Upsc gk notes in hindi-64

Upsc gk notes in hindi-64

                              Upsc gk notes in hindi-64

प्रश्न. क्या राज्यपाल का कोई विवेकाधिकार है? उसकी विवेकाधिकार की शक्तियों का उल्लेख कीजिए.

उत्तर-राज्यपाल अपनी कार्यकारी सम्बन्धी विधायी, वित्तीय तथा न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करते समय
मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद् से परामर्श तथा सहयोग लेता है, उसकी यह शक्तियाँ उसे अपने राज्य
के अध्यक्ष के नाते मिली हुई हैं. उसकी कुछ अन्य शक्तियाँ भी हैं जो उसे केन्द्रीय सरकार के प्रतिनिधि के
रूप में मिली हुई हैं. इन शक्तियों को स्वविवेक की शक्तियाँ भी कहते हैं. ऐसा कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में
होता है। जब राज्यपाल मंत्रिपरिषद् के परामर्श के बिना कोई कार्य करता है. दूसरे शब्दों में यह कहा जा
सकता है कि राज्यपाल की ऐसी शक्तियों का प्रयोग उसकी इच्छा पर निर्भर करता है. ये शक्तियाँ हैं-
1. यदि राज्यपाल के विचार में राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो चुका हो तो वह उसकी सूचना तुरन्त
राष्ट्रपति को देकर, राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर सकता है, ऐसी स्थिति में मंत्रिपरिषद्
की सलाह न लेकर राज्यपाल स्वयं निर्णय करता है. इसलिए इसे स्वविवेक सम्बन्धी शक्ति कहा जाता है,
यदि राज्यपाल की सिफारिश राष्ट्रपति द्वारा स्वीकार कर ली जाती है, तो अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति
संकट काल की घोषणा करता है और मंत्रिपरिषद् को भंग कर दिया जाता है. विधान सभा भी या तो भंग
कर दी जाती अथवा स्थगित कर दी जाती है. इस काल में राज्यपाल राष्ट्रपति के अभिकर्ता के रूप में शासन
करता है.
2. एक परिस्थिति यह भी हो सकती है कि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित
रखना चाहे, क्योंकि राज्यपाल यह निर्णय स्वयं अपने आप लेता है, इसलिए यह भी उसकी स्वविवेक की
शक्ति है. राज्यपाल की स्वविवेक की शक्तियाँ असामान्य और संकट काल के लिए रखी गई हैं, किन्तु देखा
यह गया है कि इन शक्तियों का प्रयोग, केवल ऐसी परिस्थितियों में हुआ है बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी
विवादास्पद तरीके से किया गया है, जिससे केन्द्र और राज्यों के सम्बन्ध में तनाव पैदा हुआ है.

प्रश्न. लोकतंत्र में स्वतंत्र न्यायपालिका का क्या महत्व है वे कौनसे उपबंध है जो न्यायालय की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करते हैं ?

उत्तर – स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व इन तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है-
1. नागरिकों की स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा स्वतंत्र न्यायपालिका ही नागरिकों की स्वतंत्रता और
मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सकती है संविधान ने नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए
हैं जिन पर यदि कोई प्रतिबंध लगाने का प्रयत्न करता है तो न्यायपालिका उसे दण्डित करने का प्रावधान
कर सकती है.
2. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति-न्यायपालिका को अपने इस महत्वपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए स्वतंत्र होना
ओवश्यक है. उसके कार्यों में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए.
3. लोकतंत्र की सुरक्षा – लोकतंत्र के अनिवार्य तत्व स्वतंत्रता और समानता है. अतः नागरिकों को स्वतंत्रता
और समानता के अवसर उसी समये प्राप्त हो सकेंगे जब न्यायपालिका निष्पक्षता के साथ अपने कार्य का
सम्पादन करेगी.
4. संविधान की सुरक्षा – स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान का रक्षक होती है. न्यायपालिका संविधान विरोधी
कानूनों को अवैधा घोषित करके रद्द कर देती है अतः संविधान के स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए स्वतंत्र
न्यायपालिका का होना आवश्यक है.
5. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण – स्वतंत्र न्यायपालिका व्यवस्थापिका और कार्यपालिका
पर नियंत्रण रखकर शासन की कार्यकुशलता में वृद्धि करती न्यायपालिका संविधान का रक्षक होती है.
न्यायपालिका संविधान विरोधी कानूनों को अवैध घोषित करके रद्द कर देती है. अतः संविधान के स्थायित्व
एवं सुरक्षा के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है.

प्रश्न. लोकतंत्र की आधारभूत संस्थाओं के रूप में पंचायतों की कार्य प्रणाली का मूल्यांकन कीजिए.

उत्तर- ग्रामीण और शहरी दोनों स्तरों पर तृणमूल स्तर पर लोकतंत्र की अवधारणा फल-फूल नहीं पाई
इस असफलता के पीछे कुछ मुख्य कारण प्रशासन का राजनीतिकरण, निर्वाचित संस्थाओं अपराधियों
का प्रवेश, व्याप्त भ्रष्टाचार, जातीय और वर्गीय विभाजन, जन कल्याण के ऊपर स्वार्थ को प्राथमिकता
और चुनावी अनाचार हैं 73वाँ संशोधन अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों और
महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करके गाँवों के ढाँचे में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहता है, परन्तु
उचित शिक्षा की कमी. प्रशिक्षण और आर्थिक स्वतंत्रता की कमी के कारण ये समूह अपनी शक्ति प्रकट
करने में असमर्थ हैं. निरक्षरता, गरीबी और बेरोजगारी मुख्य बाधाएं हैं. इन समस्याओं से जूझने के लिए
आवश्यक कदम उठाने बहुत जरूरी हैं जिससे सहभागी विकास हो सके यद्यपि महिलाओं के लिए सीटों
के आरक्षण को उनके पुरुष साथियों अधिकांशतः उनके पतियों ने गलत प्रयोग किया है, परन्तु निश्चित रूप
से इसने महिलाओं को कुछ हद तक सशक्त किया है. वह अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति अधिक
जागरूक होती जा रही हैं और कुछ मामलों में तो अपनी शक्ति प्रदर्शित कर रही हैं. निश्चय ही यह बहुत
सकारात्मक विकास है.
नवीनतम संविधान संशोधनों ने स्थानीय स्वशासी निकायों के वित्तीय संसाधनों को व्यापक किया है, फिर
भी उन्हें पैसे की कमी है. उन्हें कर लगाने की शक्ति दी गई है पर वे पर्याप्त कर एकत्रित नहीं कर पाते.
अतः संसाधनों की कमी के कारण पंचायतें स्वशासी संस्थाओं के रूप में अपनी भूमिका निभाने अथवा
ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक विकास करने में सफल नहीं हुई हैं. पंचायतों पर राज्य सरकार के अनेक नियंत्रण
हैं. राज्य सरकारों को उनके प्रस्ताव रद्द करने और उन्हें भंग करने तक का अधिकार है परन्तु 73वें संशोधन
ने राज्यों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वे पंचायती राज संस्थाओं के भंग होने के छह मास के अंदर
उनके चुनाव करवाए.
यह आवश्यक है कि लोग लोकतान्त्रिक ढंग से निर्वाचित पंचायतों में सक्रिय भागीदारी करें. इसे ग्राम सभा
के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है. ग्राम सभाओं के माध्यम से लोग पंचायतों से प्रश्न कर सकते हैं
और स्पष्टीकरण की माँग कर सकते हैं. ग्राम सभा लोगों की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं में तालमेल
कर सकती है और ग्राम विकास की दिशा भी नियोजित कर सकती है. ग्राम सभाएं तृणमूल स्तर पर लोकतंत्र
संरक्षित करने की भूमिका सफलतापूर्वक निभा सकती है यदि उन्हें पर्याप्त अधिकार प्रदान किए जाएं. ग्रामीण
क्षेत्र का सम्पूर्ण आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास मजबूत पंचायतों पर निर्भर करता है. निम्नतम स्तर
पर लोकतंत्र की बुनियाद के रूप में पंचायतों को उनमें विश्वास जताकर तथा उन्हें पर्याप्त प्रशासनिक और वित्तीय
शक्तियाँ देकर एवं लोगों की सक्रिय सतर्कता और भागीदारी को प्रोत्साहित करके सशक्त किया जा सकता है.

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