Upsc gk notes in hindi-32

Upsc gk notes in hindi-32

                                Upsc gk notes in hindi-32

प्रश्न- पेट्रोलियम रिफाइनरियाँ आवश्यक. रूप से तेल उत्पादक क्षेत्रों के समीप अवस्थित नहीं हैं, विशेषकर अनेक विकासशील देशों में इसके निहिताथों को स्पष्ट कीजिए. (200 शब्द)

उत्तर- भारत कच्चे तेल एवं पेट्रोलियम उत्पादों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है. तेल शोधनशालाओं तक
          कच्चा तेल पहुँचाने और वहाँ से पेट्रोलियम उत्पादों को उपभोक्ता बाजारों तक ले जाने हेतु पाइप
         लाइन सस्ता माध्यम है. भारत में कच्चे तेल के परिवहन हेत 13,000 किमी लम्बी एंव पेट्रोलियम
          उत्पादों को ले जाने के लिए 1,700 किमी. लम्बी पाइप लाइन बिछायी गई हैं जिनकी कुल वार्षिक
         क्षमता 55 मिलियन टन है.
                      वर्तमान में केवल 30 प्रतिशत पेट्रोलियम उत्पादों का परिवहन पाइप लाइन से हो रहा है,
         जो विकसित देशों का आधा है. प्राकृतिक गैस के परिवहन की वर्तमान 9,000 किमी लम्बी पाइप
          लाइन के निकट भविष्य में कृष्णा- गोदावरी गैस को गुजरात, महाराष्ट्र हल्दिया एवं चेन्नई ले जाने
          से दो गुना हो जाने की सम्भावना है. तेल क्षेत्रों से निकाले गए कच्चे तेल में अनेक अशुद्धियाँ पाई
         जाती हैं, जिन्हें दूर करने के लिए इसका परिष्करण आवश्यक होता है. यह परिष्करण एक जटिल
         प्रक्रिया है, जिसमें भारी निवेश की जरूरत होती है. मथुरा (IOC), पानीपत, करनाल (IOC), जामनगर
         (RPL), भटिण्डा (HPCL), हल्दिया (IOC), वादिनार (Essar), बीना (म.प्र.), तैतारी (उड़ीसा), आदि
         रिफाइनरियाँ प्राय; कच्चे तेल उत्पादक क्षेत्रों से दूरी पर उपस्थित है. अल्पविकसित देशों प्रायः भारत
        जैसे देश जहाँ पट्रोलियम जैसी आवश्यक ऊर्जा संसाधनों की आवश्यकता अत्यधिक है. इसके बावजूद
           यहाँ पर इन संसाधनों अत्यधिक अल्पता पाई जाती है अत: ऊर्जा की व्यापक/ आवश्यकता को पूरा
         करने हेतु कच्चे माल का आयात करना पड़ता है. भारत में ज्यादातर कच्चे तेल का आयात खाड़ी देशों
         से करना पड़ता -है. जिनका परिष्करण हेतु भिन्न-भिन्न स्थानों पर तेल शोधन/पेट्रोलियम रिफाइनरियों
         को स्थापित किया जाता है. आवश्यकतानुसार एवं सुविधानुसार अलग-अलग राज्यों में रिफाइनरियों
        को स्थापित करके प्रत्येक राज्यों में तेल की आवश्यकता का पूरा किया जाता है. अतः इन्हीं उद्देश्यों
       से तेल शोधनशालाएं प्राय: अपने उत्पादन स्थल से दूर बनाई जाती है.
                 इससे परिवहन लागतों में कमी आती है, जिससे उनकी कीमतों में वृद्धि ज्यादा नहीं हो पाती है,
         जिससे सस्ता एवं सुलभ तेल प्राप्त साह अतः अल्पविकसित देश अपने निहितार्थों के अनुसार विभिन्न
         जगहों पर पेट्रोलियम रिफाइनरियों की स्थापना करते है.

प्रश्न- स्वतंत्रता पूर्व भारत में अकाल की स्थिति की विवेचना कीजिए? कम्पनी व क्राउन के प्रशासन में अकाल से निपटने के लिए किन आयोगों की स्थापना की गई थी, तथा उनके द्वारा सुझाए गए उपायो की व्याख्या कीजिए? (250 शब्द)

उत्तर- 18वीं शताब्दी में कम्पनी शासन के अधीन भारत के विभिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न समयों में
         अनुमानतः 12 अकाल एवं 4 भीषण सूखे पड़े. सर्वप्रथम 1769-70 में बंगाल प्रान्त में एक
         भीषण अकाल पड़ा जिससे इस प्रान्त की लगभग एक-तिहाई जनसंख्या काल के गाल में
         समा गई. इस अकाल में कम्पनी के कर्मचारियों ने अवसर देखकर अनाजों को कम दामों
        में खरीद कर काफी ऊंचे दामों में बेचा कम्पनी द्वारा कोई राहत का कार्य नहीं किया गया
       1792 में मद्रास में उत्पन्न सूखे से निपटने हेतु कम्पनी ने सहायता कार्य आरम्भ किए. इसके
       अलावा जब 1803 ई. में उत्तर प्रदेश में भीषण अकाल पड़ा तो, उस समय कम्पनी द्वारा करों
       की दरों में रियायतें प्रदान की गई.
                कम्पनी के शासनकाल में सूखे से निपटने के लिए कोई निश्चित कार्ययोजना नहीं बनाई
        गई थी. प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर अपने तरीकों से अकाल से बचने हेतु योजनाएं बनाई जाती
       थीं. जैसे- अन्न का सुरक्षित भण्डार, जमाखोरी पर दण्ड की व्यवस्था, अन्न आयात पर पुरस्कार,
        कुएँ इत्यादि के लिए ऋण प्रदान करना इत्यादि योजनाएँ चलाई गई. इस काल में कम्पनी द्वारा
        किसी भी प्रकार के आयोग की स्थापना नहीं की गई.
                    द्वितीय कालखण्ड क्राउन के अधीन प्रशासन का रहा जिसकी कालावधि 1858 से 1947 तक
        रही. क्राउन के अधीन शासन काल में भारत में आर्थिक विकास की नीतियों पर काफी ज्यादा जोर दिया
        जाने लगा. इस कालखण्ड में रेलवे तथा अन्य संचार साधनों का विकास तथा विदेशी व्यापार में उन्नति हुई.
        इस समय भी अनेक अकाल पड़े. 1860-61 में दिल्ली एवं आगरा के मध्य अकाल पड़ा. अकाल की समस्या
       से निपटने के लिए उपाय सुझाने हेतु कर्नल स्मिथ की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया. आयोग की
       सिफारिशों के आधार पर अत्यन्त न्यून स्तर पर कुछ राहत कार्य किए गए. जिसमें अनेक दरिद्रशालाओं
       (Poorhouses) का निर्माण अकाल से निपटने हेतु कराया गया.
                   1866 में उड़ीसा, मद्रास एवं उत्तरी बंगाल में एक भीषण अकाल पड़ा. यह अकाल इतना भीषण था
        कि लगभग 13 लाख लोग काल-कवलित हो गए. इस भीषण अकाल के पश्चात् सर जॉर्ज कैम्पबेल (Sir George
        Campbell) की अध्यक्षता में एक समिति मठित की गई. उसके द्वारा दी गयी सिफारिशों एवं अकाल के कारणों
        को 1880 के शाही आयोग’ (Royal Commission) की सिफारिशों में अंशतः शामिल किया गया. 1876-78 का
        अकाल मद्रास, मुम्बई, उ.प्र. एवं पंजाब तक विस्तृत था. 5 करोड़ 80 लाख की आबादी वाला यह क्षेत्र भीषण
        अकाल की चपेट में था. आर सी दत्त के अनुसार लगभग 50 लाख लोग काल कवलित हो गए. सन् 1880 में
        लिटन सरकार ने सर रिचर्ड स्टैच्ची की अध्यक्षता में अकाल के अध्ययन तथा उसके निवारण व बचाव हेतु एक
       आयोग की स्थापना की जिसे ‘स्ट्रेची आयोग’ (Strachey Commission), कहो. गया इस आयोग ने निम्न सुझाव
       दिए-
1. भूख से पीड़ित होने से पूर्व ही लोगों को काम मिले तथा समय-समय पर मजदूरी का पुनर्निर्धारण हो.
2. निर्धनों एवं निस्सहाय व्यक्तियों को भोजन देना सरकार का कर्तव्य है. यह सहायता पके हुए भोजन,
    खाद्यान्न, अथवा नकद रूप में भी दी जा सकती है, परन्तु शर्त यह थी कि ऐसे लोगों को दरिद्रशालाओं
     (Poor-houses ) अथवा सहायता शिविरों (Mendataryhouses) में रहना होगा.
3. प्रभावित क्षेत्रों में अन्न भण्डार करने वालों पर निगरानी रखनी होगी, ताकि जमाखोरी इत्यादि से बचा
     जा सके.
4. अकाल के समय भूमि व अन्य करों में छूट प्रदान की जानी चाहिए.
5 अकाल सहायता को प्रान्तीय शासन को वहन करना पड़ेगा. यदि अधिक आवश्यकता हो, तब केन्द्रीय
    सहायता उपलब्ध होगी.
6. अत्यधिक सूखे की स्थिति में दुधारू पशुओं को हरे-भरे क्षेत्रों में स्थानान्तरित करना पड़ेगा.
          1899-1900 के अकाल के बाद *मेकडॉनल आयोग का गठन किया गया जिसने 1901 में अपनी
   रिपोर्ट प्रस्तुत की इस रिपोर्ट में नैतिकतापूर्ण नीति पर बल दिया गया. इसमें पशुओं तथा कृषि बीजों के
   लिए शीघ्रता से धन मुहैया कराने तथा स्थायी कुएँ खोदने पर विशेष बल दिया गया था. प्रभावित क्षेत्रों में
   दुर्भिक्ष आयुक्त (Famine Commissioner) की नियुक्ति का सुझाव दिया गया. इसमें अराजकीय सहायता
   का अधिक उपयोग तथा बड़े-बड़े कार्यों के स्थान पर ग्राम स्तर पर कार्यों का आरम्भ किया गया. आयोग ने
   बेहतर परिवहन सुविधाएं, कृषक बैंकों, सिंचाई व्यवस्था तथा उत्तम कृषि साधनों पर बल दिया. इस आयोग
   की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया तथा लॉर्ड कर्जन के भारत से जाने से पूर्व ही कई महत्वपूर्ण कदम
   उठाए गए.

प्रश्न- वायुदाब क्या होता है? विश्व की प्रमुख वायुदाब क्षेत्रों के बारे में उल्लेख कीजिए तथा वायुदाब क्षेत्र किस प्रकार विश्व मौसम, प्रणालियों का संचालन करती हैं? विस्तृत व्याख्या कीजिए ? (250 शब्द)

उत्तर- वायुदाब जलवायु के ऐसे अदृश्य तत्व है, जो मौसम प्रणाली के अन्य घटको को व्यापक रूप से
          प्रभावित करते हैं वायु में भार होता है, जिससे यह धरातल पर दबाव उत्पन्न करता है जिसे हम
         ‘वायुदाब’ कहते हैं, हम धरातल पर वायु का दबाव महसूस नहीं कर पाते, परन्तु उध्वधिर ऊँचाईयों
          पर बढ़ने से वायुदाब कम होने के कारण मनुष्य असहज महसूस करता है. मनुष्य धरोसल पर एक
         निश्चित एवं लगभग समान वायुमण्डलीय दाब में होता है ऊँचाई पर इसी वायुमण्डलीय दबाव में कमी
         होने के कारण प्रायः भीतरी दबाव के प्रभाव से कान के परदे फट जाना, नाक से खून गिरना तथा आँखों
        से रक्त स्राव होना इत्यादि समस्याएं उत्पन्न होती हैं.
                 अक्षांशीय विस्तार के अनुसार धरातल पर कुल चार प्रकार की वायुदाब पेटियाँ पाई जाती हैं, जो
         निम्नलिखित है-
1. भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब क्षेत्र (Equatorial low pressure belt )
2. उपोष्ण कटिबंधीय उच्चदाब क्षेत्र (Sub-tropical high pressure belt )
3. उपधुवीय निम्नदाब क्षेत्र (Sub-polar low pressure belt)
4. ध्रुवीय उच्च वायुदाब क्षेत्र (Rolar Hight pressure belt)
             भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब पेटी का विस्तार 5° उत्तरी अक्षाश से लेकर 5° दक्षिणी अक्षांश
    तक होता है. इस क्षेत्र की उत्पत्ति तापीय कारणों से होती है. चूँकि यह भाग वर्षभर अधिकतम सूर्यताप
    प्राप्त करता रहता है, | जिससे वायु हल्की होकर उर्ध्वगामी होने लगती है. इसी कारण यहाँ निम्न वायुदाब
    का निर्माण होता है इसके विपरीत उपोष्ण वायुदाब/ “कटिबन्धों में उच्चदाब होने से इस पवन क्षेत्र (उपोष्ण
    पवन क्षेत्र) की हवाएं भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब की क्षेत्र में अभिसरण करती हैं. जिससे एक मौसम प्रणाली
    का उदय होता है, जो सम्पूर्ण विश्व के तापमान एवं मौसम को दिशा प्रदान करती है.
             द्वितीय क्षेत्र उपोष्ण कटिबन्धीय पेटी कहलाती है जिसका विस्तार 25° उत्तरी अक्षांश से लेकर 35°
    उत्तरी अक्षांश तक होता है. इस क्षेत्र का निर्माण गत्यात्मक कारणों से होता है. यहाँ पर विषुवत रेखीय निम्न
    दाब क्षेत्र एवं उपध्रवीय ‘निम्न वायुदाब क्षेत्र की हवाएं ऊपर से अभिसरण करती हैं. जब ये हवाएं ऊपर से
    नीचे दबती हैं, तब इनके तापमान में वृद्धि हो जाती है, जिससे यहाँ पर आसमान सदैव मेघ रहित तथा उच्च
     वायुदाब की स्थिति उत्पन्न होती है. इन उच्च वायुदाब क्षेत्रों को ‘अश्व अक्षांश’ (Horse Latitude) कहा जाता
     है. ऐसा इसीलिए कहा जाता है क्योंकि प्राचीनकाल में स्पेन से घोड़े लेकर पाल से चलने वाले जलयान जब
     नई दुनिया से (उत्तरी अमरीका) के लिए चलते थे, तब इस अक्षांश में पवनें न चलने के कारण आगे बढ़ना
     कठिन हो जाता था. ऐसी स्थिति में कुछ घोड़े समुद्र में फेंक दिए जाते थे अतः इसे अश्व अक्षांश (Horse
     Latitude) भी कहा जाने लगा.
                   उपध्रुवीय निम्नदाब क्षेत्र (Sub-polar low pressure belt) दाब क्षेत्र 60° एवं 70″ उत्तरी गोलार्द्ध
     एवं दक्षिणी गोलार्द्ध दोनों स्थानों पर स्थित होती है, परन्तु उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलखण्डों की अधिकता होने के
     कारण इस क्षेत्र में चलने वाली पवनों की निरन्तरता भंग हो जाती है, परन्तु महासागरों में एक समानता होने से
     निम्न वायुदाब केन्द्रों की बेहतर स्थिति बनी रहती है. अतः महासागरों में इन्हें विभिन्न अक्षांशों पर भिन्न भिन्न नामों
      से पुकारा जाता है, जैसे40° दक्षिणी अक्षांश पर ‘गरजता चालीसा 50″ दक्षिणी अक्षांश ‘प्रचंड पचासा एवं 60°
     दक्षिणी अक्षांश पर चीखता साठा’ के नामों से जाना जाता है. इसमें शीत ऋतु में वायुदाब अत्यधिक नीचा रहता है.
               ध्रुवीय उच्च वायुदाब क्षेत्र, (Polar high pressure belts) की उत्पत्ति तापीय कारणों से होती है. ध्रुवों पर
     सूर्यताप की मात्रा बहुत कम होती है, जिससे वहाँ हमेशा बर्फ की मोटी परतें जमा रहती हैं, जिसके कारण वायु में
     अत्यधिक शीतलता उत्पन्न हो जाती है. जिससे इस क्षेत्र में उच्च वायु दाब उत्पन्न होता है. भौगालिक बल की
     अधिकता होने के कारण यहाँ की पवनें दाहिनी तरफ मुड़ जाती हैं, इन्हें ध्रुवीय पुरवा (Polar easterlies)
      कहा जाता है.
निष्कर्षत: हम कह सकते हैं, कि विभिन्न वायुदाब क्षेत्र विश्व मौसम प्रणालियों का संचालन एवं नियमन करते हैं.
               जिससे विश्व भर में मौसम प्रणालियाँ सुचारू रूप से चलती हैं.

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