उच्चरित होते
है। जैसे राम, राख, आप, आदि । कई अन्य भाषाओं में तो कई पूरे के पूरे शब्द में एक मो स्वर नहीं होता। जाहिर
है व्यंजन के स्वर की सहायता के बिना न उच्चारित होने को तो बात हो क्या, पूरे शब्द स्वर की सहायता के बिना
भी उच्चरित हो सकते हैं। काफी समय तक उन्नीसवीं शती में हवा के प्रवाह की अनवरतता के आधार पर इन दोनों
स्वर और व्यंजन) में भेद किया गया। प्रसिद्ध भाषा शास्त्रियों-स्वीट, पालपासी, डेनियल जोन्स आदि ने भी इसे
स्वीकारा और कहा-
“स्वर वह घोष (कभी-कभी अघोष भो) ध्वनि है जिसके उच्चारण में हवा अबाध गति से मुख-विवर से
निकल जाती है।” “व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में हवा अबाध गति से नहीं निकलने पाती। या
तो इसे पूर्ण अवरुद्ध होकर फिर आगे बढ़ना पड़ता है, या संकीर्ण मार्ग से घर्षण खाते हुए निकलना पड़ता
है, या मध्य रेखा से हटकर एक या दोनों पावों से निकलना पड़ता है या किसी भाग को कपित करते हुए
निकलना पड़ता है। इस प्रकार वायुमार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।”
किंतु फिर भी बाद के कुछ भाषा-शास्त्रियों ने इस परिभाषा को पूर्णत: ठीक नहीं माना। इस रूप में स्वर
और व्यंजन के बीच स्पष्ट कोई सीमा रेखा खींचना कठिन है।
जाहिर है, प्राचीन परिभाषा की तरह ही यह नवीन परिभाषा भी ठीक नहीं है। कई ध्वनि-शास्त्रियों ने इसीलिये
‘स्वर’ और ‘व्यंजन’ शब्दों के लिये नये नामों का व्यवहार किया है। हेफनर नामक भाषाशास्त्री ने तो सष्ट रूप
से ध्वनियों को ‘आक्षरिक’ और ‘अनाक्षरिक’ इन्हीं दो वर्गो में रख दिया है।
इस समस्या के समाधान हेतु एक ही विचार जरूरी है कि इसमें आवश्यकता नये-नये नामों को नहीं है। ‘स्वर’
और ‘व्यंजन’ की सही परिभाषा देना ही समस्या है। इनके अंतर को स्पष्ट करना जरूरी है, ताकि पापा के ज्यान
में उसके महत्त्व को उचित रूप में पहचाना जा सके। पूर्व की दी हुई परिभाषा पूर्णतः भले ही सही न हो परंतु अंशतः
तो ठीक है ही, अस्तु निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि-
1. स्वरों का उच्चारण अकेले भी सरलता से किया जा सकता है, किंतु व्यंजनों का अऊले उच्चारण कसे
में ‘स, ज, श’ आदि कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः विशेष सावधानी अपेक्षित है। अस्फोटित मर्श भाव में या
तो शब्दांत (आप) में आते हैं या अन्य स्थानों पर किसी व्यंजन के पूर्व संयुक्त रूप में (प्लेग) आदि। ऐसी स्थितियों
में इनका स्वरविहीन उच्चारण होता है किंतु स्वतंत्र उच्चारण में या स्फोटित स्पर्श के उच्चारण में चाहे जितनी भी
सावधानी बरती जाय, थोड़ी-सी स्वर-ध्वनि सुनाई पड़ ही जाती है। जैसे क, आदि।
2. प्रायः सभी स्वरों का उच्चारण देर तक किया जा सकता है। व्यंजनों में केवल संघों हो से है। शेर
का उच्चारण देर तक नहीं हो सकता।
3. एक-दो (ई, ऊ) अपवादों को छोड़कर अधिकांश स्वरों के उच्चारण में मुस-विकर में हवा गूंजती हुई
बिना विशेष अवरोध के निकल जाती है। अधिकांश व्यंजन इसके विरोधी है, और उनमें पूर्ण या अपूर्ण अवरोध हवा
के मार्ग में व्यवधान उपस्थित करता है।
4. सभी स्वर आक्षरिक हैं। संध्यक्षरों में अवश्य कुछ स्वरों का अनाक्षरिक स्वरूप दिखाई पड़ता है; किंतु वह
अपवाद जैसा ही है। दूसरी ओर प्रायः सभी व्यंजन सामान्यतः अनाक्षरिक है। अपवाद स्वरूप ‘न’, ‘रे’ ‘ल’ आदि
चार-पाँच व्यंजन ही, कभी-कभी कुछ भाषाओं में आक्षरिक रूप में दृष्टिगत होते हैं। यह आधार प्रायोगिक है।
5. मुखरता की दृष्टि से ‘स’ भी स्वर-व्यंजन में भेद है। स्वर अपेक्षया अधिक मुखर होते हैं। कुछ अपवाद
भी हैं किंतु वे अपवाद ही हैं। श्रवणीयता के आधार पर स्वर-व्यंजन के अलग-अलग स्तर हो सकते हैं।
6. ‘ओसिलोग्राफ’ आदि यंत्रों में स्वर और प्रमुख व्यंजनों की लहरों में भी अंतर मिलता है। र, म, व्यंजनों
की लहरें दोनों के बीच में आती हैं।
इस प्रकार सभी स्वरों और व्यंजनों में (क) स्पष्टतया दो-टूक भेद नहीं हैं; (ख) कुछ धुंधला-सा भेद
अवश्य है जिसका आधार श्रवणीयता, प्रायोगिकता और उच्चारण आदि है। (ग) यदि इन दृष्टियों से स्पष्ट भेद वाले
स्वरों और व्यंजनों को एक वर्ग में रखकर उन्हें ‘व्यंजन’ और स्पष्ट भेद न रखने वाले स्वरों और व्यंजनों को ‘मिश्र’
या ‘अंतस्थ’, शीर्षक के अंतर्गत तीन वर्गों में रख दिया जाय तो सुविधा होगी। यों स्पष्ट भेद न रहने पर भी शुद्ध
व्यावहारिक दृष्टि से परंपरागत रूप में कुछ ध्वनियों को स्वर और कुछ को व्यंजन कहना और उसी रूप में उनपर
विचार करना कई दृष्टियों से बहुत उपयोगी और समीचीन भी है। इसलिये सभी ध्वनिशास्त्रियों को किसी-न-किसी
रूप या नाम से इन्हें स्वीकार करना ही पड़ा है।
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