Upsc gk notes in hindi-34
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प्रश्न. भक्ति साहित्य की प्रकृति का मूल्यांकन करते हुए भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का निर्धारण कीजिए.(उत्तर 150 शब्द, अंक 10)
उत्तर- भक्ति आन्दोलन भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आन्दोलन रहा है, जो लगभग 1400 वर्षों तक
चलता रहा तथा इसने भारतीय समाज के विविध पक्षों पर अपना प्रभाव छोड़ा. देखा जाए तो 8वीं
से 17वीं सदी तक का दौर भक्ति साहित्य का दौर था सगुण और निर्गुण भक्ति की यह परम्परा
दक्षिण के अलवार तथा नयनार सन्तों से शुरू होकर उत्तर भारत में कबीर, सूर, मीरा, चैतन्य,
रैदास, दादू, तुकाराम, नामदेव आदि भक्ति सन्तों तक आती है.
● भक्ति साहित्य ने देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय भाषा के विकास को बढ़ावा दिया पूर्वी उत्तर प्रदेश
में चन्दायन के लेखक मुल्ला दाउद जैसे-सूफी सन्तों, पद्मावत के लेखक मलिक मुहम्मद जायसी ने
अपनी रचनाएं हिन्दी में लिखीं और सूफी अवधारणाओं को एक ऐसे रूप में सामने रखा, जिसे आम
आदमी आसानी से समझ सके भाषाओं के पूर्वी समूह में बांग्ला का प्रयोग चैतन्य और कवि चंडीदास
द्वारा किया गया था, जिन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम के विषय पर विस्तार से लिखा.
● अलवार सन्तों के नलयिरा दिव्य प्रबन्धन से लेकर कबीर के बीजक, रैदास की निरन्जन देवा, सूरदास की
सूरसागर, मीराबाई की राग गोविन्द, चैतन्य की चरितामृत, सन्त तुकाराम के अभंग पद आदि भक्ति साहित्य
ने भारतीय समाज की जड़ता एवं ठहराव के खिलाफ विस्फोट किया.
● यह सम्पूर्ण साहित्य जीवन प्रेम, सत्य, न्याय और स्वाभिमान की भावना पर आधारित रहा इन सन्तों ने अपने
भक्ति काव्यों के माध्यम से सामाजिक संवेदना के सन्दर्भ में ईमानदारी, श्रमशीलता, वैज्ञानिक विवेकवाद के
साथ-साथ प्रकृति में निवृत्ति का मार्ग प्रस्तुत किया.
● यह साहित्य अपने स्वरूप में समतावादी, जाति प्रथा विरोधी और धर्म निरपेक्ष था इस साहित्य ने जाति के
आधार पर समाज के सबसे उपेक्षित और उत्पीडित तबकों को स्वाभिमान दिया, वहीं सामंती संस्कृति पर
आक्रमण करके सहज प्राकृतिक जीवन की प्रतिष्ठा को स्थापित करने का प्रयास किया.
● भक्ति साहित्य का सार सामाजिक भेदभाव का विरोध था, लेकिन यह व्यावहारिक रूप से जाति प्रथा पर
निर्णायक चोट नहीं कर सका, जिससे समाज की सामाजिक-धार्मिक स्थितियों में अपेक्षित बदलाव नहीं
आया.
● बावजूद इसके इसने भारतीय समाज की जो रूढ़िवादी परम्परागत व्यवस्था थी जिसकी सिरमौर जाति
व्यवस्था थी उससे टकराने का प्रयास किया और एक तरह से यह कह सकते हैं कि भक्ति आन्दोलन
अपने आप में प्रासंगिक था उसने सबसे पिछड़े हुए तथा उपेक्षित तत्व जो भेदभाव के शिकार थे उनको
कहीं-न-कहीं अपनी अस्मिता तथा अपने अस्तित्व को बनाए रखने हेतु एक आवाज दी.
प्रश्न. यंग बंगाल एवं ब्रह्मो समाज के विशेष सन्दर्भ में सामाजिक धार्मिक सुधार आन्दोलनों के उत्थान तथा विकास को रेखांकित कीजिए.(150 शब्द, 10 अंक)
उत्तर- भारत में 19वीं सदी का समाज एवं धर्म सुधार आन्दोलन पाश्चात्यवादी एवं परम्परावादी तत्वों के बीच
परस्पर संवाद का परिणाम है इसे हम प्रभाव बनाम प्रतिक्रिया का नाम दे सकते हैं. यद्यपि कुछ संस्थाओं
में प्रभाव का तत्त्व अधिक है, तो कुछ में प्रतिक्रिया का
● इस सदी के समाज और धर्म सुधार आन्दोलनों का नेतृत्व ब्रह्म समाज और यंग बंगाल जैसे आन्दोलनों ने
किया ब्रह्मसमाज ने आधुनिक राष्ट्रवाद, आधुनिक पत्रकारिता एवं आधुनिक चेतना क्रो प्रोत्साहन दिया
इसने महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य/ किया और जाति व्यवस्था पर चोट की भारत में सुधार आन्दोलन
का प्रवर्तक ब्रह्म समाज को माना जाता है इसके संस्थापक राजा राम मोहन राम थे उनका उद्देश्य हिन्दू धर्म
के आडम्बरी रूढ़िवादी विचारों का विरोध और एकेश्वेरवाद का समर्थन करते हुए मानव विवेक और मानव
गरिमा को ऊंचा स्थान दिलाना था.
● राजा राम मोहन राय आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे, उन्होंने जाति प्रथा, सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह
आदि कुरीतियों का जमकर विरोध किया उन्होंने प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों के आधार पर यह साबित करने का
प्रयास किया कि ये कुरीतियाँ भौतिक हिन्दू धर्म की मान्यताओं के खिलाफ हैं.
● हेनरी विवियन डेरेजियो के यंग बंगाल आन्दोलन ने जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
में खड़ा करने का प्रयास किया उनके संगठन, एकेडमिक एसोसिएशन ने आत्मिक उन्नति और समाज सुधार
के क्षेत्र में काम करते हुए स्वर्वजनिक आन्दोलन चलाए.
● प्रेस की स्वतन्त्रता, जमींदारों के अत्याचारों से रैयतों की सुरक्षा, भारतीयों को सरकारी सेवाओं में भर्ती की माँग
आदि क्षेत्रों पर कार्य किया.
● हालाँकि, यह दोनों आन्दोलन लम्बी अवधि तक भले ही सफल नहीं हो सके तथापि इन्होंने सभी भावी आन्दोलनों
और सुधारकों को प्रेरित किया इन आन्दोलनों ने जाति विभाजन, क्षेत्रीय विभाजन तथा लैंगिक विभाजन को कमजोर
किया. तब भारत आधुनिक राष्ट्रवाद के रूप में विकसित हो सका.
प्रश्न. भारतीय रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया में मुख्य प्रशासनिक मुद्दों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं का आकलन कीजिए. (उत्तर 150 शब्द, अंक 10)
उत्तर- भारत में स्वतन्त्रता के समय राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देशी रियासतों के
विलय का मुद्दा उपस्थित हुआ इस मार्ग में पहली बाधा स्वयं ब्रिटिश सरकार रही थी जिसने
भारतीय ‘डोमिनियन को सर्वोच्च सत्ता हस्तान्तरित करने से मना कर दिया. इसके अतिरिक्त
विलय/ के मार्ग में प्रशासनिक मुद्दे एवं सामाजिक सांस्कृतिक चुनौतियाँ खड़ी थीं
● आजादी से पहले रजवाड़े ब्रिटिश शासन की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए अपने घरेलू मामलों
का शासन चलाते थे लेकिन आजादी के बाद वह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में शामिल होने के लिए
तैयार नहीं थे.
● एक समस्या यह भी थी कि देशी भारतीय यूनियन में देशी रियासतों का किन-किन शर्तों पर विलय
हो और राज्य के मुखिया की हैशियत क्या हो? कई रियासतों ने एकीकरण अधिनियम की विधियों
द्वारा भारत में शामिल होना स्वीकारा.
● हालांकि, त्रावनकोर, हैदराबाद, मणिपुर, कश्मीर तथा जूनागढ़ के रजवाड़ों ने आनाकानी की विभिन्नताओं
को सम्मान देने और विभिन्न क्षेत्रों की मांगों को सन्तुष्ट करने के लिए भारत सरकार ने रुख लचीला रखा
और कुछ राज्यों को स्वायत्तता देने की शर्त पर मनाया.
● हैदराबाद और जूनागढ़ रियासतों को सैन्य कौशल और राजनीतिक जरिए से शामिल होने के लिए मजबूर किया.
● विभिन्न सीमाओं के सीमांकन का सवाल और क्षेत्रीय अखण्डता को बनाए रखना भी प्रमुख प्रशासनिक मुद्दे थे.
● दक्षिण भारत में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन का मुद्दा प्रमुख था यह एक विकट चुनौती थी, जो सीधे देश
की एकीकरण की प्रक्रिया को प्रभावित करती थी.
● देश को भाषा बोली, संस्कृति, धर्म आदि विविध पक्षों के आधार पर एकजुट करना भी चुनौती थी पहली बार
लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था लागू हो रही थी, जिसका अनुभव किसी के पास नहीं था. संविधान का निर्माण,
उसे लागू करना और पूरे भारत में संविधान के अनुरूप व्यवहार और बर्ताव की स्वीकार्यता प्रमुख चुनौती थी.
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