हिंदी और भारतीय भाषाओं का अन्तर्सम्बन्ध: एक विवेचना

हिंदी और भारतीय भाषाओं का अन्तर्सम्बन्ध: एक विवेचना

         हिंदी और भारतीय भाषाओं का अन्तर्सम्बन्ध: एक विवेचना

विश्व आज जिस दौर से गुजर रहा है. उसमें कई स्तरों पर बदलाव आए हैं.
भूमंडलीकरण के कारण लोगों के सांस्कृतिक भाषाई और देशज सोच में बदलाव आए हैं
भारतीय समाज में इस बदलाव का असर कहीं अधिक देखा जा रहा है जिससे लोगों
में मूल्यों से अधिक सुख-सुविधाओं के प्रति कहीं ज्यादा मोह बढा है. पैसा जीवन का
पर्याय बन गया है सास्कृतिक और भाषाई चेतना धीरे-धीरे बदलती या गायब होती
दिखाई पड़ रही है ऐसे में सांस्कृतिक और भाषाई चेतना को लेकर सकट महसूस होना
लाजिमी है
          जिस प्रकार से संस्कृतियों का वर्षों से अन्तर्सम्बन्ध रहा है उसी तरह से भाषाई
अन्तर्सम्बन्ध भी रहा है, लेकिन इस अन्तर्सम्बन्ध को हमने कभी गहराई से
समझने का प्रयल किए ही नहीं. यही कारण है हम एक देश में रहते हुए भी आचलिकता
के संकीर्ण खूटे में बंधे रहे और इसी को पूर्णता समझते रहे इस संकट को महर्षि
दयानन्द और महात्मा गाँधी ने स्वतन्त्रता के बहुत पहले ही समझ लिया था इतना ही
नहीं, अंग्रेजी के सम्मोहन में बंधे भारतीयों की मन स्थिति का अनुभव भी कर लिया
था. अग्रेजी का खतरा केवल हिन्दी के लिए ही नहीं, अपितु भारतीय भाषाओं पर ही
उसी तरह से है. गांधी कहते हैं-“आप और हम चाहते हैं कि करोड़ों भारतीय
आपस में अन्ततीय सम्पर्क कायम करें स्पष्ट है कि अंग्रेजी के द्वारा दस पीढियाँ
गुजर जाने के बाद भी हम परस्पर सम्पर्क स्थापित न कर सकेंगे” स्पष्ट है कि सात
दर्शक व्यतीत हो जाने के बाद भी गाँधी द्वारा महसूस किया गया भाषाई सकट आज
भी उससे कहीं अधिक गहरा हो गया है. हम भले ही इसे राजनीतिक षड्यन्त्र या
स्वार्थ का परिणाम बताएँ लेकिन सच यह भी है कि हिन्दी और हिन्दीतर भाषाओं का
आपसी भाईचारा कायम करने में यह सबसे बड़ा बाधक रहा है. अब जबकि हिन्दी का
सकट अन्य कई तरह से हमारे सामने दृष्टव्य होने लगा है. भारतीय भाषाओं का
आपसी भाईचारा का मुद्दा गौण होता जा रहा है. ऐसे में डॉ रामविलास शर्मा का यह
कथन कितना प्रासंगिक हो जाता है―”हिन्दी अंग्रेजी का स्थान ले, इसकी बजाय यह
वातावरण बनाना चाहिए कि सभी भारतीय भाषाएँ अग्रेजी का स्थान लें”
            हिन्दी की व्यापकता का दायरा उसके संग्रहणीयता और उदारता के कारण है
यही कारण है कि देश के प्रत्येक अचल में हिन्दी उस आंचलिक भाषाई मिठास के रूप
में उपस्थित है लेकिन यह मिठास तब खटास में बदल जाती है, जब इसमें अंग्रेजी
की घृणात्मकता का तथाकथित विकास, भूमंडलीकरण और उदारीकरण के नाम पर
मिलाई जा रही कृत्रिमता उसकी मौलिकता और नवीनता को खत्म करने का कार्य
करने लगती है स्पष्ट है. हिन्दी में उदारता के नाम पर उसे उसकी मौलिकता, नवीनता
और सृजनात्मकता को धूमिल किया जा रहा है हिन्दी भारतीय भाषाओं की मिठास,
नवीनता और सृजनात्मकता की पावनी पवित्रता को वचित होती जा रही है इसे
इस रूप में भी हम समझ सकते हैं कि हिन्दी अग्रेजी की अवैज्ञानिकता, दबंगई
और विचित्रात्मकता के कारण हिंग्लिश’ के रूप में अपना स्वभाव खोती जा रही है और
‘निर्मित होने की जगह खण्डहर में बदलती जा रही है, आवश्यकता है भारतीय भाषाओं
के शब्दों, शैलियों और सांस्कृतिक चेतना से लबरेज होकर हिन्दी और भी सहज और
संग्रहणीय बने, लेकिन हो रहा है इसका ठीक उल्टा इससे हिन्दी का अन्य भारतीय
भाषाओं का अन्तर्सन्बन्ध बढने और गहरे होने के स्थान पर दुरूह होते जा रहे हैं.
इस पर दृष्टि डालने की आवश्यकता है.
          भारत सास्कृतिक विविधता के साथ-ही-साथ भाषाई विविधता वाला देश है
‘कोस कोस पर बदले पानी चार कोस पर बदले वाणी’ की कहावत इसी परिप्रेक्ष्य में
प्रचलित रही है अनेक बदलावों के बाद भी आज भारत की सांस्कृतिक और भाषाई
विविधता अपने मूल स्वरूप में कायम दिखती है जब हम भाषाई विविधता की बात करते
है, तो हमारे सामने भारत में बोली जाने वाली प्रादेशिक भाषाओं की बात ही नहीं
आती, बल्कि सैकड़ों की तादाद में बोली जाने वाली बोलियाँ भी इसमें सम्मिलित होती
हैं भारतीय संस्कृति और समाज के विकास में किसी के योगदान को नकारा नहीं जा
सकता है हमारे लिए जितनी महत्वपूर्ण हिन्दी है उतनी ही तमिल, तेलुगू, कन्नड,
पंजाबी डोगरी, बोडो, मलयालम, बंगला, असमिया, मराठी और कश्मीरी है यदि
हिन्दी राजभाषा और राष्ट्र भाषा-रूपी गगा की धारा है, तो अन्य प्रादेशिक भाषाएँ भी
कावेरी, सतलज और ब्रह्मपुत्र की धाराएँ हैं। जैसे सभी नदियाँ बहते हुए समुद्र में
मिलकर एक हो जाती है उसी तरह से भारत की सभी भाषाओं का मिलान भी
निरन्तर होता रहता है सुब्रह्मण्यम भारतीय ने कभी कहा था-“भारत माता भले ही 18
भाषाएँ (अब 22 हो गई है) बोलती हो. फिर भी उसकी चिन्तन प्रक्रिया एक ही है.”
       आज भूमण्डलीकरण का दौर है. भाषा-संस्कृति की महत्ता बाजारवाद के आगे दवती
नजर आ रही है लेकिन इस बात को नहीं नकारा जा सकता कि भारतीय भाषाओं के
अन्तर्सम्बन्ध तथा भारतीय संस्कृति की विराटता आज कहीं पहले से अधिक महत्व
की हो गई हैं अपनी पहचान के लिए हमें हर हाल में, इस सम्बन्ध को समझना और
जीना होगा बिना इसके भारतीयता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है इन्हीं से हमारी
पहचान है हिन्दी दशकों पहले इस देश की राजभाषा बनी थी. लेकिन राष्ट्रभाषा कब
बनेगी इस पर कोई न तो राजनेता बोलने की स्थिति में है. न तो हिन्दी के जवाहक
ही यह जानते हुए भी कि हिन्दी को भारत की पहचान के लिए जीवित रहना ही नहीं,
मुखर रहना भी आवश्यक है और हिन्दी न तो बिना भारतीय भाषाओं के सहयोग से
जीवित रह सकती है और न भारतीय भाषाएँ हिन्दी के बिना जिदा रह सकती है
सदियों से हिन्दी और भारतीय भाषाओं का जो अन्तर्सम्बन्ध रहा है. वह सहोदर बहनो
की तरह रहा है कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक भारत को एकता के सूत्र में
दौपने का कार्य यदि किसी भाषा ने किया. तो वह हिन्दी है इसलिए, हिन्दी किसी
भारतीय भाषा के लिए खतरा बनेगी, प्रश्न ही नहीं उठता है हिन्दी और भारतीय
भाषाओं को खतरा तो अंग्रेजी और हिग्लिश से है इसलिए वक्त की नजाकत को समझते
हुए प्रत्येक देशवासी को हिन्दी या भारतीय भाषाओं के सम्बन्धों पर सवाल न उठाकर
अंग्रेजी की बढती एकाधिकारिता पर सवाल उठाने चाहिए और इससे सावधान रहना
चाहिए अब समय आ गया है कि हिन्दीतर भाषी प्रदेशो को नए सिरे से हिन्दी को
अपनी प्रान्तीय भाषा के सम्बन्धों से विचार-विमर्श करना चाहिए.
            भाषा के बिना न तो किसी देश की कल्पना की जा सकती है और न किसी
समाज की ही. इसलिए भाषा की उपेक्षा का मतलब स्वयं अपने अस्तित्व को ही नकारना.
जैसे विविधताओं के बीच भी सास्कृतिक आदान-प्रदान कभी नहीं रुकता इसी तरह
भाषाई विविधता के होते हुए भी भाषाओं के मध्य आदान-प्रदान नहीं रुकता यह चाहे
भाषाई संस्कृति के रूप में हो, या व्याकरणिक रूप में या वचनात्मक रूप में
हो. भाषाओं के अन्तर्सम्यन्य को न तो रोका जा सकता है और न तो समाप्त किया जा
सकता है.
         हिन्दी हमारे देश की राज भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है आजादी के पहले भी यह
सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयोग की जाती रही है. यही कारण है कि हिन्दी के अनेक शब्द,
क्रियापद और संज्ञाएँ भारत की अनेक प्रान्तीय भाषाओं में उसी अर्थ में या दूसरे
अर्थ में मिल जाते हैइतना ही नहीं, हिन्दी की सहजता, वैज्ञानिकता और रागात्मकता
भी भारत की प्रान्तीय भाषाओं में मिल जाती है यह सब सहज रूप से हुआ है हिन्दी के
लिए जितना हिन्दी भाषा भाषियों के लिए महत्व है, उससे कहीं अधिक गैर-हिन्दी
भाषी के लिए महत्व है वह हिन्दी को उसके शुखात्मक रूप में अपनाने का कहीं
अधिक प्रयास करता है
              हिन्दी न किसी प्रान्त की भाषा रही है और न तो किसी जाति वर्ग या क्षेत्र विशेष
को भाषा रही है हिन्दी बहती नदी की धारा की तरह सबके लिए उपयोगी और
कल्याणकारी रहीहै यही कारण है गैर हिन्दी भाषा भाषी क्षेत्रों के हिन्दी उन्नायको
ने हिन्दी को जन भाषा के रूप में स्वीकार करते हुए इसके उत्थान के लिए अपना
सर्वस्व न्योछावर कर दिया वह चाहे गुजराती भाषा-भाषी महर्षि दयानन्द और गाँधी रहे
हो, बगाल के राजाराम मोहन राय केशवचन्द्र सेन और रवीन्द्र नाथ टैगोर तथा
नेता सुभाष रहे हो, या महाराष्ट्र के नामदेव गोखले और रानाडे रहे हो इसी तरह
तमिलनाडु के सुब्रह्मण्यम भारती, पंजाब के लाला लाजपत राय, आन्ध्र प्रदेश के प्रो.
जी. सुन्दर रेड्डी जैसे अनेक अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों में हिन्दी को बढ़ावा देने के
लिए अनेक महत्वपूर्ण प्रयास किए.
          हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का अन्तसम्बन्ध प्रगाढ़ होने में सबसे बड़ी बाधा
अंग्रेजी रही है अग्रेजों ने स्वतन्त्रता के पूर्व ही इसका जाल तैयार कर दिया था और
भाषा जो हमारे जीवन समाज और संस्कृति का अभिन्न अग है को राजनीतिक गदे
दिया था स्वतन्त्रता के 70 वर्ष के बाद आज जब हम हिन्दी और अन्य भारतीय
भाषाओं के सम्बनीका अवलोकन करते है तो पाते है कि ये सम्बन्ध सुदृढ होने की
जगह निस्तर कमजोर र हिन्दी वाली को तमिल, तेलुगू कन्ना पुजबी और
उड़िया शब्द संस्कृतिम तल की जगह अंग्रेजी के जाल-जजाल में अधिक भाता रहा है 
इस विडम्बना और सकट को वर्षों पूर्व हिन्दी के महान उन्नायक फादर डॉ कामिल 
दुल्के ने समझ लिया था हाँ बुल्के कहते है-“भारत पहुँचकर मुझे यह देखकर दुख हुआ 
कि बहुत शिक्षित लोग अपनी ही संस्कृति से नितान्त अनभिज्ञ है और अग्रेजी बोलना तथा 
विदेशी सभ्यता में रंग जाना मौरद की बात समझते है.”
            हम भले ही हिन्दी का विरोध करने वाले दक्षिण के कुछ राज्यों के अग्रेजी
परस्त राजनेताओं के स्वार्थवादी और सकीर्णवादी विरोध को अपने अनुसार
अलग-अलग तर्का से इसे किन्तु-परन्तु में उलझाकर इसके पीछ मन्सूबे को दरकिनार
कर दे, लेकिन इस वास्तविकता को कैसे झुठला सकते है कि इसके पीछे मुख्य रूप
से भारतीय भाषाई सास्कृतिक चेतना को कमजोर करने का ही उद्देश्य रहा अग्रेजी
को यदि भारतीय अस्मिता सस्कृति और सुख का पर्याय बनाना है, तो सबसे पहले
हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के अन्तर्सम्बन्धों को कभी मजबूत नहीं बनने
देना है इस घृणित मन्सूबे के कारण ही अंग्रेजी का प्रभुत्व लगातार भारतीय भाषाई
चेतना को अचेतन बनाता रहा है हम इस संकट को समझने में निरन्तर भूल करते आ
रहे हैं इसे समझने की आवश्यकता है.
            इस सच्चाई को हम कैसे झुठला सकते हैं कि आज भी तमिल, कर्नाटक
आन्ध्र, केरल त्रिपुरा, असम, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे अनेक राज्यों में हिन्दी समझने
वाले, बोलने वाले ही नहीं हिन्दी में लेखन करने वाले सैकड़ों लेखक-पत्रकार मिल
जाते हैं, जो हिन्दी को समृद्ध बनाने के लिए पूरे मनोवेग से कार्य कर रहे है. इससे
हिन्दी की अन्य भारतीय भाषाओं के अन्तर्सम्बन्धों में मजबूती आ रही है. लेकिन
यह आवश्यकता से बहुत कम है या कहें यह ऊँट के मुँह में जीरे के समान है.
लेखक को भारत सरकार के गैर-हिन्दी भाषा-भाषी पत्रकार-लेखक शिविर में
प्रशिक्षक के रूप में सम्मिलित होने का अवसर मिला है और उन नय लेखक-
पत्रकारों की भाषाई चेतना को नजदीक से देखा समझा है. जिस उत्सुकता और
संकल्प को गैर-हिन्दी भाषा-भाषी नवलेखकों में देखने को मिला, वह आश्चर्य में डालने
वाला था. यहाँ तक कि तमिलनाडु जहाँ हिन्दी अधिक विरोध कभी हुआ
करता था उस क्षेत्र के नव हिन्दी लेखक हिन्दी को तमिल के साथ सेह अन्तर्सम्बन्यो
को सबसे अधिक प्रगाढ बनाने की बात करते दिखे इतना ही नहीं तमिल के शब्दों
को हिन्दी में प्रयोग करने के आश्चर्यजनक तजुर्बे भी हुए.
हिन्दी का स्वभाव और भारतीय भाषाओं का स्वभाव एक जैसा है किसी भी
स्तर पर टकराव नहीं है फिर क्यों हिन्दी का विरोध गैर हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों में
यत्र-तत्र देखा जाता है? यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है दरअसल, आजादी के पहले
अग्रेजों ने भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण कराया था. उसके पीछे न कोई भाषाई
तथ्य, व्याकरण और लिपि का आधार था और न ही सास्कृतिक या धार्मिक ही
भारतीय भाषाओं का वर्गीकरण इस तरह से किया गया जिससे यह साबित हो सके कि
आर्य भाषा परिवार की भाषाओं और ‘द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाओं में न पूरकता है
और न ही कोई अतर्सम्बन्ध ही है जिससे उन्हें भाषा के नाम पर भी देश को
विभाजित कर राज करने में सुविधा हो सके गौरतलब है ‘आर्य भाषा परिवार का
नामकरण मैक्समूलर के द्वारा किया गया और द्रविड भाषा परिवार’ का नामकरण
पादरी रॉबर्ट काल्डवेल के द्वारा किया गया. 
            आधुनिक भारतीय भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि आज भी वैसी ही है जैसी स्वतन्त्रता
के पूर्व थी आज भी भाषा वैज्ञानिक यह मानते हैं कि भारत की आर्य भाषाओं का
ईरानी. यूनानी. जर्मन और लातीनी भाषाओं से किसी न किसी स्तर पर अन्तसम्बन्ध है.
लेकिन विध्याचल के दक्षिण में प्रचलित भाषाओं से आर्य भाषाओं का कोई सम्बन्ध
नहीं जुड़ता है हम सभी इस बात पर विचार करने के लिए ही तैयार नहीं है कि
दक्षिण की भाषाएँ दविङ परिवार की है और उत्तर भारत की भाषाएँ आर्य परिवार की.
इस धारणा को दृढता पदान करने में पादरी कॉल्डवेल की पुस्तक द्रविड़ भाषाओं का
तुलनात्मक अध्ययन का योगदान सबसे अधिक रहा हे स्पष्ट है जब भी इस विषय
पर चर्चा होती है तो भारत के भाषा वैज्ञानिक उक्त पुस्तक का हवाला देकर यह साबित
करने की कोशिश करते हैं कि फादर कॉल्डवेल को शोध इस सम्बन्ध में भाषाई
अन्तर्सम्बनाओं को समझने में मील का पत्थर है वहीं पर इस धारणा को अपने शोधपरक
और तथ्यपरक तों से निर्मूल साबित करते हुए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के पूर्व
प्रोफेसर एम बी एमर्ना ने अपने तथ्यपरक निबन्ध भारत एक भाषाई क्षेत्र में कहा है-
“एक ही भूखण्ड की भाषा होने के कारण उत्तर और दक्षिण भारती भाषाओंकी
वाक्य रचना में प्रकृति और प्रत्यय में, शब्द और धातु में भाय धारा और चिन्तन प्रणाली
में और कवन शैली में प्रत्येक स्तर पर समानता दिखाई पड़ती है” आचार्य
काशीरान के शोध के अनुसार दशक भारत की भाषाएँ और हिन्दी का उद्भव एक ही
है कहने का मतलब यह है कि जो अलगाव विदेशी भाषाविद भारतीय भाषाओं में देखते 
है वह कही म-कहीं उनके दुराग्रह और स्वार्थवादी प्रवृत्ति के कारण ही है.
     हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में सान्यता एक स्तर पर नहीं है सैकड़ो की
सख्या में ऐसे शब्द है जो हिन्दी में भी इस्तेमाल किए जाते है और अन्य भारतीय
भाषाओं में भी उदाहरण के लिए तेलुगु में प्रयुक्त वजी शब्द हिन्दी में भी प्रयोग होता
है और अन्य दूसरी भाषाओं में भी इसी तरह कागज ताला, फकीर ताजा, अम्मा
आदि जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग हिन्दी सहित भारत की अधिकांश भाषाओं में
प्रयोग होते है इसी तरह पंजाबी भाषा जो गुरुमुखी में लिखी जाती है के हजारों शब्द
हिन्दी में प्रयोग में दिखाई देते हैं वस्तुत ये शब्द संस्कृत से हिन्दी और पजाबी में प्रयोग
में आएँ आज दोनों भाषाओं में संस्कृत के इन शब्दों का प्रयोग धडल्ले के साथ किया
जाता है यदि लिपि को छोड़ दिया जाए, तो कोई भी हिन्दी भाषा-भाषी व्यक्ति जो कुछ
पढ़ा-लिखा हो उसे पजाबी समझ में आ जाती है इसी तरह पजाबी को हिन्दी समझते
देर नहीं लगती दोनों एक ही भाषा परिवार की मानी जाती है दोनों का प्रयोग सदियों
से आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए किया जाता रहा है पजाब में मध्यकाल में
बज भाषा और गुरुमुखी लिपि में इसके सुभेल से ही हिन्दी साहित्य का सृजन हुआ
गुरु गोविन्द सिंह और इनके दरबारी कवि पंजाब के दूसरे राज्यास्थित कपि गुरुमुखी
लिपि में ब्रज भाषा की रचना करते में यह निकटता हिन्दी और पजायो संस्कृतियों को
भी रेखाकित करती है पजाबी और हिन्दी भाषा के अन्तर्सम्बन्ध भक्तिकाल गुरुवाणी
और आधुनिक युग के साहित्य में भी सहज सुलभ है यो पूर्णसिंह, अमृता पीलम देवेन्द्र
सत्यार्थी और जीत कौर जैसे न जाने कितने रचनाकार जो पजायो पृष्ठभूमि के
होते हुए भी हिन्दी में सबको स्वीकार हुए.
       इस बात को कितने लोग जानते है कि जिस लिपि देवनागरी में हिन्दी-संस्कृत 
लिखी जाती है उसी लिपि में कश्मीरी और मराठी भी लिखी जाती रही है लिपि की 
एकता में भी हिन्दी को मराठी. कामीरी को पास आने का अवसर दिया. इसी तरह 
गुजराती लिपि भी कुछ अन्तर से देवनागरी जैसी ही है. गुजराती और हिन्दी का 
अन्तर्सम्बन्ध जगजाहिर है गुजराती भाषियों ने हिन्दी को माया देने के लिए या नहीं 
किया.
        इसी तरह मस्याम में अस्सी प्रतिशत शब्द संस्कृत से सीधे ग्रहण किए गए है.
मलयालम बोलते समय ऐसा लगता है. बोलने वाला संस्कृत का बदले हुए रूप
वाली भाषा बोल रहा है.
 
उच्च स्तर के अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि हिन्दीतर प्रदेशों में रचा गया
हिन्दी साहित्य परिणाम में अतुलित तो है ही, साहित्यिक विशेषताओं से भी उत्कृष्ट कोटि
का है इस बात को हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र के लोगों को समझनी चाहिए कि जिस
प्रकार से हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी को समृद्ध बनाने के लिए गैर हिन्दी भाषा-भाषी
लेखक, पत्रकार और हिन्दी प्रचारकों ने अपना जीवन समर्पित करके हिन्दी को
सर्वसुलभ और सर्वमान्य भाषा बनाने में लगे हुए हैं उसी तरह अन्य भारतीय भाषाओं
को भी हिन्दी क्षेत्र के लोगों को सीखना चाहिए और जहाँ तक हो सके, सम्बन्धों में
जीना चाहिए इससे हिन्दी और अच्छी तरह से देशभर में आगे बढ़ सकेगी.
          आज मीडिया का जमाना है. अन्तरजाल (इंटरनेट) के कारण सारा विश्व एक
ग्लोबल गाँव के रूप में विकसित होता जा रहा है ऐसे में हिन्दी और भारतीय भाषाओं
को एक साथ विश्व स्तर पर स्थापित करने के अवसर अधिक बढ़ गए हैं लेकिन इसके
लिए पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण का भेद मिटना चाहिए. अग्रेजी के प्रति जैसा रोजगार
के कारण व्यामोह बढ़ गया है, उसकी जगह हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रति
अनुराग पैदा करना होगा हिन्दी विश्व स्तर पर तब अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकेगी
जब उसकी अन्य बहनों यानी भाषाओं को भी पूरा सम्मान मिलेगा स्पष्ट है प्रत्येक
भाषा के साथ उसकी अपनी संस्कृति भी होती है यदि भाषा को बचाना है, तो उस
भाषा की संस्कृति को भी बचाना आवश्यक है. गौरतलब है. इस भाषाई संस्कृति के
कारण है. भारत विविधताओं का देश होते हुए भी हमेशा एके नजर आता है यह
भाषाई विविधता कहीं समाप्त न हो जाए, इसके प्रति हमें सचेत रहेने की आवश्यकता
है अग्रेजी के व्यामोह ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अन्तर्सम्बन्ध में अच्छा-
खासा असर डाला है. यही कारण है. शिक्षा के क्षेत्र में जब पूरे देश में हिन्दी माध्यम से
पठन-पाठन की बात आती है, तो हिन्दी के विरोध में आवाज बुलंद की जाने लगती है
लेकिन अंग्रेजी के नाम पर कोई किसी तरह का विरोध नहीं दिखाई पड़ता है जबकि
अंग्रेजी से हिन्दी को जितन्दा खतरा है उतना ही खेतरा भारतीय भाषाओं को भी है इस
सच्चाई को यदि इन समझ ले. तो भारत की राष्ट्रभाषा की हकदार हिन्दी और
भारतीयता की पहचान भारतीय भाषाओं पर मंडराता सकट समाप्त हो सकता है। एक
ही देश की भाषाओं में विरोधाभास देखना या विचलाना हमारी अपनी दृष्टि नहीं हो
सकती. यह तो विदेशी दृष्टि है जो हमेशा भाषा और संस्कृति के नाम पर 
विभाजन की बात करती रही है.

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