Upsc gk notes in hindi-54
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प्रश्न. कम्पनी के अधीन विभिन्न प्रकार की भू-राजस्व व्यवस्थाओं के प्रभाव का मूल्यांकन कीजिए.
उत्तर- कम्पनी की भू-राजस्व व्यवस्थाओं (स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवारी व्यवस्था एवं महालबारी
व्यवस्था) का मूल्यांकन निम्नलिखित आधार पर किया जा सकता है-
(1) सभी प्रकार के भू-राजस्व बन्दोबस्त भू-राजस्व की रकम अधिकतम रूप में निधारित की गई
इसके परिणामस्वरूप किसानों को क्रय शक्ति में क्षीण हो गई तथा कृषि पिछड़ती चली गई फिर
आगे के पश्चात् जब भारत में औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ की गई, तो फिर कृषि अर्थव्यवस्था
उद्योगों को संरक्षण न दे सकी.
(2) भूमि को विक्रय योग्य बना दिया गया. इसके परिणामस्वरूप धनी और धनी तथा गरीब और गरीब होते
चले गए अर्थात् ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक विभाजन प्रोत्साहन मिला.
(3) भूमि में निजी स्वामित्व की अवधारणा के विकास तथा भूमि को विक्रय योग्य बनाए जाने का स्वभाविक
दुष्परिणाम था. भूमि के विखण्डन को प्रोत्साहन
(4) भू-राजस्व की रकम अधिकतम होने के कारण किसान इस रकम को चुकाने में असमर्थ हो जाते थे
अतः उन्हें अतिरिक्त रकम महाजनों से लेनी पड़ती थी. इस प्रकार वे ऋणजाल में फँसते चले गए इस
प्रकार ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत एक ज्वलन्त समस्या के रूप में उभरीग्रामीण ऋणग्रस्तता.
(5) स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्र में, कम्पनी की सरकार ने ऊपर के स्तर पर सामंतवाद तथा नीचे के स्तर
पर कृषि दासता को प्रोत्साहन दिया.
(6) भू-राजस्व की इस बड़ी रकम को चुकाने में असमर्थता के कारण किसानों ने नकदी फसलों को अपनाया
एवं आरम्भ किया. जैसा कि हम जानते हैं कि नगदी, फसलों की खेती के कारण परम्परागत फसलों
का उत्पादन दुष्प्रभावित हुआ. इसका स्वभाविक परिणाम था खाद्यान्नों की कमी एवं भुखमरी.
प्रश्न. इल्बर्ट बिल विवाद क्या था ? इसने स्वतन्त्रता आन्दोलन के उभार में क्या भूमिका अदा की ?
उत्तर-यह विडम्बना ही है कि लिटन से अधिक उदारवादी उनके उत्तराधिकारी रिपन के शासन काल
में भारतीयों को अपने अंग्रेज शासकों के जातीय पूर्वाग्रह का अत्यधिक विकृत रूप देखने को मिला
यह विषय यूरोपीय अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए भारतीय न्यायाधीशों और जिलाधीशों के
अधिकार क्षेत्र से सम्बन्धित था प्रचलित कानून के अन्तर्गत भारतीय मजिस्ट्रेट तथा न्यायाधीश फौजदारी
मामलों में यूरोपीय ब्रिटिश लोगों के मुकदमों की सुनवाई नहीं कर सकते थे. यूरोपीय मजिस्ट्रेटों और
न्यायाधीशों पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध हालांकि नहीं था रिपन ने भारतीयों को और समान अधिकार दिलाने
के लिए इस स्थिति को परिवर्तित करने का प्रयास किया वायसराय की परिषद् में विधि सदस्य सर कोर्ट
इल्बर्ट ने 1883 में गवर्नर जनरल की विधान परिषद् में एक बिल पेश किया (जिसे सामान्यतया इल्बर्ट बिल
के नाम से, जाना गया) ताकि इस सम्बन्ध में भारतीय अधिकारियों की निर्योग्यता को समाप्त किया जा सके
वायसराय ने यह स्पष्ट किया कि वे केवल भारतीय भिन्नता के आधार पर प्रत्येक न्यायिक अयोग्यता को
समाप्त करना चाहते हैं तथापि इल्बर्ट बिल से काफी खलबली मची और जोरदार विवाद उत्पन्न हुआ इस
सुविचारित परिवर्तन का तीव्र विरोध करते हुए यूरोपीय समुदाय ने यह जोरदार घोषणा की कि फौजदारी
के मामले में अत्यधिक शिक्षित भारतीय भी किसी यूरोपीय के प्रकरण की सुनवाई करने के योग्य नहीं हैं.
यूरोपियों के दबाव को देखते हुए रिपन ने इस बिल पर विचार कर इसे संशोधित किया जिसमें फौजदारी
अपराधों के दोषी यूरोपीय ब्रिटिश नागरिकों के लिए ऐसी अदालत में मुकदमा चलाए जाने की व्यवस्था का
प्रावधान किया गया जिसके कम-से-कम आधे सदस्य जूरी के रूप में यूरोपीय या अमरीकी हों. इल्बर्ट बिल
विवाद गोरों के बीच whatsa से भारतीयों को काले और पड़ी हुई दरार के बारे में कोई संदेह नहीं रह गया.
इससे भारतीय जनता में एकता की बढ़ती हुई भावना में तेजी आई तथा भारत में | राजनीतिक चेतना और
अधिक बलवती हुई.
प्रश्न. पं. जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी दर्शन का विश्लेषण एवं व्याख्या कीजिए.
उत्तर- मार्क्सवाद एवं गांधीवाद की परस्पर टकराहट के पश्चात नेहरू के समाजवाद का विकास
हुआ. अर्थात् एक तरफ जहाँ नेहरू मार्क्सवाद के प्रभाव में वर्ग संघर्ष में विश्वास करते हैं,
वहीं दूसरी तरफ गांधीवाद के प्रभाव में अहिंसक तरीकों में विश्वास करते हैं अर्थात वे
संसदीय संस्थानों के माध्यम से समाजवादी रूपान्तरण लाना चाहते हैं.
नेहरू की विदेश नीति तथा नेहरू की आर्थिक नीति की तरह नेहरू के समाजवाद को भी तीसरी
विधि (Third Path) कहा का जा सकता है दूसरे शब्दों में एक तरफ जहाँ उन्होंने समाजवादी देशों से
आर्थिक समानता का मॉडल लिया. वहीं दूसरी तरफ पश्चिमी देशों से उन्होंने वैयक्तिक स्वतन्त्रता का
मॉडल ग्रहण किया तथा फिर दोनों को मिलाकर अपने समाजवादी मॉडल विकास करते वे एक ही
साथ आर्थिक समानता का लक्ष्य भी प्राप्त करना चाहते हैं वहीं दूसरी ओर व्यक्ति की स्वतन्त्रता को भी
अक्षुण्ण रखना चाहते थे वे व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुचलकर समाजवाद को लक्ष्य प्राप्त करने के
पक्षपाती नहीं हैं यही वजह है कि वे व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए आर्थिक परिवर्तन
की प्रक्रिया को धीमा करने के लिए भी तैयार है.
समाजवाद का मुख्य बल आर्थिक पुनर्वितरण पर होता है, अर्थात जिनके पास धन है उससे वेह छीनकर
उन्हें देना, जो निर्धन है, किन्तु नेहरू का मुख्य बल उत्पादन पर है फिर वितरण पर उनका कहना था कि
अगर उत्शदन नहीं हो तो फिर वितरण किसका ? क्ग भूख और गरीबी का ? उन्होंने घोषित किया कि
गरीबी का कोई समाजवाद नहीं होता है, अतः इनको मानना था कि उत्पादन के ढाँते को दुष्प्रभावित कर
वितरण के लक्ष्य को प्राप्त करना उचित नहीं है यही वजह है कि नेहरू अपने समाजवाद के लिए समाजवाद
शब्द का प्रयोग नहीं करते वरन उसे समाज के समाजवादी ढाँचे के विकास का नाम देते हैं.
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