Upsc gk notes in hindi-30
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प्रश्न- भारत में महिलाओ पर वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा कीजिए. (200 शब्द)
उत्तर- वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप भारत में न केवल आर्थिक क्षेत्र में. बल्कि सामाजिक एवं
सांस्कृतिक क्षेत्र में भी परिवर्तन हुए हैं. इसने महिलाओं को भी प्रभावित किया है और ये प्रभाव
सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों रूपों में परिलक्षित हुए हैं.
वैश्वीकरण के फलस्वरूप भारत में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में बढ़ोत्तरी से महिलाओं को
रोजगार के बेहतर और अधिक अवसर प्राप्त हुए हैं बैंकिंग, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी विस्तार
हुआ है, जिससे रोजगार के अवसर में बढ़ोत्तरी हुई है चंद्रा कोचर, इंदिरा नूई, ऊषा सुब्रमण्यम आदि
कुछ ऐसे नाम हैं जो ये दर्शाते कि महिलाओं की पहुँच अब उच्च स्तरीय पदों पर भी है. इससे महिलाओं
के प्रति रूढ़िवादी सोच में बदलाव भी हो रहा है. साथ ही महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में
भी सुधार हुआ है. इससे घर के अंदर और घर के बाहर निर्णयन प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी में
वृद्धि हुई. हालांकि ये सुधार एक वर्ग विशेष की महिलाओं तक ही सीमित रहे हैं. वैश्वीकरण के कारण
आर्थिक व सामाजिक स्तर पर आगे बढ़ने के रास्ते पर से शहरी व शिक्षित अधिकार सम्पन्न महिला वर्ग
को ही प्राप्त हुए हैं,
महिलाओं पर वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव भी देखने को मिले है रोजगार के अवसरों
में बढ़ोतरी के साथ ही महिलाओं पर दोहरा दबाव पड़ा है ऐसी नौकरीपेशा महिलाओं पर दवाब पड़ा है
अब ऐसी नौकरीपेशा महिलाओं की संख्या में वृद्धि हुई है, जिन्हें बाहर के काम के साथ-साथ घर के काम
भी करने होते हैं. इसके अतिरिक्त महिलाएं अब तरह-तरह के अपराधों के प्रति ज्यादा सुवेद्य हो गई है.
कार्यस्थल पर उत्पीड़न एवं शोषण में वृद्धि हो गई है वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप जिस उपभोक्तावादी
संस्कृति का विकास हुआ है. इसने महिलाओं को एक उपभोग की वस्तु समझने को बढ़ावा दिया है. यही
नहीं वैश्वीकरण के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के कारण महिलाओं के पारम्परिक रोजगार के अवसरों
में भी ह्रास हुआ है. उदहारण के लिए पारम्परिक हथकरघा उद्योगों को पावरलूमों से तगड़ी प्रतिस्पर्धा का
सामना करना पड़ा है.
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप जहाँ एक ओर
महिलाओं के रोजगार अवसरों में वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी तरफ इसके अनेक नकारात्मक प्रभाव भी महिलाओं
पर पड़े हैं.
प्रश्न- समालोचनापूर्वक परीक्षण कीजिए कि क्या बढ़ती हुई. जनसंख्या निर्धनता का मुख्य कारण है या कि निर्धनता जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण है? (200 शब्द)
उत्तर- सामान्यतः जनसंख्या वृद्धि एवं गरीबी में पारस्परिक सम्बन्ध होता है, भारत जैसे देशों में भी यह बात
लागू होती है. यहाँ जनसंख्या वृद्धि और गरीबी दोनों ही प्रमुख समस्याओं के रूप में विद्यमान है ऐसी
धारणा है कि बढ़ती हुई जनसंख्या गरीबी में वृद्धि करती है. क्योंकि संसाधनों में वृद्धि उस अनुपात में
नहीं होती जिस अनुपात में जनसंख्या वृद्धि होती है. इसकी पुष्टि ‘माल्थस’ के ‘जनसंख्या वृद्धि सिद्धांत
से भी होती है, जिसमें उन्होंने बताया था कि संसाधनों की आपूर्ति जनसंख्या वृद्धि की तुलना में कम
रहती है. अधिक जनसंख्या के कारण संसाधनों पर दबाव पड़ता है, यह बात एक हद तक सत्य भी
प्रतीत होती है क्योंकि प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं. इस प्रकार जनसंख्या में वृद्धि गरीबी का एक
कारण है. हालांकि वर्तमान में इसे पूर्ण रूप से सत्य नहीं माना जाता, क्योंकि विद्वानों के अनुसार
गरीबी की समस्या जनसंख्या वृद्धि से अधिक संसाधनों के असमान वितरण के कारण उत्पन्न होती है.
दूसरी तरफ यह भी कहा जा सकता है कि जनसंख्या वृद्धि का एक कारण गरीबी भी है.
गरीबी के कारण शिक्षा सुविधाओं तक लोगों की पहुँच नहीं हो पाती, जिसके कारण उन्हें परिवार नियोजन
के साधनों का उचित ज्ञान नहीं होता, साथ ही अशिक्षा के कारण वे जनसंख्या वृद्धि के परिणामों से भी
अनभिज्ञ रहते हैं. एक दूसरा कारण यह भी है कि गरीब अपनी जनसंख्या इसलिए भी बढ़ाते हैं, ताकि
परिवार में आजीविका कमाने के लिए अधिक से अधिक लोग हों. इसके सोथ ही गरीबों में बाल विवाह
की प्रवृत्ति भी देखी जाती है, जिससे प्रजनन काल में वृद्धि हो जाती है और जनसंख्या बढ़ जाती है. इसको
अगर अन्य सन्दर्भ में देखें तो जनसंख्या वृद्धि से रोजगार के अवसर की सुलभता कम उपलब्ध हो पाती है,
जिसके चलते व्यक्ति की आर्थिक, स्थिति खराब हो जाती है और वह अपने बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा
इत्यादि उपलब्ध नहीं करा पाता और यही बच्चे आगे चलकर अकुशल मजदूर बन जाते हैं. ये लोग पुनः
अपनी आय बढ़ाने के लिए परिवार बढ़ाने पर जोर देते हैं, जिसके चलते एक चक्र निर्मित होता है जो
जनसंख्या वृद्धि एवं निर्धनता से अंतसम्बन्धित होता है. भारत के सन्दर्भ में ये बातें देखी जा सकती हैं.
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा में प्रसार से इसमें कमी आई है.
प्रश्न- इस मुद्दे पर चर्चा कीजिए कि क्या और किस प्रकार दलित प्राख्यान (ऐसर्शन) के समकालीन आंदोलन जाति विनाश की दिशा में कार्य करते हैं ? (200 शब्द)
उत्तर- डॉ. भीमराव अम्बेडकर को भारत में दलित आन्दोलन का प्रणेता माना जाता है. दलित शब्द, वर्षों
से शोषित, पीड़ित व अस्पश्य समझी जाने वाली जातियों के लिए प्रयोग किया जाता है, दलित
आन्दोलन का उद्देश्य इन जातियों को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक रूप से सशक्त
करना है. भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् दलितों के समाज में सामाजिक व सांस्कृतिक समामेलन के लिए
छुआछूत और भेदभाव को खत्म करने के वैधानिक उपाय किए गए, जिनका प्रतिफल भी स्पष्ट दिखाई
देता है. लेकिन मात्र छुआछूत खत्म करने से जाति व्यवस्था का उन्मूलन नहीं किया जा सकता क्योंकि
भारत में जाति व्यवस्था की जड़े काफी गहरी है.
दलित पहचान से सम्बन्धित सभी आन्दोलनों ने उन्हें राजनैतिक शक्ति प्रदान करने की कोशिश
की, किन्तु दलित पहचान की। राजनीति कहीं-न-कहीं जाति आधारित व्यवस्था को मान्यता देने का भी
एक कदम साबित हुई. दलित आन्दोलनों का उद्देश्य दलितों की एक अखिल भारतीय पहचान कायम
कर एक बड़ा आंदोलन खड़ा करना था, किन्तु वास्तविक रूप से इस सभी अछूत जातियों को एक साथ
लाना संभव नहीं हो पाया, क्योंकि इनके भीतर भी पदसोपानिक व्यवस्था अर्थात् अनेक उपजातियाँ
विद्यमान थीं, लेकिन ऊँची व निचली जातियों को मिलाकर चुनावों में की गई सोशल इंजीनियरिंग ने
जाति व्यवस्था को पदानुक्रम की अपेक्षा जातिगत पहचान की ओर अग्रसर किया है.
वर्तमान समय में दलित आन्दोलन का एक मुख्य हिस्सा दलित साहित्य बन चुका है. वर्ष 1958
में महाराष्ट्र दलित साहित्य संघ ने प्रथम दलित साहित्य सम्मेलन किया था. इसमें आंदोलनधर्मी साहित्य रचने
के आह्वान के साथ ही दलित साहित्य को स्वतंत्र मान्यता और इसके सांस्कृतिक महत्व को समझते हुए
विश्वविद्यालयों और साहित्यिक संगठनों द्वारा इसे उचित स्थान दिए जाने की मांग की गई क्योंकि दलितों
के शोषण में शिक्षा व साहित्य तक पहुँच न होना एक बड़ी बाधा थी वर्तमान में दलित साहित्य द्वारा
जातिवाद शोषण को उजागर कर जाति व्यवस्था पर प्रहार किया जा रहा है. वर्तमान में विभिन्न मीडिया
संस्थानों, फिल्मों व सोशल मीडिया, जैसेफेसबुक, ट्विटर आदि के माध्यम से भी दलित सशक्तिकरण व
जाति भेद के उन्मूलन के प्रयास किए जा रहे हैं, जिसमें सांस्थानिक व संगठित आन्दोलनों के साथ ही
व्यक्तिवादी दृष्टिकोण भी सामने आ रहा है, जो समाज में नई क्रांति लाने में योगदान दे सकता है.
इसके साथ ही दलित पूँजीवाद की अवधारणा भी आकार ले रही जिससे सिर्फ सरकारी ही नहीं,
बल्कि निजी क्षेत्रों में भी दलितों का स्वतंत्र रूप से सशक्तिकरण हो सके और समाज में उनकी भूमिका में
वृद्धि हो रही है.
दलित आन्दोलन का उदय जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए हुआ था लेकिन वर्तमान समय
में दलित आन्दोलन जाति व्यवस्था के उन्मूलन के बजाय भेदभाव व छुआछूत रहित जाति व्यवस्था को
पहचान के रूप में स्वीकार्य बनाने की ओर ज्यादा अग्रसर है जो जाति व्यवस्था के समूल उन्मुलन से
भटकाव है. साथ ही दलितों में भी उच्च व मध्यवर्ग व विभिन्न जातियों उपजातियों के रूप में विभेद मौजूद
है. हिन्दू समाज से जाति व्यवस्था के समूल उन्मूलने के लिए उच्च व निम्न जातियों के समग्र प्रयासों के साथ
ही डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विधिक प्रयासों का महात्मा गांधी के समाज के भीतर से बदलाव लाने की
इच्छा में समावेश करना होगा.
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