Upsc gk notes in hindi-43

Upsc gk notes in hindi-43

                              Upsc gk notes in hindi-43

प्रश्न. एक राज्य-विशेष के अन्दर प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर करने तथा जाँच करने के केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सी.बी.आई.) के क्षेत्राधिकार पर कई राज्य प्रश्न उठा रहे हैं. हालांकि, सी.बी.आई. जाँच के लिए राज्यों द्वारा दी गई सहमति को रोके रखने की शक्ति आत्येतिक नहीं है. भारत के संघीय ढाँचे के विशेष संदर्भ में विवेचना कीजिए. (उत्तर 250 शब्दों में दीजिए)

उत्तर – केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की स्थापना गृह मंत्रालय में 1946 में दिल्ली स्पेशल पुलिस
          एस्टाब्लिशमेंट के रूप में हुई थी, जिसका 1 अप्रैल, 1963 से इसका नाम सीबीआई हो गया.
          इसका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण भोरत है तथा इसका उद्देश्य सभी प्रकार के अपराधों की निष्पक्ष जाँच
         करना है, लेकिन यह संस्था स्वतः कोई जाँच प्रारम्भ नहीं करती, अर्थात् जब केन्द्र सरकार किसी
        केस में जाँच करने का आदेश देती है, तभी यह जाँच करती है. राज्य की कानून व्यवस्था बनाए
        रखना राज्य सरकार का कार्य है, अपराधी को पकड़ना, जाँच करना एवं अपराध नियंत्रण करना
        राज्य पुलिस के माध्यम से करते हैं, लेकिन कुछ मामले ऐसे जिनमें निष्पक्षता की जाँच की आवश्यकता
       होती है तथा यदि मामला केन्द्र सरकार, सरकारी लोक उपक्रम/ के कर्मचारी केन्द्र के वित्तीय हित केन्द्रीय
       कानूनों का राज्य सरकारों द्वारा उल्लंघन, बहु-राज्यों के घोटाले आदि से सम्बन्धित मामले सीबीआई को
       केन्द्र सरकार द्वारा सौंपे जा सकते हैं. इसके अतिरिक्त कोई भी अन्य मामला जिसमें निष्पक्ष जाँच की
       माँग की जाती है, सीबीआई को सौंपा जा सकता है. राज्यों में जाँच के लिए सीबीआई को राज्य सरकारों
       से सामान्य सहमति लेनी होती है. प्रारम्भ में लगभग सभी राज्यों द्वारा इसे औपचारिकता समझकर
       सीबीआई को अनुमति दी हुई थी. लेकिन सीबीआई की कार्य प्रणाली से निष्पक्षता की जगह केन्द्र सरकार
       के पक्ष में कार्य करने के लिए आरोप लगने लगे जिससे आहत होकर अनेक राज्यों ने जैसे पंजाब, पश्चिम
      बंगाल छत्तीसगढ़ राजस्थान, महाराष्ट्र झारखण्ड केरल त्रिपुरा, मिजोरम आदि ने सीबीआई को दी गई सामान्य
      सहमति वापस ले ली.

प्रश्न. येद्यपि मानवाधिकार आयोगों ने भारत में मानव अधिकारों के संरक्षण में काफी हद तक योगदान दिया है, फिर भी ये ताकतवर और प्रभावशालियों के विरुद्ध अधिकार जताने में असफल रहे हैं. इनकी संरचनात्मक और व्यावहारिक सीमाओं का विश्लेषण करते हुए सुधारात्मक सुझाव दीजिए. (उत्तर 250 शब्दों में दीजिए)

उत्तर – द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकारों की सार्वभौमिक
          घोषणा की तथा विश्व में मानवाधिकार संरक्षण के लिए। एक मानक स्थापित किए जिसे ध्यान में
         रखकर भारत ने भी यहाँ मानवाधिकार संरक्षण के लिए प्रयास किए, जिसमें मानवाधिकार आयोगों
        की स्थापना भी सम्मिलित है भारत सरकार नागरिकों के मानव अधिकारों की रक्षा करने हेतु संसद
        के अधिनियम द्वारा 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई. तदुपरान्त अनेक
        राज्यों में मानवाधिकार आयोगों की स्थापना की गई आयोग का अध्यक्ष प्राय: भारत का सेवानिवृत्त
        मुख्य न्यायाधीश को बनाया जाता है, जिसकी सहायता के लिए अन्य सदस्य भी होते हैं. आयोग को
       अपने कार्यों के निष्पादन के लिए सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्राप्त हैं. आयोग सामान्यतः मानवाधिकार
       उल्लंघन की शिकायतों की जाँच करता है. कैदियों की मानवीय स्थिति की समय-समय पर जाँच करता है,
       इसके साथ-साथ बाल विवाह को रोकना बाल श्रमिकों को मुक्त कराना तथा बाल श्रम को समाप्त करना,
       बच्चों व महिलाओं के यौन शोषण को रोकने के लिए प्रयास करना, कार्यस्थल व सामान्य परिवहन के
       साधनों में महिलाओं का उत्पीड़न रोकना, दलितों-वंचितों के विरुद्ध अनेक प्रकार के उत्पीड़न को रोकने
       एवं विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए भी कार्य करता है.
               मानवाधिकार आयोग निस्संदेह अपनी सीमाओं में रहकर अच्छा कार्य कर रहा है, फिर भी इसकी
      प्रभावशीलता को लेकर प्रश्न उठाए जाते रहे हैं इसका कारण आयोग की कार्य प्रणाली के लिए बनाए गए
     अधिनियम हैं, जो आयोग को कार्यवाही का अधिकार नहीं देते उसे सदैव किसी-न-किसी प्रशासनिक एजेंसी
     की सम्पूर्ण सहायता लेनी ही पड़ती है, अनेक बार एनजीओ भी इसकी सहायता करते हैं अतः इसकी
     प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए इसकी संरचनात्मक व्यवस्था को सुधारना, निष्पक्षता सुनिश्चित करना
    और दण्डात्मके कार्यवाही के लिए इसे अधिक स्वतन्त्र रूप से अधिकार प्रदान करने की आवश्यकता है

प्रश्न. संयुक्त राज्य अमरीका और भारत के संविधानों में समता के अधिकार की धारणा की विशिष्ट विशेषताओं का विश्लेषण कीजिए. (उत्तर 250 शब्दों में दीजिए)

उत्तर- संयुक्त राज्य अमरीका एवं भारत में समता या समानता का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया
         है, लेकिन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिवेश में दोनों राष्ट्रों में अन्तर होने के कारण इस
        अधिकार की व्याख्या एवं अर्थ को भिन्न हैं अमरीका में इस अधिकार को 14वें संविधान संशोधन
       द्वारा सम्मिलित किया गया. भारत में संविधान में इस अधिकार को प्रारम्भ से ही सम्मिलित किया गया.
       भारत में मौलिक अधिकार मानकर इस प्रतिबन्ध लगाने का प्रावधान है, लेकिन अमरीका में इसकी
       व्याख्या का अधिकार परिस्थितियों एवं न्यायाधीश के विवेक पर छोड़ दिया गया है.
           भारत में सभी को विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कानून के समक्षे समानता धर्म नस्ल
    जारी लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाकर समानता प्रदान करना, राज्यों के अधीन
     नौकरियों में सभी को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर प्रदान करना और समानता लाने के लिए
     विशेष वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करना, अस्पृश्यता को समाप्त कर सामाजिक समानता स्थापित
     करना तथा ऐसी उपाधियों का अन्त करना, जिससे असमानता स्थापित होती है, उनका अन्त करना आदि
     व्यवस्थाएं की गई हैं.
            स्पष्ट है कि भारत में समता या असमानता का अधिकार व्यक्ति को सामाजिक क्षेत्र में समता का
     अनुभव करना तथा असमानता को दूर करने का प्रयास करता है, जिससे वह एक गरिमामय जीवन
     यापन कर सके. अमरीका में समता के अधिकार अल्पसंख्यकों या दलित-वंचितों को ऊपर उठाकर
    समता प्रदान करने जैसे प्रावधान नहीं हैं इसके साथ ही, समता का अधिकार, अमरीका में संसद के
     कानून से प्राप्त किए जाते हैं. भारत तथा अमरीका में बच्चों के लगभग एक जैसी व्यवस्था है, केवल
     बच्चों की आयु निर्धारण में विभिन्नताएं हैं अमरीका में महिलाओं को नारीवादी विचारधारा के कारण
    अधिक स्वतन्त्रता एवं स्वच्छता प्राप्त है.
                अमरीका और भारत में केवल परिवेश का अन्तर है, जिससे समता की अवधारणा में अन्तर
     परिलक्षित होता है

प्रश्न. उन संवैधानिक प्रावधानों को समझाइए जिनके अन्तर्गत विधानपरिषद स्थापित होती है. उपर्युक्त उदाहरणों के साथ विधान परिषदों के कार्य और वर्तमान स्थिति का मूल्यांकन कीजिए. (उत्तर 250 शब्दों में दीलिए)

उत्तर- संविधान के अनुच्छेद 168 के अनुसार प्रत्येक राज्य में एक विधानमण्डल होगा, जोकि राज्यपाल
         तथा, जहाँ दो सदन हैं वहाँ दो सदनों से और अन्य राज्यों में एक सदन से मिलकर बनेगा अर्थात्
        राज्य में दो सदन होना अनिवार्य नहीं है. जहाँ दो सदन हैं वहाँ एक सदन का नाम विधान परिषद्
        तथा दूसरे का विधान सभा होगा और जहाँ केवल एक सदन है, वहाँ विधान सभा कहलाएगा.
             राज्यों में विधान परिषद् का यदि राज्य चाहे तो स्थापित कर सकता है, या फिर पहले से स्थापित
     है, तो उसे समाप्त भी कर सकता है. इसके लिए अनुच्छेद 169 में व्यवस्था की गई है. यदि विधान परिषद्
    की स्थापना या उत्सादन करना चाहता वहाँ की विधान सभा इस आशय कोई राज्य का संकल्प विधान सभा
    की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या के कम-से-
    कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित करके संसद के पास भेजती है, संसद विधि बनाकर विधान परिषद् का
    सृजन या उत्सादन करती है. विधान परिषद् के सदस्यों का प्रत्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचन नहीं होता है. इसमें
    एक-तिहाई सदस्य राज्य की स्थानीय निकायों जैसे नगरपालिका, जिला परिषद् आदि से बारहवाँ भाग के
    बराबर सदस्य तीन वर्ष के स्नातकों से बने निर्वाचक मण्डल से बारहवाँ भाग के बराबर सदस्य अध्यापकों
   से बने निर्वाचक मंडल से एक-तिहाई सदस्य राज्य की विधान सभा से तथा शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा
   मनोनीत किए जाते हैं.
            विधान परिषद् का राज्य में अधिक महत्व नहीं है. अतः अनेक राज्यों में इसका सृजन किया गया
    और अनेक ने इसे समाप्त कर दिया विधान सभा की तुलना में विधान • परिषद् की स्थिति, निर्बल है.
    यह केवल एक साधारण सदन है जिसे विधेयकों पर निर्णयात्मक अधिकार प्रदान नहीं किए गए . सभी
   विधेयकों के सम्बन्ध में अंतिम निर्णयात्मक अधिकार विधान सभा को ही प्राप्त हैं.

प्रश्न. क्या विभागों से सम्बन्धित संसदीय स्थायी समितियाँ प्रशासन को अपने पैर की उँगलियों पर रखती हैं और संसदीय नियंत्रण के लिए सम्मान प्रदर्शन हेतु प्रेरित करती है ? उपयुक्त उदाहरणों के साथ ऐसी समितियों के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए. (उत्तर 250 शब्दों में दीजिए)

उत्तर- संसदीय लोकतन्त्र में संसद पर अधिक कार्य होने के कारण विधि निर्माण में सहायता लेने के लिए
         तथा कभी-कभी किसी विशेष विषय पर विशेषज्ञों की राय लेने के लिए संसदीय समितियों का गठन
        किया जाता है इसमें कुछ समितियाँ विशेष रूप से धन से सम्बन्धित समितियाँ स्थायी होती हैं तथा
        कुछ समितियाँ किसी विशेष उद्देश्य के लिए उसी समय बनाई जाती हैं तथा अपना उद्देश्य पूरा करके
       समाप्त भी हो जाती है, ये स्थायी समितियाँ होती हैं. सभी समितियों में संसद के सदस्य ही सदस्य होते
      हैं तथा नियुक्तियाँ भी लोक सभा स्पीकर करता है. विभागीय समितियाँ वे होती हैं, जो किसी विशेष
      विभाग से सम्बन्धित होती है और विभाग की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए कार्य करती है.
      इनका गठन भी संसद सदस्यों में से ही किया जाता है.
               वर्तमान में 24 विभागीय समितियाँ हैं, प्रत्येक समिति राज्य सभा तथा लोक सभा के सदस्य
       सम्मिलित हैं.
            आठवीं लोक सभा में तीन विभागीय समितियों जिनमें कृषि, वन एवं पर्यावरण तथा विज्ञान एवं
     तकनीक से सम्बन्धित थी का गठन किया गया 10वीं लोक सभा में 17 तथा 16वीं लोक सभा में 24
     विभागीय समितियों का गठन किया गया.
                इन विभागीय समितियों का कार्य सम्बन्धित मंत्रालयों की ग्रांट की माँग पर कार्य करती हैं तथा
      यह कोई कटौती प्रस्ताव नहीं लातीं ये सम्बन्धित विभाग के बिलों का निरीक्षण करती हैं, विभाग एवं
      मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट पर कार्य करती हैं, मंत्रालयों/विभागों की नीति-निर्माण से सम्बन्धित
     जानकारियों एवं दस्तावेजों का निरीक्षण करती हैं. ये विभागीय समितियाँ दिन-प्रतिदिन के प्रशासन
     में हस्तक्षेप नहीं करतीं अन्य विभागों की समितियों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करतीं इन विभागीय
    समितियों की संस्तुतियाँ सलाहकारी होती हैं तथा बाध्यकारी नहीं होतीं स्पष्ट है कि विभागीय समितियों
    का कार्य क्षेत्र एवं अधिकार सीमित है. यह मंत्रालयों एवं विभागों पर कोई नियंत्रण स्थापित नहीं करतीं ये
   केवल सलाहकार के रूप में कार्य करती हैं ये संसदीय समितियों को जानकारी देकर अवश्य प्रेरित
   करती हैं.

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