Upsc gk notes in hindi-57
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प्रश्न. मन्दिर वास्तुकला के विकास में चोल वास्तु का उच्च स्थान है विवेचना कीजिए.
उत्तर- चोल काल में मन्दिर स्थापत्य की द्रविड़ शैली को अपनाया गया वास्तुकला का प्रारम्भ पल्लव
काल में ही हो था लेकिन यह शैली चोल काल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची. चोलों (राजाराज-I से
कुलोतुंग-1 तक) के दौर में तंजावुर (तंजौर) वहदेश्वर मन्दिर का निर्माण किया गया, जो द्रविड़ शैली
का सर्वप्रथम नमूना माना जाता है.
चोलों ने 10वीं एवं 11वीं सदी में दक्षिण भारत में एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया और इसी
विशालता का दर्शन उनकी स्थापना कला में भी होता है चोलकालीन कलाकारों द्वारा बहुसंख्यक पाषाण
व कांस्य मूर्तियाँ बनाई गई, जिसके साक्ष्य आज भी दक्षिणी पूर्वी एशिया के उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, जहाँ
चोलों ने अपनी विजय पताका फहराई चोल मन्दिर वास्तुकला, मूर्तिकला की पूरक थी, जिससे मूर्तियों के
निर्माण, अलंकरण में भी विविधता व सजीवता स्पष्टतः दिखाई देती है. चोल शासकों ने द्रविड़ शैली के
अन्तर्गत ईंटों की जगह पत्थरों / और शिलाओं का प्रयोग कर भव्य मन्दिरों का निर्माण कराया, जिसका
अनुकरण पड़ोसी राज्यों एवं देशों द्वारा भी किया गया द्रविड़ शैली के अन्तर्गत बनाए गए चोलकालीन
मन्दिरों के विमान अधिक ऊँचे व छत पिरामिडनुमा व आधार वर्गाकार था, जिसमें अनेक मंजिलें होती
थीं ये मन्दिर मुख्यत: विशाल प्रांगण से घिरे होते थे प्रांगण में छोटे-बड़े अनेक मन्दिर, कक्ष तथा जलकुंड
होते थे तथा प्रांगण का मुख्य द्वार गोपुरम्’ कहलाता था चोलकालीन मन्दिर स्थापत्य कला की व्यापकता
का प्रमुख कारण देवी-देवताओं की मुख्य प्रतिमा के स्थान पर मन्दिरों में राजा व उनकी रानियों की मूर्तियों
तथा युद्ध दृश्यों को स्थान देना रहा हालांकि मन्दिरों की सजावट के लिए विभिन्न स्त्री आकृतियों को बाहरी
दीवारों के सहारे जोड़ा गया है एवं यह मूर्तियाँ इतनी उभार युक्त है, जिससे ये सजीव-सी प्रतीत होती है,
साथ ही कोंसे की मूर्तियों का भी निर्माण चलन में था, जिसका प्रमुख विषय शिव-पार्वती थे चोलकालीन
‘नटरोज’ की मूर्ति को तो विश्व ख्याति भी प्राप्त है.
अतः कहना उचित होगा कि द्रविड़ शैली की पराकाष्ठा चोलकालीन श्री सुंदरेश्वर मन्दिर बालसुब्रमण्यम
मन्दिर विजयालय चोलेश्वर मन्दिर, वृहदेश्वर और गंगकोडचोलपुरम् मन्दिरों में स्पष्ट दिखाई देती है. चोल
कलाकारों ने मन्दिरों की दैत्यों के समान कल्पना की तथा जौहरियों की समान उसे पूरा किया चोलकालीन
ने मन्दिर वास्तुकला की भव्यता कारण ही इसे दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला का स्वर्णयुग कहा जाता.
प्रश्न. क्या कारण था कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक आते-आते नरम दलीय अपनी घोषित विचारधारा तथा राजनीतिक लक्ष्यों के प्रति राष्ट्र के विश्वास को जगाने में असफल हो गए थे ?
उत्तर- 19वीं शताब्दी के मध्य से ही भारत में राजनीतिक चेतना के नए युग की शुरूआत हो गई थी,
किन्तु इसे संस्थागत स्वरूप कांग्रेस की स्थापना के बाद मिला कांग्रेस के आरम्भिक 20 वर्षों को नरम
दलीय दौर के नाम से जाना जाता है नरमे दलीय विचारधारा के नेता ब्रिटिश विरोधी नहीं थे. उनका
मानना था कि यदि वे अहिंसक तथा संवैधानिक तरीके से अपनी. माँगों को सरकार के सामने रखेंगे
तो उनकी न्यायोचित माँगों को अवश्य मान लिया जाएगा उनके राजनीतिक लक्ष्य थेप्रशासन में भारतीयों
की भागीदारी को बढ़ाना विधान सभाओं को ज्यादा अधिकार दिलवाना विधान सभाओं के सदस्यों को
निर्वाचित करके विधान सभाओं को प्रतिनिधि संस्थाएं बनाना, जिन प्रांतों में विधान सभाएं नहीं हैं वहाँ
इनकी स्थापना किया जाना, भू-राजस्व में कमी किया जाना तथा भारतीय धन के बहिर्गमन को जाना
इत्यादि कांग्रेस की अपेक्षाओं के विपरीत ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की माँगों पर कोई ध्यान नहीं दिया.
1892 के एक्ट से भी भारतीय जनता को निराशा मिली. 19वीं सदी के अंत तक ब्रिटिश सरकार ने खुली
घोषणा की कि भारतीय किसी भी महत्वपूर्ण पद के योग्य नहीं हैं यद्यपि नरम/ दलीय मांगों को सरकार
ने नहीं माना तथा गरम दलीय नेताओं ने उनकी नीति को अनुनय-विनय की नीति कहकर उनकी आलोचना
भी की, तथापि इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरम्भिक 20 वर्षों में कांग्रेस ने लोगों को एक
व्यापक राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए एकजुट किया, रोका जिससे क्रमबद्धे राजनीतिक विकास की शुरूआत हुई.
प्रश्न. “विलेप्च से होने वाली जापानी औद्योगिक क्रांति में ऐसे कारक भी थे, जो पश्चिमी देशों के अनुभवों में बिलकुल भिन्न थे.”
उत्तर-राष्ट्रों के विकसित होने में क्रांति की प्रमाण भूमिका रही है. औद्योगिक क्रांति का प्रारम्भ 18वीं
सदी के उत्तरार्द्ध 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इंगलैण्ड में हुआ इसके पश्चात् यह असर यूरोपीय देशों
तथा विश्व के अन्य भागों में फैली जापान में औद्योगिक क्रांति यूरोपीय देशों की तुलना में विलम्ब से
मेइजी शासन पुनर्स्थापना (1868) के बाद में शुरू हुई. जापान ने भी अपने आधुनिकीकरण के लिए
पाश्चात्य औद्योगिक नीति का अनुसरण कर औद्योगिक क्रांति की ओर ध्यान दिया, किन्तु जापानी
औद्योगिक क्रांति में कुछ ऐसे कारके भी थे, जो पश्चिमी देशों से भिन्न थे.
जापान में औद्योगीकरण में राज्य प्रमुख भूमिका में था. जोपानी सरकार ने विदेशों से भारी मात्रा में
ऋण लेकर उद्योगों को विकसित किया तथा बाद में उन्हें निजी हाथों में सौंप दिया, जबकि पश्चिमी
देशों में औद्योगिक क्रांति के पीछे निजी उद्यमियों की प्रमुख भूमिका थी. इस प्रकार जापान में
औद्योगिक पूँजी का स्वतंत्र रूप में विकास नहीं हुआ था अधिकतर निजी उद्यमी बैंकिंग घराने के
ही प्रतिनिधि थे इस कारण नया औद्योगिक वर्ग सामने नहीं आ पाया. इसके अतिरिक्त जापान में
औद्योगीकरण की प्रक्रिया युद्ध उपकरणों के निर्माण की भी प्रेरित थी, जबकि, आवश्यकता पश्चिमी
देशों में औद्योगिक क्रांति के पीछे जो कारण निहित थे. उनमें उपभोक्ता वस्तुओं की प्रधानता थी
इसके अतिरिक्त यूरोपीय देशों में हुई औद्योगिक क्रांति जहाँ एक सहज प्रक्रिया का परिणाम थी,
वहीं जापान में ऐसी अनुकूल परिस्थितियों विद्यमान नहीं थी. वर्षों से जापान का बाह्य जगत् से सम्पर्क
नहीं था इसलिए अन्य देशों में जापान के माल की माँग पैदा करने में काफी समय लगा. यह भी स्मरणीय
है कि यूरोप में पूँजीवाद के विकास फलस्वरूप एक नवोदित मध्यम वर्ग का उदय हुआ था. जिसने राज्य
का निरंकुशता पर नियंत्रण लगाया वहीं जापान में ऐसा नहीं हुआ और राज्य की देख-रेख में ही औद्योगिक
पूजीवाद का विकास हुआ.
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जापान में होने वाला औद्योगिक क्रांति में कुछ तत्व ऐसे भी थे,
जो इसके पूर्व के यूरोपीय अनुभवों में भिन्न थे.
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